Friday, November 25, 2011

वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी...........

आम लोगों के धैर्य की परिक्षा लेने में सभी लगे हुए से लगते हैं-- सरकार, विपक्ष, अन्य राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी, पत्रकार, ट्रेड-यूनियन के नेतागण, छात्र-संगठनों के प्रतिनिधि, और यहाँ तक कि आर. डब्ल्यू. ए. के नेतागण भी---सब के सब. ऐसा लगता है कि अंधी सुरंग में हम सब बेतहासा दौड़ते चले जा रहे हैं, बिना आगे-पीछे  देखे. सिर्फ गाल बजाने वाले, आज के सन्दर्भों में, कुछ से कुछ उलजलूल विषयों पर तथाकथित आधिकारिक रूप से की-बोर्ड पर अंगुलियाँ नचाने वाले अब बहस- मुबाहिसा में उल्लेखनीय बन रहे हैं. "उष्ट्रानाम विवाहेषु, गर्धवाः गीत गायकाः , परस्परं प्रशिस्यन्ति, अहो रूपं अहो ध्वनि". इस दौर में किसने कितना जलाया खुद को संघर्षों की आग में, कितना तप किया है किसी मुद्दे पर जबान खोलने के पहले, अगर इन तथ्यों की पड़ताल करें तो यहाँ अधिकतर विद्वान् नेटवर्किंग और चापलूसी की ही उपज साबित होंगे. कभी जाति के नाम पर, तो कभी क्षेत्र के नाम पर. कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी निजी सेवा-भक्ति के नाम पर, लोग अपना-अपना जुगाड़ मात्र बैठाते आये हैं. यह भयावह स्थिति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को लीलती जा रही है. लोहिया जी द्वारा प्रयुक्त "छद्म-बुद्धिवीवी" शब्द शायद पहले कभी इतना प्रासंगिक नहीं था, जितना आज हो गया है. हर जगह छद्म ही छद्म. और इस छलिया परिवेश में रहते हुए भी कुछ न कुछ सार्थक करना होगा, बिना आलोचना-प्रत्यालोचना की विशेष परवाह किये हुए. तभी कुछ सार्थक होगा. जरूर कुछ सार्थक होगा. वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी........... 

Wednesday, November 9, 2011

इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी

मैं चुप हूँ क्योंकि चुप रहना ही ठीक है. बात न सिर्फ रामानुजन की है नहीं राम कथा की. बात इतिहास की व्याख्या पर वर्चस्व की है. हम क्रन्तिकारी और तुम प्रतिक्रांतिकारी बनाम हम सच्चे भारतीय और तुम नकली भारतीय के उद्घोषकों के बीच चल रहे इस उठापटक में न तो कोई तीसरी आवाज़ है और न ही कोई उस आवाज़ का संज्ञान लेने वाला. सच तो यह है की इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है. तटस्थ होकर इति...हास की मीमांशा करने के दिन लड़ गए से लगते हैं. पर जो अपने सच से आँखें नहीं मिला सकता वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं कर सकता, चाहे चुनौती भ्रष्टाचार की हो या नक्सली हिंसा की या फिर साम्प्रदायिकता की ही क्यों न हो? इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी. संस्कृति के सवाल को बहुत सनसनीखेज बनाकर दोनों खेमों के पहलवान सिर्फ संस्कृति हो ही आहत कर रहे हैं.

मैं व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी दुखी हूँ क्योंकि दिल्लीविश्वविद्यालय में जब धर्म और संस्कृति के विषय इतिहास में निषिद्ध थे तब भी मैं उन चाँद लोगों में से था जो इस विषय पर खुलकर बात करने की सार्वजनिक वकालत करता था. इसकी अंतिम और सुखद परिणति तब हुयी प्रोफ़ेसर टी. के. वेंकट सुब्रमनियन इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे और मैं इतिहास विभाग के शिक्षकों की जेनेरल बॉडी बैठक से निर्वाचित होकर सिलेबल रिविज़न कमिटी का सदस्य बना था. सिलेबस कमिटी की बैठक में मैं अकेला सदस्य था जिसने सबसे पहले तीन बिन्दुओं को उठाया--

1.दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म तथा संस्कृति पर अलग और स्वतंत्र रूप से पेपर पढाया जाये.
2..आधुनिक भारतीय इतिहास को १९४७ से आगे बढाकर १९७७ तक लाया जाना चाहिए क्योंकि आपातकाल भारत की महत्वपूर्ण घटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
3.सोसल फ़ोरमेसन का पेपर थर्ड ईयर से निकालकर फर्स्ट ईयर में लगाया जाये.
तीसरे मुद्दे को पहले भी कई जेनेरल बॉडी मीटिंग में मैं उठा चुका था, जहाँ मेरी बात अनसुनी कर दी गयी थी.
खैर अब जबकी मैं खुद ही इस समिति का सदस्य था, इतनी अस्सानी से मेरी बात अनसुनी नहीं की जा सकती थी, हालाँकि कुछ प्रारंभिक विरोध जरूर हुआ था. देशबंधु कालेज के शैलेन्द्र मोहन झा भी उस समिति के सदस्य थे, जिसमे यह पूरी बहस चली थी. अंततः बनकट साहब को भी मेरी बात सही लगी और तीनों मुद्दों पर सहमति बन गयी. यह अलग बात है की जब इन पर्चों के अन्दर विषय-वास्तु के निर्धारण हेतु उप-समिति गठित करने की बैठक हुयी तो मुझे इसकी सूचना नहीं मिली. मैं नहीं जनता हूँ की ऐसा जानबूझकर किया गया या ऐसा होना एक संयोग था, पर मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि मेरा असली उद्येश्य पूरा हो चुका था--मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे स्वीकृत हो चुके थे.

निर्धारित प्रक्रिया के तहत बी.ए. प्रोग्राम के प्रथम वर्ष में पहले मुद्दे को जगह दी गयी, आनर्स के सिलेबस में तृतीय वर्ष में दूसरे मुद्दे को जगह दी गयी और आनर्स के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में तीसरे मुद्दे को जगह दी गयी.

मुझे मालूम है की इस मंच पर ऐसे लोग भी लगातार गैर जरूरी और निजी विद्वेष से ग्रसित होकर लिखने वाले लोग भी हैं, अतः सबसे विनम्र निवेदन है की मेरी बातों का सत्यापन तत्कालीन अध्यक्ष वेंकट साहब से कर लें तभी किसी के द्वारा प्रितिकूल टिप्पणी और विष-वमन पर ध्यान दें क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ सैडिस्ट होते हैं और किसी के रचनात्मक कार्य से इन्हें चिढ होती है क्योंकि इन्होने जीवनैसे ही नौकरी करते हुए गुजारी होती है.

खैर, फिर जब २००६ से बी.ए. आनर्स के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मौजूदा पर्चा आया तो मुझे बेहद हार्दिक प्रसन्नता हुयी क्योंकि मुझे विश्वास हो गया की अब भारत का इतिहास सिर्फ आर्थिक-सामजिक न रहकर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी पढाया जायेगा, इस विश्वविद्यालय में भी. मैं तब से इस परचे को पढ़ा रहा हूँ. मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है की इस परचे को पढ़ते समय अगर कही असहजता होती है तो नाट्यशास्त्र में वर्णित नायिका के गुणों और श्रृंगारिक भंगिमाओं के वर्णन में न की रामायण को पढ़ने में. इसीलिए जब २००८ में तत्कालीन अध्यक्ष जाफरी साहब के साथ कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया था तो मैंने उसका जमकर विरोध किया था, विद्वत परिषद् के अन्दर और बाहर--दोनों जगहों पर.

जब तत्कालीन कुलपति पेंटल साहब का सर कलम कर देने का किसी ने फतवा जारी किया था तब भी मैंने ऐसा ही विरोध किया था और फरवरी २००८ में विश्वविद्यालय में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन संस्कृति के सवाल पर कराया था. सनद रहे की इस सेमीनार में ही पहली बार इस विवाद पर चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति साहब ने अपना वक्तव्य दिया था. किसी सज्जन की इच्छा हो तो इस सेमीनार की वीडियो मुझसे लेकर देखा सकता है. इस सेमिनार में वेंकट साहेब, भैरवी साहू जी, जाफरी साहेब, ठाकरान साहेब, जे.एन. यूं. से आनद कुमार, जामिया से रिजवान कैसर समेत अन्य कई चर्चित इतिहासकारों तथा समाज शास्त्रियों ने हिस्सा लिया था और इस उबलते सवाल के शांतिपूर्ण शमन का वातावरण बना था.

इस पूरे वृतांत का मेरा आशय यह है की मैं यह पहले बता दूं की इस प्रकरण से मैं किस हद तक जुदा हुआ हूँ--गोया मैं स्वयं इसका एक पात्र हूँ. इसीलिए अब तक मैं इस पर चुप रहा हूँ की कहाँ खो गया मेरा वह प्रयास जिसके तहत संस्कृति का सवाल इस विश्वविद्यालय में भी महत्वपूर्ण सवाल बना था. क्या इस पूरे शोरगुल में कही भी इसकी जायज चिंता किसी भी पक्ष द्वारा दिखाई जा रही है?

Tuesday, November 8, 2011

इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है


मैं चुप हूँ क्योंकि चुप रहना ही ठीक है. बात न सिर्फ रामानुजन की है नहीं राम कथा की. बात इतिहास की व्याख्या पर वर्चस्व की है. हम क्रन्तिकारी और तुम प्रतिक्रांतिकारी बनाम हम सच्चे भारतीय और तुम नकली भारतीय के उद्घोषकों के बीच चल रहे इस उठापटक में न तो कोई तीसरी आवाज़ है और न ही कोई उस आवाज़ का संज्ञान लेने वाला. सच तो यह है की इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है. तटस्थ होकर इति...हास की मीमांशा करने के दिन लड़ गए से लगते हैं. पर जो अपने सच से आँखें नहीं मिला सकता वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं कर सकता, चाहे चुनौती भ्रष्टाचार की हो या नक्सली हिंसा की या फिर साम्प्रदायिकता की ही क्यों न हो? इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी. संस्कृति के सवाल को बहुत सनसनीखेज बनाकर दोनों खेमों के पहलवान सिर्फ संस्कृति हो ही आहत कर रहे हैं.

मैं व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी दुखी हूँ क्योंकि दिल्लीविश्वविद्यालय में जब धर्म और संस्कृति के विषय इतिहास में निषिद्ध थे तब भी मैं उन चाँद लोगों में से था जो इस विषय पर खुलकर बात करने की सार्वजनिक वकालत करता था. इसकी अंतिम और सुखद परिणति तब हुयी प्रोफ़ेसर टी. के. वेंकट सुब्रमनियन इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे और मैं इतिहास विभाग के शिक्षकों की जेनेरल बॉडी बैठक से निर्वाचित होकर सिलेबल रिविज़न कमिटी का सदस्य बना था. सिलेबस कमिटी की बैठक में मैं अकेला सदस्य था जिसने सबसे पहले तीन बिन्दुओं को उठाया--

1.दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म तथा संस्कृति पर अलग और स्वतंत्र रूप से पेपर पढाया जाये.
2..आधुनिक भारतीय इतिहास को १९४७ से आगे बढाकर १९७७ तक लाया जाना चाहिए क्योंकि आपातकाल भारत की महत्वपूर्ण घटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
3.सोसल फ़ोरमेसन का पेपर थर्ड ईयर से निकालकर फर्स्ट ईयर में लगाया जाये.
तीसरे मुद्दे को पहले भी कई जेनेरल बॉडी मीटिंग में मैं उठा चुका था, जहाँ मेरी बात अनसुनी कर दी गयी थी.
खैर अब जबकी मैं खुद ही इस समिति का सदस्य था, इतनी अस्सानी से मेरी बात अनसुनी नहीं की जा सकती थी, हालाँकि कुछ प्रारंभिक विरोध जरूर हुआ था. देशबंधु कालेज के शैलेन्द्र मोहन झा भी उस समिति के सदस्य थे, जिसमे यह पूरी बहस चली थी. अंततः बनकट साहब को भी मेरी बात सही लगी और तीनों मुद्दों पर सहमति बन गयी. यह अलग बात है की जब इन पर्चों के अन्दर विषय-वास्तु के निर्धारण हेतु उप-समिति गठित करने की बैठक हुयी तो मुझे इसकी सूचना नहीं मिली. मैं नहीं जनता हूँ की ऐसा जानबूझकर किया गया या ऐसा होना एक संयोग था, पर मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि मेरा असली उद्येश्य पूरा हो चुका था--मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे स्वीकृत हो चुके थे.

निर्धारित प्रक्रिया के तहत बी.ए. प्रोग्राम के प्रथम वर्ष में पहले मुद्दे को जगह दी गयी, आनर्स के सिलेबस में तृतीय वर्ष में दूसरे मुद्दे को जगह दी गयी और आनर्स के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में तीसरे मुद्दे को जगह दी गयी.

मुझे मालूम है की इस मंच पर ऐसे लोग भी लगातार गैर जरूरी और निजी विद्वेष से ग्रसित होकर लिखने वाले लोग भी हैं, अतः सबसे विनम्र निवेदन है की मेरी बातों का सत्यापन तत्कालीन अध्यक्ष वेंकट साहब से कर लें तभी किसी के द्वारा प्रितिकूल टिप्पणी और विष-वमन पर ध्यान दें क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ सैडिस्ट होते हैं और किसी के रचनात्मक कार्य से इन्हें चिढ होती है क्योंकि इन्होने जीवनैसे ही नौकरी करते हुए गुजारी होती है.

खैर, फिर जब २००६ से बी.ए. आनर्स के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मौजूदा पर्चा आया तो मुझे बेहद हार्दिक प्रसन्नता हुयी क्योंकि मुझे विश्वास हो गया की अब भारत का इतिहास सिर्फ आर्थिक-सामजिक न रहकर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी पढाया जायेगा, इस विश्वविद्यालय में भी. मैं तब से इस परचे को पढ़ा रहा हूँ. मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है की इस परचे को पढ़ते समय अगर कही असहजता होती है तो नाट्यशास्त्र में वर्णित नायिका के गुणों और श्रृंगारिक भंगिमाओं के वर्णन में न की रामायण को पढ़ने में. इसीलिए जब २००८ में तत्कालीन अध्यक्ष जाफरी साहब के साथ कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया था तो मैंने उसका जमकर विरोध किया था, विद्वत परिषद् के अन्दर और बाहर--दोनों जगहों पर.

जब तत्कालीन कुलपति पेंटल साहब का सर कलम कर देने का किसी ने फतवा जारी किया था तब भी मैंने ऐसा ही विरोध किया था और फरवरी २००८ में विश्वविद्यालय में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन संस्कृति के सवाल पर कराया था. सनद रहे की इस सेमीनार में ही पहली बार इस विवाद पर चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति साहब ने अपना वक्तव्य दिया था. किसी सज्जन की इच्छा हो तो इस सेमीनार की वीडियो मुझसे लेकर देखा सकता है. इस सेमिनार में वेंकट साहेब, भैरवी साहू जी, जाफरी साहेब, ठाकरान साहेब, जे.एन. यूं. से आनद कुमार, जामिया से रिजवान कैसर समेत अन्य कई चर्चित इतिहासकारों तथा समाज शास्त्रियों ने हिस्सा लिया था और इस उबलते सवाल के शांतिपूर्ण शमन का वातावरण बना था.

इस पूरे वृतांत का मेरा आशय यह है की मैं यह पहले बता दूं की इस प्रकरण से मैं किस हद तक जुदा हुआ हूँ--गोया मैं स्वयं इसका एक पात्र हूँ. इसीलिए अब तक मैं इस पर चुप रहा हूँ की कहाँ खो गया मेरा वह प्रयास जिसके तहत संस्कृति का सवाल इस विश्वविद्यालय में भी महत्वपूर्ण सवाल बना था. क्या इस पूरे शोरगुल में कही भी इसकी जायज चिंता किसी भी पक्ष द्वारा दिखाई जा रही है?

Sunday, August 28, 2011

पूरा देश अत्मविश्वास से लबरेज है---वो सुबह कभी तो आयेगी.

अब अण्णा का अनशन समाप्त हुआ. अण्णा के शब्दों मे स्थगित हुआ है, समाप्त नहीं. बहुत कुछ देखा-सुना-समझा, पूरे दौर में. रोज रामलीला मैदान गया. डूटा के चुनाव के दिन भी गया अपनी इसी समझ को बढाने हेतु. लिखा भी. लगतार लिखा, कुछ छपा, बहुत नहीं छपा. हां वेब साईट पर जरूर पोस्ट करता रहा. अनुभव की दुनिया जरूर स्मृद्ध हुयी. अगर हमें नया संसार बनाना है तो बहुत कुछ करना होगा. नये भारत के निर्माण के लिये अभी बहुत कुछ योगदान करना होगा. सवाधीनता अन्दोलन के इस चौथे दौर मे हमें कयी असहज सवाल भी पू्छने होंगे, अपने आप से भी और वेसे तमाम लोगों से, जो नया समाज बनाने की प्रक्रिया मे लगे हुए हैं--अरसे से. कयी नवीन मानदंड गढने होंगे, कयी पुरातन मूल्यों को भी अपनाना होगा. ताकत परम्परा से लेनी होगी, समझ नयी बनानी होगी. मौजूदा अन्दोलन की कमजोरियों से भी सबक लेना होगा और इसकी शक्ति से अपना खोया अत्मविश्वास हसिल करना होगा. पूरा देश अत्मविश्वास से लबरेज है---वो सुबह कभी तो आयेगी.

Sunday, August 21, 2011

अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.

प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा की मृत्य भारतीय इतिहास लेखन की ही नहीं बल्कि प्रगतिशील चिन्तन की अपूरणीय क्षति है. लगातार कई पीढ़ियों को इतिहास की उस अवधारण से, जो भारत में डी.डी.कोशाम्बी और इंगलैंड में ए.एल .बाशम विकसित कर  रहे थे, के मूल तत्वों से बनी थी वे पिछले आधे दशक से भी ज्यादा समय से परिचित करा रहे थे. आज ४-४ पीढ़ियों के लोग उनके विद्यार्थी बनाने का गौरव हासिल कर चुके है और उनकी अगाध विद्वता से सनी हुई अद्भुत शिक्षण शैली से से इतिहास की समझ बनाने में सफल हुए हैं.१९८४-१९८६ में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास , प्राचीन इतिहास में एम. ए. करने के दौर में मुझे भी उनका छात्र बनाने का गौरव मिला था. हालाँकि वे सेवा निवृत हो चुके थे परन्तु प्रोफ़ेसर डी.एन. झा के निवेदन पर तथा हमलोगों के अनुनय -विनय पर उन्होंने अपने आवास पर ही एक पेपर हमें पढाया था. हमारा बैच उनसे पढ़ने वाले विद्यार्थियों का आख़िरी बैच था. सचमुच हमने उनके जैसे महान विद्वान और उत्कृष्ट शिक्षक के विद्यार्थी के रूप में जीवन की अमूल्य निधि हासिल की है.
प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा के सच्चे शिष्य के रूप में प्रोफ़ेसर डी.एन.झा ने बिलकुल वही मेनारिज्म और पढ़ने का अंदाज़ पाया है जिनसे उनके छात्र उनमे प्रोफ़ेसर शर्मा का विस्तार देखते हैं.
एक और बात. मेरे कॉलेज, एस. पी. कॉलेज, दुमका के दिवंगत गुरुदेव, प्रोफ़ेसर देवेन्द्र कुवर, जो पटना विश्वविद्यालय में गुरुदेव प्रोफ़ेसर डी.एन.झा के सहपाठी और गुरुदेव प्रोफ़ेसर आर.एस.शर्मा के शिष्य थे भी हमें इनके बारे में बहुत बाते बताया करते थे. मेरे स्वर्गीय पूज्य पिताजी पंकज जी जो अपने समय में उस क्षेत्र के हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ और उद्भट विद्वान समझे जाते थे, ने अपनी औपचारिक अंगरेजी शिक्षा पद्धति देर से शुरू की थी. जब आर.एस.शर्मा टी.एन. बी. कॉलेज में शिक्षक थे तब मेरे पिताजी हिन्दी के सुविख्यात विद्वान् और हमउम्र होने के वावजूद शर्मा जी के आई.ए. के छात्र थे. दुर्भाग्य से मेरे पिताजी १९७७ में ही ५८ वर्ष की अल्पायु में ही दिवंगत हो गए. परन्तु यह बात संयोग नहीं है की मुझे विज्ञानं पी पढ़ाई से हटाकर इतिहास की पढ़ाई करने को विवश करते हुए पिताजी ने जो सोचा था उसी के तहत आज मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ. क्या शर्मा जी जैसे मित्र और शिक्षक से प्रभावित होकर उन्होंने ऐसा किया था? जो भी हो परन्तु यह तो सुखद संयोग और अभिमान की बात है की शर्मा जी मेरे दिवंगत पिताजी और मेरे --दोनों के शिक्षक थे.
इस सुविख्यात इतिहासकार, मौलिक चिन्तक, उद्भट विद्वान् और अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.

Friday, August 5, 2011

हमारा ज्ञान वर्धन करें, बड़ी कृपा होगी


हमारा ज्ञान वर्धन करें, बड़ी कृपा होगी
सन ४२ की क्रन्ति ने पूरे देश को एक से बढ़कर एक क्रान्तिकारी, बलिदानी, और देशभक्त समाजसेवी दिया--जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज को समर्पित कर दिया था.परन्तु अब वह पीढ़ी बची नही रही और बदलते सन्दर्भों में नवीन विचारों से लैस आन्दोलन्कारियों की एक ऐसी जमात उभरी है जो सिर्फ़ अंज्रेगी में ही खुद को स्वभविक रूप से अभिव्यक्त कर पाती है. मुझे लगता है यह उनकी मजबूरी है क्योंकि उन्हें बचपन से ही तालीम इसी भाषा में दी जाती रही है. कुछ बड़ा काम कर गुजरने की तमन्ना वाले ऐसी नवीन पौध के लिये नांक-भों सिकोड़ने की बजय हमें उनके अन्दर की पीड़ा को भी समझना चाहिये और उनके दर्द का भागीदार बनना चाहिये क्योंकि अपने बचपन की तालीम पर उनका कोई अख्तियार थोड़े ही था.
लेकिन इससे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि, बीमारू कहे जाने वाले हिन्दी क्षेत्र की जनता के हितार्थ क्या किया जाए-- भषाई रूप से? साफ़-साफ़ कहूं तो हिन्दी को कैसे सही रूप में काम-काज की भाषा बनाया जा सकता है? हिन्दी पर सरकार द्वारा करोड़ों रुपए बहाए जाते हैं--इसका सर्थक परिणाम कैसे प्राप्त हो? इस यक्ष प्रश्न पर आप सभी मित्रोन की राय जानना चाहता हूं. कृपया अपनी-अपनी राय देकर हमारा ज्ञान वर्धन करें, बड़ी कृपा होगी.

कृपया कुछ लिखकर सुझाव दें--मेरी भावना की भूख कुछ तो जरूर शांत होगी.

Thursday, July 14, 2011

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ चुनाव और हमारे सामाजिक सरोकार

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ चुनाव और हमारे सामाजिक  सरोकार
अमरनाथ झा
असोसिएट प्रोफ़ेसर, स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
एवं
पूर्व विद्वत-परिषद्‍  सदस्य, दिल्ली विश्वविद्यालय
आवासीय पता -  SRD 15 A
Shipra-Riviera, Indirapuram, Ghaziabad
Uttar Pradesh – 201014
Ph. 9871603621

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही पूरे देश के शिक्षक आन्दोलन की नजरें दिल्ली विश्वविद्यालय की हलचलों पर टिक गयीं हैं क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय का शिक्षक आन्दोलन अरसे से पूरे देश के शिक्षक-हितों और शिक्षक-अन्दोलन का पथ-प्रदर्शक और प्रवक्ता दोनो रहा है. इस संगठन ने सिर्फ़ शिक्षक हितों के लिये ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और सामाजिक हितों के भी प्रतिष्ठार्थ कई लम्बी लड़ाईयां लड़ी है और तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों को लोकविरोधी नीतियों को लागू करने से रोकने में सफ़लता पायी है. इसलिये आज भी डूटा के रूप में विख्यात यह संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय के आम शिक्षक के निजी और पेशेवर हितों की गारंटी देने वाली एकमात्र  संस्था की तरह समादृत है और इसके प्रति सभी उम्र और सभी संस्थानों के शिक्षक समर्पित दिखते हैं. परन्तु इस हालिया सच्चायी से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों से डूटा की साख में तेजी से गिरावट भी आयी है. समाज के अन्य तबके के लोग ही नही, शिक्षकों का एक बड़ा तबका भी डूटा के प्रति मोहभंग के दौर से गुजर रहा है. मोहभंग की यह स्थिति निःसंदेह समाज एवं राष्ट्र के लिये तो अशुभ संकेत हैं ही स्वयं शिक्षकों के लिये भी घातक सिद्ध हो सकती है. अतः इस पर विचार करने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है तथा डूटा को कैसे उसकी पुरानी गरिमा वापस दिलायी जा सके जहां शिक्षकों का सामाजिक सरोकार भी मुखर रूप ले सके और अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह शिक्षक पहले की तरह  फ़िर से कर सके?

अगर दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों की स्टाफ़ असोशिएसन्स और स्टाफ़ कौंसिल की बैठकौं तथा डूटा की कार्यकारिणी की बैठकौं में होने वाली चर्चा और बहस पर गौर फ़र्माएं तो आपको अचम्भित होना पडेगा. यहां की बहस इतनी जानदार और रोचक होती है कि विवेच्य विषय की मीमांसा के क्रम में दुनिया भर में होने वाली घटनाओं पर मजेदार टिप्पणियां भी धड़ल्ले से चलती रहती है. निजी और पेशेवर हितों से जुड़े मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सारगर्भित और आलंकारिक संभाषण की छटा देखते ही बनती है. उच्च कोटि के इन स्तरीय बहसों में अपनी-अपनी राजनीतिक सोच के अनुरुप विरोधी विचार की धज्जियां बड़ी बेरहमी से उड़ाई जाती है. किन्तु वाबजूद इसके वक्ताओं में निजी तौर पर शायद ही कोई कड़वाहट कभी भी देखने को मिले. लम्बे समय तक अपने कॉलेज की स्टाफ़ असोशिएसन और स्टाफ़ कौंसिल के अध्यक्ष और सचिव पद को सम्भालने के कारण तथा चार वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद्‍  का निर्वाचित सदस्य प्रतिनिधि रहने के कारण मुझे इस बात का व्यक्तिगत अनुभव है कि किस तरह अपनी बेबाक वक्तृत्त्व कला और स्पष्ट सोच के कारण तथा संबंघित सूचनाओं से लैस होने के कारण विद्वत-परिषद्‍ और कार्यकारी-परिषद्‍ की बैठकों में प्रायः निर्वाचित सदस्यों की काट विश्वविद्यालय प्रशासन के लिये असंभव हो जाता है. निर्वाचित सदस्य वक्ता बडी सफलता से विभिन्न मुद्दों पर प्रशासन को कटघडे में खड़ा करते रहते हैं और कुलपतियों को इनका भाषण गम्भीरता से सुनना पड़ता है. अचम्भित करने वाले कुछ वक्ताओं को तो वहां मौजूद विद्वान प्रोफ़ेसर, विभागाध्यक्ष तथा प्रधानाचार्य सरे-आम दाद देते रहते हैं. एक-दो पंक्तियों में लिखकर छोटी-छोटी दाद भरी चिट  मुझे अक्सर मिलती रहती थी जो वहां बैठकर कुछ-कुछ सार्थक योगदान करने का एह्सास मुझे भी कराती रहती थीं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि चतुर्दिक नैराश्य, मोहभंग  और अनास्था के घटाटोप के वाबजूद दिल्ली विश्वविद्यालय में मौजूद ईमानदार और सार्थक बहस की परंपरा मेरे जैसे लोगों को आश्वस्त करती रहती थी, जिसे किशन पटनायाक से उधार लिये गये शब्दों मे कहें, कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों  से विश्वविद्यालय का वतावरण तेजी से नकारात्मक रूप से बदला है. भारतीय समाज में व्याप्त सभी नकारात्मक प्रवृत्तियां अब विश्वविद्यालय को भी लील रही हैं. अब ईमानदार और अर्थपूर्ण सम्भाषण सिरफ़िरों का प्रलाप समझा जा रहा  है. क्षुद्र और तुच्छ निजी हित ही नवोदित नेताओं की कार्यसूची में सर्वोपरि दिखता है. अब विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि जाति और सम्प्रदाय के आधार पर शिक्षकों का ध्रुवीकरण हो रहा है. अब न तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय और न ही सामान्य शिक्षक-हित के मुद्दे विश्वविद्यालय परिसर मे चर्चा के केन्द्र में होते हैं. हाल यह है कि अब अनियमित और तदर्थ शिक्षकों के शोषण में समान रूप से सभी गुट संलिप्त हैं. अति वाम, वाम, मध्यवर्ती या दक्षिणपंथी - सभी घटक इस फ़िराक मे रहते हैं कि किस तरह से कुलपति को प्रभावित किया जाय या उन्हें दबाब मे लाया जाय ताकि आम शिक्षक हितों की बलि देकर भी अपने गुटीय या निजी हितों का संवर्धन किया जा सके. 10-15-20 वर्षों से  तदर्थ शिक्षक के रूप मे  शोषित और अभिशप्त, असमय ही प्रौढ़ हो चुके शिक्षकों की सुधि लेने का अवकाश किसी को नहीं है, बल्कि वे तो उनके कैडर बने रहने को ही बने हैं, मानो. यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि जब अपने कर्यकाल में मैंने तदर्थ शिक्षकों को नियमित कराने हेतु और आगे की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने हेतु बड़ी मुहिम चलायी थी तो उसे विश्वविद्यालय के किसी भी गुट का सक्रिय समर्थन तो नहीं ही मिला था बल्कि बड़े गुटों का भारी विरोध झेलना पड़ा. मेरे इस प्रस्ताव को कि नियुक्ति में गुणवत्ता और पारदर्शिता हेतु दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक चयन आयोग का गठन किया जाय और उसी के तहत यहां के विभागों और कॉलेजों मे शिक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान हो, तो भले ही कुलपति उससे सहमत थे परन्तु निर्वाचित सदस्य ही सबसे बडे विरोधी थे. क्यों? क्योंकि ऐसा होने से विभिन्न मठाधीशों की दुकानें बन्द हो जातीं. दिल्ली सरकार के छुटभैये नेताओं की भी दुकान बन्द हो जाती और यहां के आम शिक्षक सिर उठाकर चलते, नेताओं की किसी को कोई परवाह नहीं होती. अतः परिणाम वही हुआ जो होना था - यह अब किसी की भी गुट की चर्चा का विषय नही है, जबकि यही एकमात्र विकल्प बचा है, अगर हमें शिक्षा और शिक्षक की गरिमा बचाये रखनी है तो.

तदर्थ शिक्षकों का मुद्दा जब मैंने पूरी ताकत से उठाया तो विश्वविद्यालय को मजबूर होना पड़ा और कई लोगों को नियमित कराया जाना संभव हुआ. तदर्थ नियुक्ति प्रक्रिया को भी विभागीय सामन्तशाही से मुक्त करने हेतु मैंने प्रोफ़ेसर एस. के. टंडन समिति के सदस्य की हैसियत से न्यूनतम पारदर्शिता को लागू करवाया. फिर भी गुटीय घेरे के दबाब के कारण उसमें भी कुछ छिद्र छोड ही दिया. लेकिन तमाम कमियों के वाबजूद अब तदर्थ नियुक्ति मे पारदर्शिता तो दिखती ही है.

पिछले 2 वर्षों से सेमेस्टर प्रणाली को लेकर जिस तरह से विश्वविद्यालय का महौल बिगाड़ा गया और सभी छोटे-बड़े गुटों के नेताओं की भेड़चाल भरी बचकानी हरकतों ने जिस तरह से शिक्षक समुदाय की किरकिरी करायी उससे समस्त शिक्षक समाज शर्मसार हुआ है. समाज में तो हमें नीची निगाह से देखा ही गया, न्यायपालिका द्वारा  इसे उचित, वैध और उपयुक्त मानकर लागू किये जाने के बाद हमारा कद बेहद छोटा दिख रहा है. कौन है इसका जिम्मेदार? क्या इस स्थिति से बचा नहीं जा सकता था? मेरे कार्यकाल मे ही यह सवाल दो बार विद्वत-परिषद्‍  के एजेंडे पर लाया गया था परन्तु डूटा के डिक्टेट के तहत निर्वाचित प्रतिनिधियों ने उसपर चर्चा नहीं होने दी. आज मुझे भी निजी तौर पर इस बात की टीस है कि अगर भीष्म की तरह मेने भी डूटा से बंघकर ही काम करने का स्वघोषित व्रत न लिया होता और इस मुद्दे पर चर्चा होने दी होती तो कम से कम यह मौजूदा स्वरूप मे न आता और इसके नकारात्मक पहलुओं को रोका जा सकता था. कभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करने वाली और संघर्ष करने वाली डूटा कितनी कमजोर हो गयी है कि किसी विषय पर बहस करने से भी भागने लगी है अब, यह प्रसंग इसका जीता-जागता उदाहरण है. आज  सेमेस्टर प्रणाली को जबरिया लागू किये जाने को लेकर आम शिक्षकों मे जो वितृष्णा का भाव है उसके लिये सिर्फ़ विश्ववियालय प्रशासन ही जिम्मेदार नही है, यहां का बदतर होता जा रहा माहौल भी उसके लिये समान रूप से जिम्मेदार है, विशेषकर शिक्षक नेताओं की अदूरदर्शिता.

चमचागिरी का आलम यह है कि अति उत्साही कुछ शिक्षक अपनी कक्षाओं मे पढ़ाने की बजाए विभागों के अध्यक्षों की दरबारी को अपनी शान और उपलब्धि समझते हैं. भला हो भी क्यों नहीं? 2-3-4 बरस पहले नियुक्त हुए, और कुछ मामलों मे तो तदर्थ रूप से कार्यरत, शिक्षक हेड-एक्ज़ामिनर तक बन रहे हैं, ऑनर्स की उत्तर-पुस्तिकाओं के परिक्षक बन रहे हैं और 25-30 सालों के शिक्षण अनुभव की वरीयता वाले शिक्षक दरकिनार किये जा रहे हैं. कम से कम इतिहास विभाग का तो यही तुगलकी फ़रमान वर्षों से विश्वविद्यालय मे चल रहा है. अब आप खुद ही समझ लें कि कितनी पवित्रता बची रह गयी है हमारी परीक्षा-प्रणाली की. हमारा शिक्षक संघ और उसका कोई भी घटक इसे कभी मुद्दा नहीं बनाता है. प्रोफ़ेसर नीरा चंडोक कमीटी या एकाउंटिबीलिटी कमीटी के सदस्य की हैसियत से मैंने कमीटी आफ कोर्सेस, जो इन विसंगतियों को दूर करने हेतु उत्तरदायी समिति होती है, के गठन की प्रक्रिया को धारदार बनाने हेतु कई सुझाव दिलवाये हैं परन्तु क्या हस्र हुआ  नीरा चंडोक कमीटी का और किस अवस्था मे है वह, इसकी सुधि लेने की न तो फ़ुर्सत और न ही जज्बा है हमारे नेताओं में. शायद  अनिर्णय की यह स्थिति उनके हितों की साधना में सहायक हो रही हो. विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों मे अरसे से चल रही सामंतशाही विभिन्न गुटों की प्राणघारा आज भी बनी हुई है इसे कौन नहीं जानता? लोहिया जी ने शायद ऐसे ही लोगों के लिये छद्म बुद्घिजीवी शब्द का प्रयोग किया होगा.

अभी कॉलेजों में प्रोफ़ेसर पद पर शिक्षकों की प्रोन्नति जैसा गम्भीर मामला सिर्फ़ चुनावी घोषणापत्रों की शोभा बढ़ाने के लिये लिखी जाती है. कोई गुट इसके लिये गम्भीर नहीं दिखता है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था के पूर्व निदेशक प्रोफ़ेसर टंडन की अध्यक्षता वाली उस समिति, जिसका कार्य मेडिकल कॉलेज के शिक्षकों की अर्हता का निर्धारण करना था, के सदस्य के रूप में मैंने देखा था कि मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्था बिना किसी विशेष अड़चन के शिक्षकों को प्रोफ़ेसर के पद पर प्रोन्नति पाने का अवसर प्रदान करती है और कई जगहों पर दिल्ली विश्वविद्यालय में असोशिएट प्रोफ़ेसर के बराबर की योग्यता के व्यक्त्ति प्रोफ़ेसर बनने का गौरव प्राप्त करते हैं तो दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज शिक्षकों को यह मौका क्यों नहीं मिल सकता है? इस बेहद गम्भीर मुद्दे को सुलझाने की बजाय इस बात पर अधिक ध्यान  दिया जा रहा है कि मौजूदा कुलपति को किस प्रकार से प्रभावित किया जाय - मिन्नत करके या दबाब डालकर और अपना-अपना उल्लू सीधा किया जाय. मौजूदा चुनावी दंगल भी इसी बात की गवाही दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं.

यह भी देखना दिल्चस्प होगा कि क्या कोई गुट हाल ही मे उजागर परंतु अरसे से नमांकन में हो रहे विभिन्न तरह के भ्रष्टाचार को तवज्जो देता है और कितना तवज्जो देता है? पिछले कुछ महीनों से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जिस तरह से पूरे देश मे एक आन्दोलन का वातावरण बन रहा है कोई गुट उसे भी अपना चुनावी एजेंडा बनाता है कि नहीं, यह भी इस चुनाव में दिख जायेगा. एक सशक्त लोकपाल और काले घन के मुद्दे को अगर कोई गुट हथियाता भी है तो उसके तेवर से पता चल जायेगा कि कितनी गंभीरता है इसके प्रति उनमें. क्या अण्णा हजारे और रामदेव भी इस चुनाव पर नजरें गड़ाए होंगे यह तो मैं नहीं जानता परन्तु इतना जरूर कह सकता हूं कि पूरा देश दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रबुद्ध शिक्षकों से इतना तो उम्मीद कर ही सकता है कि इस ऐतिहासिक घड़ी में इन्हें अपनी उज्जवल परम्परा के अनुरूप देश और समाज को दिशा देने हेतु आगे आना चाहिये क्योंकि तमाम विसंगतियों के वाबजूद अभी इस विश्वविद्यालय का आम शिक्षक बेहद मिहनती, सिद्धांतवादी, कर्मठ, प्रगतिशील और आदर्शवादी है. क्या मौजूदा चुनाव आज की चुनौतिपूर्ण घड़ी में एक नये युग का आगाज करने की कोई झलक दे सकेगा?

Thursday, June 30, 2011

पंकज जी की ९२वी जयन्ती भी चुपचाप गुजर गयी


आज ३० जून था. १८५५ की ३० जून को संताल परगना में संताल क्रांति हुयी. उसके बाद से ही इस क्षेत्र का नाम संताल परगना पड़ा.
आज झारखण्ड में संताल हूल दिवस राजकीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. महान सिदु - कान्हू को क्या पता था की वे इतिहास बनाने जा रहे हैं.

इसी तरह ३० जून १९१९ को पंकज जी का जन्म हुआ. पंकज जी ने बहुत कम उम्र पाई. लेकिन कम उम्र में ही उन्होंने ऐसे काम कर दिए जो आज चमत्कार लगते हैं. उन्होंने एक मानव द्वारा सम्भव हर दिशा में अपने व्यक्तित्व की छाप छोडी. शिक्षा, साहित्य, स्वाधीनता-संग्राम, रंगकर्म, मानवीय श्रम की गरिमा की स्थापना, उछातम जीवन मूल्यों की स्थापना, कविता, एकांकी, प्रहसन, समीक्षा, वक्तृत्व कला---प्रत्येक दिशा में पंकज जी अप्रतिम थे. विद्वता ऐसी की बड़े-बड़े नतमस्तक थे, शिक्षण ऐसा की छात्र दीवाने थे, संभाषण ऐसा की जन-समूह झूम उठाता था, काव्य-पथ ऐसा की श्रोता रोने लगते थे, सुबकने लगते थे तो वीर रश के साथ सबकी भुजाएं फड़कने लगती थीं. संताल परगना में पंकज-गोष्ठी के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य सृजन की जो अलख जगाये उअसने उन्हें इतिहास निर्माता बना दिया. शायद उन्हें भी नहीं पता होगा कि वे इतिहास रचाने जा रहे हैं.

सवभाव शिशु की तरह निर्मल. जो भी उनसे मिलता था उनका कायल हो जाता था. सुगठित कद्दावर काया, सुदर्शन व्यक्तित्व, अद्भुत आकर्षण था उनके भौतिक व्यक्तित्व में भी. झकझक सफ़ेद खाधी की धोती और कुर्ता उनके व्यक्तित्व को ऐसा बना देता था मनो उनको देखते ही रह जाओ.

पंकज जी जब ५७ वर्षा की अल्पायु में चल बसे तो संपूर्ण अंचल में मनो बज्रपात हो गया हो. 
आज भी, उनके चले जाने के ३४ वर्षों बाद भी वहां के लोग उनकी स्मृति को आपनी पावन धरोहर मानते हैं.

उनकी ९२वी जयन्ती पर तथा रवींद्र टेगोर की १५०वी जयन्ती पर दोघर में कार्यक्रम आयोजित करना था--पर नहीं कर पाया. देखता हूँ, उनकी ३४वी पुण्य-तिथि पर, १७ सितम्बर को यह कार्यक्रम कर पाटा हूँ की नहीं. इच्छा और योजना--दोनों है, अगर संसाधनों का प्रबंध हो जय तो इसे सहज संपन्न कर पाउँगा. पंकज जी ने संताल परगना के निवासियों को जिस ज्ञान का अवदान दिया उसे कृतज्ञता के साथ याद किया जाता रहेगा.

२९ जून को उनके शिष्य और संताल परगना की एक अन्य महँ विभूति प्रोफ़ेसर सत्यधन मिश्र जी का भी जन्म दिन है. इस साल वे ७५ साल पुरे कर गए. मेरा इरादा था की पंकज जयन्ती और सत्यधन बाबू की हीरक जयन्ती एक साथ मनाऊँ. सत्यधन बाबु ने संताल आदिवाशियों में चेतना जागृत करने में जो भूमिका निभाई है वह अद्वितीय है-- कोई भी संताल या गैर संताल व्यक्ति इस दिशा में सत्यधन बाबू की बराबरी नहीं कर सकता है. सत्यधन बाबू ने मेरा व्यक्तित्व गढ़ने में भी भूमिका निभाई है. सत्यधन बाबू के योगदानों को रेखांकित किये बगैर संताल परगना का इतिहास अधूरा रहेगा. सचमुच वे पंकज जी जैसे योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे. हम सबको मिलकर सत्यधन बाबू को उनका वाजिब सम्मान देना चाहिए, उनके योगदानों को रेखांकित करना चाहिए. लगता है की संताल परगना और वहां के सपूतों को इतिहास में वाजिब स्थान दिलाने की जिम्मेवारी मेरी ही है-- तभी तो आज तक किसी ने कुछ भी नाहे लिखा इन विषयों पर. 

पंकज जी और सत्यधन बाबू ही नहीं, संपूर्ण संताल परगना और वहां की प्रतिभावों की कातर पुकार मेरे कानों में निरंतर कोलाहित हो रही है. पता नहीं कब मै यह पुनीत कर्त्तव्य पूरा कर पाउँगा--अभी तो बस अपने नून-तेल के ही फेर में लगा हुआ हूँ. 

पता नहीं कब मैं अपनी यह जिम्मेदारी पुरी करूंगा.

सहज मानवीय भावनाओं के कुशल चितेरे कवि ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’


डॉ. विश्वनाथ झा

उपनिदेशक - राजभाषा विभाग, बेंगलूर 


          अभी-अभी 30 जून गुजरा. 30 जून हूल क्रांति दिवस है. यह इतिहास का वो दिन है जब संतालपरगना के आदिवासियों ने सन 1855 में भोगनाडीह गांव में सिदो, कान्हू, चांद और भैरव - इन चार भाइयों के नेतृत्व में महाजनों, सूदखोरों और प्रकारांतर से ब्रिटिश महाप्रभुओं के विरूद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया और ब्रिटिशसत्ता को धत्ता बताते हुए पूरे के पूरे दामिन क्षेत्र में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी. शायद भारत का यह पहला स्वतंत्रता संघर्ष था.
          इसी 30 जून [वर्ष 2009] को एक और घटना घटी. दुमका में सूचना भवन में कवि आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’ की 90वीं जयंती मनाई गई. 30 जून 1919 को, तब के बिहार और अब के झारखंड के संतालपरगना के सारठ थाना के खैरबनी नामक गुमनाम से गांव में इस कवि ने जन्म लिया था. जयंती में तत्कालीन संताल परगना जिले की और अब के दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज और पाकुड़ के साहित्यिक जगत की नामचीन हस्तियां जुटी थीं. इस लेख का लेखक भी संयोग से इस उत्सव में शरीक था. जयंती उत्सव बड़े शानदार ढंग से पूर्ण सफलता से साथ मनाया गया.
          पूरे उत्सव के दौरान एक प्रश्न निरंतर अपनी पूरी उठान से साथ सामने आता रहा कि मृत्यु के 32 वर्षों बाद [16 सितंबर 1977 को कवि पंकज का असामयिक निधन हुआ था] जी हां 1 नहीं 2 नहीं 10 नहीं 20 नहीं पूरे 32 वर्षों के बाद कवि पंकज की स्मृति में आयोजित उनकी 90वीं जयंती में भाग लेने जिले के मूर्धन्यतम व्यक्तित्व उपस्थित हुए हों तो निश्यय ही कोई बात उस व्यक्तित्व में रही होगी. पंकज जी के प्रति जनमानस के आकर्षण की इसी पड़ताल ने लेखक को पंकज जी के उस कवि रूप तक पहुंचा दिया जो पूरी सहजता से मानवीय-जन की भावनाओं के व्यावहारिक चित्र आंक देता है. शायद यही पंकज की सबसे बड़ी सामाजिक और साहित्यक देन है कि हर कोई उनकी कविताओं से अपने आपको जुड़ा हुआ महसूस करता है. मानव मन की इन्हीं सहज भावनाओं के चित्रण के लिये उन्होंने अपने आपको किसी ’वाद’ से नहीं जुड़ने दिया. अपनी काव्य पुस्तक ’उद्‍गार’ के प्राक्कथन में कवि की स्वीकारोक्ति भी है - "वर्तमान युग विभिन्न मतवादों का युग बन गया है परंतु मैंने शक्ति भर इस गोरखधंधे से अपने आप को बचाने का प्रयास किया है. फिर भी अतिशय वाद प्रेमी किसी न किसी प्रकार का वाद इसमें भी ढूंढ ही ले सकते हैं". अस्तु , कवि की इस आत्मस्वीकारोक्ति और उनके काव्य के गहन अवगाहन से एक सत्य प्रकट होता है और वह सत्य है "सबार ऊपरे मानुष सत्त". कवि ने सही अर्थों में मानव जीवन जिया, जी हां, मानव जीवन जो इंसान का जीवन है, वह इंसानी जीवन, जो भगवान और शैतान के बीच का है. वह जीवन जिसने यदि ’मलयानिल’ का सुखद संस्पर्श पाया है तो जीवन के ’झांझावातों’से भी अक्सर दो-चार हुआ है. इसीलिए पंकज की स्नेहदीप और उद्‍गार में संकलित कविताएं [दुर्भाग्य से कवि द्वारा रचित असंख्य कविताओं में से सिर्फ कुछ कविताएं ही प्रकाशन का मुंह देख पायीं] ही उनकी स्मृतिशेष हैं. ये कविताएं उनके जीवन की अनुपम अनुभव गाथाएं ही हैं. कबीर के शब्दों में कहें तो ये - "हौं कहता आंखिन की देखी" हैं. इसे ही घनानंद ने कितनी मार्मिकता के साथ इन शब्दों में उकेरा है - "लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोही तो तेरे कवित्त बनावत". आइए कवि श्री ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’ की कविताओं में सहज मानवीय भावनाओं का रसास्वादन करें-
          जब सहज मानवीयता की बात की जा रही है तो इसका अर्थ कवि की भावनाओं की सहजता और उसकी अकृत्रिम अभिव्यक्ति से है. एक आम आदमी की तरह ही कवि ने जीवन के ’अमृत’और ’गरल’दोनों का पान किया है. वस्तुत: उन्हें जीवन ने गरल पान का अवसर ही अधिक दिया किंतु गरल की पीड़ा को विषपायी शंकर की तरह अपने में समेट कर नीलकंठ कैसे बना जा सकता है, कवि ने यह दुनिया को दिखा दिया है. यद्यपि इन दोनों संकलनों में संग्रहित कविताओं में सृजन की तिथि नहीं दी गई है; जिसके कारण कवि की भावनाओं और विचारों के विकास को ऐतिहासिक क्रम में समझ पाने का अवकाश नहीं मिल पाता है किंतु यदि भावनाओं ओ आधार मानकर, रूमानियत और परिवक्वता को आधार मानकर, कविताओं का अध्ययन किया जाए तो यह साफ पता चलता है कि उनकी कविताओं में मिले-जुले स्वर हैं. जीवन के कैशौर्य काल की रूमानियत रह-रहकर कविताओं में अपना सिर उठाती है, किसी अजाने अचिह्ने की ओर रह रहकर इंगित करती है -


कौन स्वप्न के चंद्रलोक से छाया बन उतरी भू पर
सुभग कल्पना की प्रतिमा सी नवल इन्द्र धनु की सुंदर
नयनों में मादक पराग ले इंगित में ले सृष्टि अमर
अधरों में अनुराग उषा ले स्निग्ध चांदनी स्मित में भर
कौन कौन यह विश्व मोहिनी माया वन की तितली कौन
भ्रू विलास के संकेतों में जो लुभा रही सबको मौन
                                                                                                                             -कौन


          रहस्य की यह कुहेलिका जब धीरे-धीरे स्पष्टप्रकाश की ओर आगे बढ़कर, भोर के उजाले में बदलती है तो कवि कली से आह्वान करता है


वामा ढली रजनी चली, खिल जा अरी बन की कली
ऊषा अरूण का राग ले नव किसलयों का साज ले
है धिरकती सत्वर बढ़ा पग नाचती बन बावली
खिल जा अरी बन की कली
                                                                                                                   -कली से

[पाठक कृप्या इस अन्तरे की तुलना जयशंकर प्रसाद की कविता बिती विभावरी जाग री से करें]

          रूमानियत का दौर खत्म होते ही कवि को जीवन की कटु सच्चाइयों का पता चलता है तो कवि का मूड भी बदल जाता है. पूरी संजीदगी से जीवन के ’कालकूट’ का पान करने को वह पूरे दम खम से आगे बढ़ता है. उसे अपने पर, अपनी क्षमता पर पूर्ण विश्वास है. कवि का यह विश्वास मानव की अटूट - अदम्य आत्मिक शक्ति पर विश्वास भी है. जरा इन पंक्तियों पर गौर कीजिए, कितनी उत्साहवर्धक हैं ये पंक्तियां -


मत कहो कि तुम दुर्बल हो
मत कहो कि तुम निर्बल हो
तुम में अजेय पौरूष है
तुम काल-जयी अभिमानी।

या फिर

तुम शास्वतस्त्रोत अक्षय हो
तुम अप्रमेय तुम चिन्मय
विज्ञान-ज्ञान की निधि तुम
तुम हो असीम तुम भास्वर।


दो फेंक आवरण वह जो तुमको है लघु बतलाता
द्विविधा का जाल बिछाकर है बीच डगर भरमाता

                                                                                                                       -आश्वासन


          कवि की ये उत्साहपूर्ण उक्तियां उकठे काठ में भी प्राण फूंक पाने में सक्षम हैं. ये पंक्तियां निश्चय ही मानव मन की निराशा को दूर भगाकर उसमें सहज ही नई चेतना जगा पाने में सक्षम हैं.
कवि को अपने पौरूष पर प्रगाढ़ विश्वास है. उसे पता है कि यह पौरूष केवल उसमें नहीं, प्रकृति के जाए हर उस इंसान में है जो हाड़ मांस से बना है. किंतु केवल हाड़ मांस का पुतला होने के कारण ही वह कतई कमजोर, असहाय या निर्बल नहीं है. देखें कवि को मानवीय क्षमता पर विश्वास कितना बढ़-चढ़कर है

मुझमें है भीषण ज्वाल भरा मैं महासिंधु का गर्जन हूं ।
हिल उठे धारा डोले अंबर वह प्रलयंकारी आवर्तन हूं ॥


मैं हिमगिरि का उन्नत मस्तक जो झुकता नहीं कभी पलभर
अभिमान चूर्ण कर त्रिदेशों का जो छू सकता उंचा अंबर

          कवि को यह पता है कि जीवन की यह डगर आसान नहीं. इसमें पग-पग पर कांटे बिछे हैं, किंतु कांटों की परवाह करने वाला भी कभी क्या जीवन में कुछ पा सका है. मंजिल उसे ही मिलती है जो इन शूलों को फूलों में बदल पाने की क्षमता रखता हो,

फूलों पर पग धरने में क्या वह तो अतिशय सुकर सरल
शूलों पर चलना दुष्कर है व्रती अचंचल वहां सफल
                                                                                                                             - उद्‍गार

          स्वाभाविक ही है कि शूल भरे रास्तों पर चलने वाला थकेगा. उन थके हारे मुसाफिरों के लिए कितनी उत्साहवर्धन करने वाली हैं कवि पंकज की ये पंक्तियां -

मंजिल झांक रही वह देखो हारे चरणों को बढ़ने दो
लक्ष्य आद्रि के तुंग श्रृंग पर विजयकेतु बनकर चढने दो
रुको न क्षण भर राही डर है, शायद कहीं लौट तुम आओ
मोह खींच ले दुर्बल पग को विरत साधना से हो जाओ
                                                                                                       -मंजिल

          संघर्ष, संघर्ष और संघर्ष, कवि पंकज की असाधारण जिजीविषा ही है जो इस संघर्ष चेतना को ’अयं निज: परो वेति’ से ऊपर उठाते हुए ’वसुधैव कुटुंबकम्’ की और ले जाती है. उसे अपने चारो ओर दीन-हीन, दबे-कुचले और वंचित जन समूह का परावार दिखाई पड़ता है. तब गांधीवादी आदर्शों से ओत-प्रोत कवि का मन सहज ही पुकार उठता है

दलित मनुजता को अपनाओ - बंधु आज यह युग पुकार हो
रहे न कोई आज उपेक्षित, रहे न कोई आज बुभुक्षित
नहीं तिरस्कृत लांछित कोई, आज प्रगति का मुक्त द्वार हो
                                                                                                   - युग की पुकार

          कवि जैसे-जैसे जीवन और दर्शन में आगे बढ़ता जाता है, समाज की तल्ख सच्चाइयों से भी उसका वास्ता पड़ता जाता है. उसे सामने ही दीख पड़ता है चोट खाया हुआ इंसान, उसे सुनाई पड़ती है घायल मानवता की कराह. किंतु कवि को अफसोस इस बात का है कि दुनिया इससे क्यों नहीं पिघलती. इतनी संगदिल क्यों हो गई है दुनिया, क्यों वह ऐसा व्यवहार कर रही है मानो कुछ हुआ ही न हो -

बहुत है दर्द होता हृदय में साथी
कि जब नित देखता हूं सामने
कौड़ियों के मोल पर सम्मान बिकता है
कौड़ियों के मोल इंसान बिकता है
किंतु कितनी बेखबर हो गई दुनियां
कि इस पर आज भी परदा किए जाती।
                                                                                                            -बहुत है दर्द होता हृदय में साथी

कवि को जब यह पहेली समझ में नहीं आती तो बरबस ही कह उठता है:-

यह नहीं समझा था कि जग में फूल भी क्यों शूल बनता ?
कुसुम का कोमल हृदय क्यों झुलस कर है धूल बनता ?
अमृत के वर विटप तल क्यों जहर का है कीट पलता ?
पूर्णिमा के चांद से भी तीव्र हालाहल निकलता ?
                                                                                                           - पहेली

          यह कसक, यह हूक जब सीमा से आगे बढ जाती है तब कवि को यह भी लगने लगता है कि शायद ’पागल’ ही दुनिया में सबसे निश्चिंत है

जगत की चिंता से निर्मुक्त सतत तुम स्वीय भाव में लीन
धरा अंबर के गुप्त रहस्य खोलने में बस ममता हीन
खोजते क्या क्षण-क्षण पल-पल, अमर फल को तुम हे पागल।
                                                                                                            -पागल

किंतु कवि जल्द ही इस श्मशानी वैराग्य से ऊपर उठकर जयघोष करता है:

भले प्रतारित हूं मैं जग से मन न पराजित होने दूंगा
भले उपेक्षित हूं जन-जन से मन न उपेक्षित होने दूंगा
क्योंकि,

मैं झंझा में पलने वाला हूं, मेरा तो इतिहास अजब है
                                                                                                             -भले प्रतारित हूं मैं जग से

कवि को यह मालूम है कि

शिशिर की आह में जो जल नहीं सकता, भला मधुमास क्या जाने ।
अमां की राह में जो बल नहीं सकता किरण का हास क्या जाने

अंतत: कवि स्थित-प्रज्ञता की भाव भूमि पर पहुंचकर निर्विकार रूप में घोषित करता है

मैं समदरशी देता जग को
कर्मों का अमृत औ विष-फल

जीवन के प्रति निरंतर संघर्ष के बीच-बीच में रेगिस्तान के बीच मरूद्यान की शीतलता की तरह ही बीच-बीच में पंकज की कविताओं में प्रकृति के बड़े अनुपम चित्र भी मिलते हैं

एक बार इठलाती रात ने चाँद से पूछा-
गोरे मुखमंडल पर काला सा छाया है ?
बोला चाँद हंसकर । सच ही नहीं जानती हो क्या ?
तुम्हारे ही अंजन का दाग मन भाया है ।

          कवि पंकज अपने आस-पास की घटनाओं से भी अछूते नहीं हैं. जिन कुछ महापुरूषों ने कवि को गहरे तक प्रभावित किया है उनके प्रति भी कवि ने अपने उद्‍गार प्रकट किए हैं. इन महान विभूतियों से संबंधित कविताओं में ’तुलसी सा कवि,’ ’बापू,’ ’रवींद्र के प्रति’ ’शहीदों के प्रति’ आदि दर्शनीय है.
          कवि कभी छात्रों से संबोधित होता है तो कभी कवि से भी मुखतिब होता है. व्यक्तिगत जीवन की त्रासदी भी कवि की रचनाओं में सहज ही झलक उठी है. युवावस्था में प्रथम पत्नी के देहांत की पीर को न संभाल पाने पर ’मानसी के प्रति’ ’मित्र की याद’ और ’बेबसी’ जैसी कविताएं मिलती हैं तो पुर्नविवाह के बाद जीवन को नए सिरे से जीते हुए और नए जीवन से सामंजस्य बिठाते हुए ’ग्रामीणा’जैसी कविताएं मिलती हैं.
सचमुच में कवि पंकज के अपने व्यक्तिगत जीवन के उद्‍गार ही उनकी कविताओं में हर जगह प्रकट हुए हैं. तभी तो कवि के गुरू, स्वनामधन्य महापंडित आचार्य जनार्दन मिश्र ’परमेश’ ने उद्‍गार संग्रह की भूमिका में आर्शीवचन के रूप में कवि पंकज के काव्य की सराहना "कवै: चित्तोद्‍गार: कव्य‍म्" के रूप में की है.
30 जून की इस पावन तिथि पर हमें संताल परगना के इस महामना कवि को याद करते हुए सच में गौरव का अनुभव हो रहा है. क्या आपको भी नहीं हो रहा ?



Tuesday, June 28, 2011

भ्रष्टाचार के विरोध के विरोध का सच


अन्ना हजारे और रामदेव द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए अभियान के तहत हजारों लोगों के गोलबंद होने से भारतीय बौद्धिक जगत भी एक तरह के अजाने भय का शिकार हुआ सा दिखता है. सरकार की तरफ से जिस तरह से इस मुद्दे को लेकर असमंजस और विरोधाभास से परिपूर्ण रवैया अपनाया गया, उसे तो हम समझ सकते हैं, क्योंकि कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान जनतांत्रिक आंदोलन से ’गोलबंद हुई भीड़’  की अनदेखी नहीं कर सकता है और न ही उनके लिये इस ’गोलबंद भीड़’ द्वारा उठाये गये सवालों से टकराना आसान होता है. इसी लिये भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों की तपिस ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, अनेक भ्रष्ट राजनीतिक ताकतों ने, जो हजारों-लाखों करोड़ रूपये के घोटालों के बावजूद राजनीति में अपनी महन्थी चला रहे हैं, इन आंदोलनों पर हमला शुरू कर दिया. वैसे देखा जाए तो राजनीतिक गुंडों द्वारा आंदोलनकारियों पर हमला कोई नई बात नहीं है - अजित सरकार, सफदर हाशमी, चंद्रशेखर, नियोगी, सुरेश चरण मिश्र - यह फेहरिस्त इतनी लंबी हो सकती है कि इस पर एक मुकम्मल लेख बन सकता है, जैसे बहादुर शहीद बनते रहे हैं. नयी बात यह है कि अब प्रदर्शनकारियों और सत्याग्रहियों पर रात की अंधियारी में पुलिसिया मर्दानगी दिखाई जा रही है. अन्ना के आंदोलन से भी उसी तरह से निपटने की धमकी दी जा रही है, जैसे रामदेव के आन्दोलन से निपटा गया. मुझे  ’नागरिक समाज’ के घोषित सदस्यों (वैसे हम सभी नागरिक समाज के ही सदस्य हैं) की निजता की न तो अधिक जानकारी है, और न ही जानकारी रखने की जरूरत है और मेरे जैसे लोगों को यही तथ्य प्रभावित करने हेतु काफी है कि कथित नागरिक समाज ने सर्वग्रासी भ्रष्टाचार से लड़ने का अभियान छेड़ा है.
जिस दिन अन्ना ने अपना अनशन शुरू किया उसी दिन औरों की तरह मैं भी वहां पहुंचा था. वहां जे एन यू  ब्रांड के लड़के-लड़कियों और अंग्रेजियत में डूबे मध्यमवर्गीय संभ्रांत औरतों-मर्दों का जमावड़ा भी था. उनकी जोशीली हरकतें ऐसी लग रही थी जो किसी पारंपरिक गांधीवादी आंदोलन में अकल्पनीय थी. मजेदार बात यह थी कि वे सभी गांधी की ही दुहाई दे रहे थे - गांधी को ही अपना आदर्श और विकल्प मान रहे थे. तो क्या यह जरूरी है कि गांधी का नाम लेने का हक उन्हें नहीं दिया जाए? अगर ओबामा गांधी का नाम लेते है तो क्या हम उनकी पोशाक को देखकर हम उन्हें खारिज कर देंगे? अगर मिस्र की भीड़ गांधीवादी तरीके को अपनाती है तो क्या हम उस भीड़ की ताकत को भी खारिज कर देंगे? फ्रांसीसी क्रांति, जिसे लोकतांत्रिक चेतना की जननी माना जाता है, क्या एक भीड़ की ताकत का ही प्रदर्शन नहीं था? वैसे अन्ना हजारे पोशाक से भी गांधीवादी ही नजर आते है, यह बात दीगर है. अन्ना हजारे तो एक सामान्य व्यक्ति हैं, फिर क्यों उनके पीछे इतनी बड़ी संख्या में तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई? क्या यह मध्यमवर्गीय रोमांटिसिज्म मात्र था? अन्ना तो अंग्रेजी बोल भी नहीं पाते हैं - एक सिपाही की तरह मन की भावनाओं को बेलाग बोल देते है, सुसंस्कृत भाषा की चासनी में लपेटे बिना. 
   यहीं यह भी कहना जरूरी है कि रामदेव ने क्या किया और क्या पाया - यह सबके सामने है. अगर रामदेव चालाकी न करते तो संभवत: वे इस लड़ाई को बहूत दूर तक ले जा सकते थे. अगर उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान के हाथों खेलने की नादानी न की होती तो शायद आंदोलन अब तक बड़ा रूप ले चुका होता. दरअसल रामदेव की दुविधा एक ’राज्यवादी’ की दुविधा ही थी क्योंकि कौन नहीं जानता कि रामदेव अपने योग को भुनाने के लिए कभी उन्हीं भ्रष्ट नेताओं का सहारा लेते हुए उन्हें आशिर्वाद देने उनकें दरबार में हाजिरी लगाते थे जो आज उन्हें ’पेट फुलाने वाला बाबा’ और ’कुदनी बाबा’ कहकर अपमानित कर रहे हैं. लेकिन क्या यह ’महाज्ञान’ सिर्फ मुझे ही है या वे लोग भी इसे भलीभांति जानते हैं जो उनके योग के दिवाने हैं? इसका सीधा-सादा उत्तर है कि रामदेव भले ही डिसक्रेडिट हो गये हों लेकिन योग अभी भी अपनी क्रेडिबिलिटि बनाये हुए है. रामदेव ने दूसरी भूल यह की कि योग चिकित्सा के लाभुकों को अपनी राजनीति का भी अनुगामी मान लिया. योग-शिविरों में अपने प्रवचनों में ’बहुराष्ट्रीय कंपनी बनाम स्वदेशी’ तथा काले धन की वापसी के मुद्दे को जिस धारदार तरीके से वे उठा रहे थे, उसके प्रति उनके योग-शिविर के अंदर बैठे और दूर टीवी पर सुनने वाले बहुत से प्रसंशक रामदेव को एक आंदोलनकारी भी समझने लगे थे - तभी रामदेव का गुब्बारा फट गया. रामदेव की नेतृत्व क्षमता की कमी एक्सपोज हो गयी और वे एक भीरू की तरह रात के अंधेरे में सलवार-कुर्ता पहन कर भाग निकले. वे कहते हैं कि पुलिस उन्हें मारना चाहती थी- तो क्यों उन्होंने सच्चे आंदोलनकारी की तरह अपने अनुयायियों को बचाने के लिए गोली खाने की हिम्मत नहीं दिखाई? वास्तव में राज्य इस ’राज्यवादी’ रामदेव की नेतृत्व क्षमता की सीमाओं का आकलन पहले ही कर चुका था, इसलिये उनके विरोधाभाषों को सार्वजनिक करके बड़ी चतुराई से पहले तो उन्हें डिस्क्रेडिट किया, बाद में उनके आंदोलन पर बर्बर हमला बोला. परंतु इस बर्बर हमले का नतीजा क्या रहा? समाज के सभी तबके ने इसे लोकतंत्र पर बर्बर कुठाराघात करार दिया. इससे यह भी साबित हो गया कि तमाम विश्वसनीयता के संकट के बावजूद रामदेव का आंदोलन लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत ही कर रहा था, फिर अन्ना हजारे ने तो रामदेव की गलतियों से भी सबक जरूर ली होगी और अपने आंदोलन के लिये जरूरी होमवर्क भी किया होगा.
दरअसल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मौजूदा दौर की समझ को लेकर बुद्धिजीवियों में दिख रहा संकट उनकी ’राज्य-व्यवस्था’ की समझ से उपजा हुआ संकट है. सभी लोग इस बात पर तो एकमत हैं कि व्यवस्था में कहीं न कहीं गड़बड़ जरूर है - पर कहां है और इसे कैसे ठीक किया जाए इसको लेकर सब अपनी ढपली अपना राग बजा रहे हैं. ’मेरा कुर्ता तुम्हारे कुर्ते से ज्यादा साफ’ की होड़ भी इसी की उपज है. लेकिन यह होड़ अब गला-काटू विरोध तक पहूंच चुका है और मसीजीवी अब एक-दूसरे के खून के प्यासे से दिखते हैं. जी हां, खून बहाने वाली विचारधारा का हिमायती भी खून का प्यासा ही कहा जाएगा. इधर आमलोग भूल-भुलैया में है कि किसे असली समझे? हरा, नीला, लाल, सफेद, गेरूआ- सब तो बस रंग ही है, अपने रंग की सीमाओं में कैद. वादों के गोरख-धंधेबाज दिखते है सब. गांधी, लोहिया, जय प्रकाश, अंबेडकर, मार्क्स, नेहरू, दीनदयाल उपाध्याय तथा माओ का मंत्र जपेंगे ये - ऐसा ही ये करते आए हैं अब तक, पर समस्या सुरसा के मुँह की तरह बढती ही जा रही है. तो क्या ’हनुमान’ का रूपक उत्तर बनकर आ सकता है जो ’सुरसा’ की तरह ही अपना आकार-प्रकार बढ़ाता है और मौका मिलते ही ’लघु’ रूप धारण कर अपने उद्देश्य प्राप्ति की दिशा में बढ़ जाता है. क्या अन्ना के आंदोलन में शामिल लोगों में ऐसे लोग भी नहीं थे जो रोजमर्रा के जीवन में छोटे-मोटे भ्रष्टाचार का साथ देते हैं, परंतु मौका मिलते ही उनसे भिड़ने वालों के साथ हो लेते हैं? ऐसा इसलिये है क्यों कि भ्रष्टाचार की चक्की में सभी पिस रहे होते है.
मेरे कॉलेज के एक मित्र ने बड़ा मासूम सा सवाल किया था कि क्या हम सब कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देते हैं? क्या हममें से कोई सौ-फीसदी ईमानदार है? उनकी बात को यों ही सनकी दिमाग की उपज कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है. परंतु इससे यह कतई साबित नहीं होता है कि वे भ्रष्टाचारियों की पाँत में खड़ा होना चाहते हैं. दर‍असल यह उनकी मानसिक पीड़ा है जो पेशेवर रूप में बेहद ईमानदार होते हुए भी रोजमर्रा की जिन्दगी में उन्हें भ्रष्टाचार से समझौता करने को बाध्य करती है. यही आम लोगों की भी पीड़ा है. इसीलिये अन्ना आम लोगों के बीच भ्रष्टाचार विरोध के प्रतीक बन गये और हम सभी अन्ना के सहयात्री बनते चले गये, उनसे मिलकर या मिले बगैर ही.
हमारे लेखक मित्रों ने एक बुनियादी सवाल खड़ा करना चाहा है कि कौन सा खतरा वास्तविक है - भ्रष्टाचार का खतरा या सांप्रदायिकता का खतरा? क्या यह सवाल ठीक वैसा ही नहीं है जैसा कि यह कहना कि कौन ज्यादा खतरनाक है - नागनाथ या सांपनाथ? मुझे लगता है कि यह सवाल उस साम्यवादी मोहग्रस्त बौद्धिकता की उपज है, जिससे देश पिछले साठ-सत्तर सालों से घिरा हुआ है. क्या साम्यवादी चश्में से देखकर ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है? क्या सांप्रदायिकता भी एक तरह का भ्रष्टाचार नहीं है? क्या भ्रष्टाचारियों का भी नया ’राजनीतिक-नौकरशाह-ठेकेदार’ का नया मजबूत सम्प्रदाय नहीं बनता जा रहा है जिसका मंत्र लूट-खसोट और हथियार हत्या और दमन है? सत्ता के लिये भोली-भाली जनता को सांप्रदायिक खानों में बांटकर उनका दोहन करना और सत्ता के लिये ही भ्रष्टाचार को राजनीति का अनिवार्य सत्य बना देना- क्य ये दोनों मौजूदा बुनियादी सवाल नहीं हैं जिसपर हम सब को मिलकर सोचना चाहिये? 
यह सच है कि राजनीति करने वाले तमाम लोग भ्रष्ट नहीं हैं तथा भ्रष्टाचार विरोध की राजनीति करने वाले लोग थोड़े ही सही, लेकिन आज भी हैं. परंतु राजनीति का दूसरा सच यह भी है कि ऐसे शुद्धतावादी ’राजनीतिक भ्रष्टाचार’ के विरोध में अभी तक कोई बड़ा आंदोलन, देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने में सक्षम नहीं हुए हैं. इसके विपरित तमाम राजनीतिक दलों में, कुछ अपवादों को छोड़कर, ऊपर से नीचे तक सभी कोई आकंठ भ्रष्टाचार की दलदल में धंसे हुए हैं और राजनीति करने की इच्छा रखने वाले उत्साही ईमानदार कर्यकर्ता को भी इस दलदल में घसीट लेते हैं. अत: भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मौजूदा दौर को एक सुअवसर समझकर शुद्धतावादी राजनीति के तमाम लोगों को भ्रष्टाचार के विरोध में कूद जाना चाहिये. मैं सभी दोस्तों से निवेदन करना चाहूंगा कि संघर्ष चाहे ’मां-मानुष-माटी’ के नाम पर हो या ’जल-जंगल-जमीन’ के नाम पर हो; सामाजिक न्याय के नाम पर हो या वर्ग-संघर्ष के नाम पर हो; या फिर भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर ही क्यों न हो, सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के लिये चल रहे किसी भी आंदोलन का हमें भागीदार बनना चाहिये. भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे इस मजबूत आंदोलन के सहभागी बनकर हम सभी इसमें धीरे-धीरे उन तमाम सवालों को जोड़कर इसका फलक बहुआयामी बना सकते हैं और इसे दूसरा स्वाधीनता आंदोलन भी बना सकते हैं. लेकिन इसकी एक ही शर्त है कि हमें अपने-अपने वादों के गोरखधंधे से बाहर निकलना होगा, अन्यथा जिस तरह वादों के गोरखधंधों ने हिन्दी साहित्य के पटल पर कालिख पोत दी है, भारत के इतिहास की एकांगी व्याख्या को ही वैज्ञानिक इतिहास लेखन बना दिया है, ठीक उसी तरह सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन को भी यह वादों के गोरख धंधों की जागीर बना देगा- इसमें कोई संदेह नहीं.

अमरनाथ झा
एसोसिएट प्रोफेसर
स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
फोन - +919871603621
ब्लॉग - http://www.amarpankajjha.blogspot.com

Sunday, February 13, 2011

HAPPY VALENTINE DAY

बड़ी मारा-मारी मची हुई है. कहीं प्यार--सेक्स का इज़हार हो रहा है तो कहीं प्यार पर बंदिश लगायी जा रही है. इस बीच मीडिया और दुनिया के अमीर लोग इस दिन के कांसेप्ट को बेच कर और अमीर बन रहे हैं. तो फिर मैं क्यों इस दिन की बधाई आपको दे रहा हूँ? किस पाले मैं हूँ मैं? जाहिर है लोग ऐसा ही कुछ जानना चाहेंगे. तो मैं बता दूँ की हमारा नारी-खंड प्रदेश जो आज का संताल परगना है, अपने आस-पास के प्रदेशों में जबरन अपनी भूमि को खो देने वाला, जबरन किसी और के साथ बंधने को मजबूर संताल परगना, महाभारत कल से ही  प्रेम की उत्कटता  का प्रतीक रहा है. पुरुष  ही नहीं नारी भी दैहिक आकर्षण को  मुखर स्वर दे  सकती हैं इसका उदहारण रहा है यह  प्रदेश--नारिखंड का प्रदेश. महाभारत के पन्नों  को पलटिये और देखिये की किस तरह कुंती की देहिक प्रेमाकांक्षा  यहाँ प्रज्वलित हो उठी थी. आज  भी यहाँ के वन-प्रांतर में प्रेम या की --देह से आत्मा तक की यात्रा-- के कई सहज दृष्य हमको मिल जाते हैं. चाहे देह से आत्मा तक की यात्रा हो या मन से तन तक की तृप्ति--यहाँ की मिटटी सब कुछ देने में सक्षम है. तो फिर बवाल कहे का.और फिर चाहे -अनचाहे  हम सब दुनिया की कई बातो को प्रत्यक्षा भी तो देख रहे हैं आज. मिश्रा में क्या हुआ--इंटर नेट ने क्या किया, सब जान रहे हैं. हमारा संताल परगना जन मुक्ति मोर्चा दुनया के तमाम लोगों की हर तरह की मुक्ति का संकल्प लेकर आगे बाधा है, हम मुक्ति के आनंद के बिना रुक नहीं सकते. हाँ बाजार जैसी शक्तियों ने जिस तरह से वेलेंटाइन  के करिश्मे  को खड़ा किया है हम जरूर उससे वेचेन हैं. बाज़ार हो तो है जो हम सबको नचा रहा है. पर कैसे निपटाना हसे? हम सबको मिलकर विचार कराना होगा. संताल परगना जन मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्ता इस विषय पर गंभीर बहस में लगे हुए हैं. आखिर तभी तो हम संताल परगना जन मुक्ति मोर्चा के उद्येश्यों में सफलता हासिल कर सकेंगे. जाते-जाते फिर से एक बार कह दें की मन से तन तक की तृप्ति या देह से आत्मा तक की यात्रा का हम हमेशा पक्षधर रहे है, तंत्रवाद के उदय के पहले से ही, तंत्र ने तो हमारे दर्शन को शास्त्रीय आधार मात्र दिया है. शिव और शक्ति के मिलन, अर्धनारीश्वर या उभय लिंगी संकल्पना हमारे इस प्रदेश की राग-राग में है. यह हमारी मुक्ति की खोज की दिशा भी है. क्या कहते हैं आप?

Wednesday, February 9, 2011

ऋणी संताल परगना के लोगों ने अपनी भाव-भीनी श्रद्धांजलि देकर पंकज जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की.

१७-२१ जनवरी तक आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा 'पंकज' के पैतृक ग्राम--खैरबनी, पोस्ट--सारठ, जिला--देवघर, संताल परगना झारखण्ड में पंकज जी की स्मृति में पंच- दिवसीय चंडी-परायण यज्ञ का आयोजन हुआ. इस यज्ञ के मुख्य अतिथि थे झारखण्ड के कृषि-मंत्री श्री सत्यानन्द झा एवं प्रोफेसर सत्यधन मिश्र इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि थे. पंकज जी के तीसरे सुपुत्र एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय में असोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर  अमर नाथ था के सान्निध्य में कार्यक्रम का आयोजन हुआ. कार्यक्रम का सञ्चालन पंकज जी के दूसरे सुपुत्र और राजभाषा विभाग, भारत सरकार में उप-निदेशक डॉक्टर विश्वनाथ झा ने किया और पंकज जी के बड़े सुपुत्र डॉक्टर नन्द किशोर झा, जो यज्ञ समिति के अध्यक्ष भी थे, ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की.
कार्यक्रम का उद्दघाटन करते हुए मंत्री श्री सत्यानन्द झा ने भरी सभा में गौरव के साथ इस बात को रखा की आज वह जो कुछ भी हैं वह पंकज जी की कृपा से ही हैं. पंकज जी ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था. निराशा के दिनों में वह यह सोचकर हिम्मत रखते थे की पंकज जी जैसे महान पुरुष का शिष्य होकर उन्हें कभी हिम्मत नहीं हारना चाहिए और अंततः उन्हें सफलता मिली. उन्होंने घोषणा की कि पंकज जी के साहित्य को झारखण्ड सरकार संरक्षित रखे, इसका वे प्रयास करेंगे. पंकज जी के नाम सारठ में एक महाविद्यालय खोला जाये -- प्रोफेसर सत्यधन मिश्र की इस अपील का उन्होंने पुरजोर समर्थन किया और अपनी पूरी सेवा देने का वादा किया.
प्रोफेसर अमर नाथ झा ने बताया की आगामी ३० जून २०११ को देवघर में पंकज जी की ९२वीं जयंती मनायी जाएगी. २९ जून को प्रोफेसर सत्यधन मिश्र ७५ वर्ष पूरे कर लेंगे अतः उनकी हीरक जयंती भी मनाई जाएगी.
कार्यक्रम का सञ्चालन करते हुए डॉक्टर  विश्वनाथ झा ने कहा क़ि पंकज जी क़ि याद में उनकी जन्मभूमि में होने वाला यह यज्ञ पूरे गांववालों क़ि तरफ से पंकज जी को दी जाने वाली एक विनम्र श्रद्धांजलि है. यज्ञ-समिति के अध्यक्ष और पंकज जी के बड़े सुपुत्र डॉक्टर नन्द किशोर झा ने बताया क़ि इस पूरे यज्ञ में गाँव के लोगों ने तन-मन-धन से बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है.
ज्ञातव्य हो कि यह कार्यक्रम कई कारणों से खैरबनी के लिए ऐतिहासिक कार्यक्रम था. पहली बार इस गाँव में यज्ञ का आयोजन हुआ. पहली बार ही माँ दुर्गा क़ी प्रतिमा की पूजा भी इस गाँव में हुयी. फिर पहली बार ही पंकज जी को श्रद्धांजलि देते हुए ग्रामीणों ने मिलकर कोई कार्यक्रम किया. और पहली बार ही इस गाँव में किसी मंत्री का आगमन हुआ.
लगता है कि अब संताल परगना के मनीषियों कि सुधि लेने कि घडी आ गयी है. पंकज जी से शुरू हुआ यह कार्यक्रम अब अन्य महाप्रभुओं कि स्मृति में भी आयोजित हो, ऐसा प्रयास हम करते रहेंगे. संताल परगना का 'इतिहास लिखा जाना अभी बाकी है' इस पुस्तक के प्रोटो-टाईप का विमोचन करते हुए मंत्री जी ने आशा व्यक्त की कि अब  संताल परगना का इतिहास भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित करेगा. सभा में उपस्थित सभी लोगों एवं मीडिया के साथियों ने इस कार्यक्रम एवं पुस्तक की खूब चर्चा की. इस तरह पंकज जी के ऋणी संताल परगना के लोगों ने अपनी भाव-भीनी श्रधांजलि देकर पंकज जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की.

Saturday, January 29, 2011

Migration of Maithil Brahmins in the region of Santal Pragnas and its surroundings

Anusandhanika / Vol. VIlI / No. II / July 2010 / pp. 184-189 ISSN 0974 - 200X
-184-
Migration of Maithil Brahmanas to
Santal Parganas
Amar Nath Jha
Associate professor in History
S. S. N. College
University of Delhi, Delhi
Abstract
As far as the migration of Maithil Brahmanas in the area of our concern, Santal Parganas, is concerned we do
not have any source to establish as when did they come to this area. During Pala period a large number of
Brahmanas migrated to Bengal where, they received gifts of land and were offered high posts in the
administration of the state. Similarly, the migration of Brahmanas also took place from Mithila in different
directions. As far as the migration of the Maithil Brahman Panditas is concerned, we find that they migrated to
Bengal in good numbers. The story of Adisura, a legendry king of Bengal is being credited for the migration of
Maithil Panditas to Bengal. we can conclude that both D. C. Sircar and R. C. Majumdar are wrong when they
declare Adisura a mythical character, as he was a historical personality and ruler of the region of Santal
Parganas. We would also like to correct the readings of Swati Sen Gupta and assert that Adi Sura was a king
of East Bihar, not of North Bihar, as opined by her. Therefore, by all probable explanations it is safe to
conclude that the migration of the Maithil Brahmanas in the region of Santal Parganas started taking place
since 10th-11th century AD.
Keywords:
Migration, Indo-Europeans, Indo-Aryans, Brahmanas, Dakshin Radha
Introduction
Migration of people from one part to
another of the world has been a fact of history.
Great changes have taken place in history due
to the great migration of several races, groups
and nationalities the would over.
After 2500 B.C. it is found that the
movement and displacement of various tribes,
including the Indo-Europeans. From this point
of time to for nearly 1500 years, West Asia and
Eastern Mediterranean witnessed a constant
traffic of innumerable tribes.
many of these tribes is obscure but their
interaction and conflict with settled agrarian
socities of the region was occasionally
recorded in some form or the other. These
records provide vital clues for understanding
these tribal movements.
grouped these tribals on the basis of their
language. The languages of these tribes fall
into two broad divisions: Indo-Europeans and
Semitic. Among the Indo- Europeans Indo-
Aryans were one of the prominent groups.
They worshipped Indra, Mitra and Varun.
1 The history of2 Scholars have3
(Early Social Formations, pp.128-29.) In the
early parts of the 2nd millennium, whether from
pressure of population, desiccation of pasture
lands, or from both causes these people were
on the move. They migrated in bands
westward, southwards and eastwards,
conquering local populations and intermarrying
with them to form a ruling class.
with them their patrilinear family system, their
worship of sky gods, and their horses and
chariots. In most of the lands in which they
settled their original language gradually
adapted itself to the tongues of the conquered
people. Some invaded Europe, to become the
ancesters of the Greeks, Latins, Celts and
Teutons. Others appeared in Anatolia, and
from the mixture of these with the original
inhabitants there arose the great empire of the
Hittites. Yet others remained in their old home,
the ancesters of the later Baltic and Slavonic
people. And yet others moved southwards to
the Caucasus and the Iranian tableland, when
they made many attacks on the Middle Eastern
civilizations. The Kassites, who conquered
Babylone, were led by men of this stock.
14th century B.C. there appeared in N.E. Syria
a people called Mitanni, whose kings had Indo-
Iranian names, and a few of whose gods are
familiar to every student of Indian religion:
Indra, Uruvna(the Vedic god Varun), Mitra, and
Nasatiya
changed the course of history of a great part of
the world including that of India.
4 They brought5 In the6. Hence the migration of these tribes
-185-
Anusandhanika / Vol. VIIl / No. II / July 2010
Materials and Methods
The migration of Brahmanas has been
studied by several scholars. J. C. Jha’s
Migration and Achievements of Maithila
Panditas is a very important study of this field.
However no book is available to throw any light
on the theme of our study. Therefore, while
taking clue from the great scholars like
Basudeva Upadhyay and J. C. Jha, it has been
tried to re-read the interpretations of various
scholars and reach to conclusions. In this
sense this article claims to be a pioneer
attempt for the study of the migration of Maithil
Brahmanas in the region of Santal Parganas.
However it must be admitted that this study is
based on secondary literature to a great
extent.
It is a R & D fact that the original homeland
of the Indo-Europeans and Indo-Aryans is the
subject of constant debate among scholars.
However, one need not indulge in this kind of
debate here because that does not fall under
the area of this dissertation. But at the same
time it can certainly be said that this also
signifies the importance of the issue of
migration in history.
Results and Discussions
Migration of various groups of people from
one part of the Indian sub- continent to its other
part has also been a historical reality. We find
numerous references of this in the vast corpus
of the religious as well as secular literature.
The migration of people, specially of
Brahmanas, from north to south and from west
to east and its impact have been studied by
scholars in detail in order to understand the
process of Sanskritization and acculturation
through the ages. The Brahmanas have been
on the forefront of this. The study of grants of
the Midland (Madyadesha) reveals that the
Brahmanas’ movement in northern India was a
unique feature of ancient Indian society. “It
may be stated that the migration of the
Brahmanas from the midland cannot be taken
as mere hypothesis but a factum based on true
and correct interpretation of the dynamic
epigraphs of early mediaeval India” observes
Basudeva Upadhyay.
7
During Pala period a large number of
Brahmanas migrated to Bengal where, they
received gifts of land and were offered high
posts in the administration of the state.
Amagachhi grant and Badal pillar inscription
contain the story of a Brahmana named Garga
who became the minister of Dharmapala and
many others received grants from the Pala
king.
Darbhapani was offered the post of a minister
in the reign of Dvapala, the son and
succesesor of Dharmapala.
whether ministry was hereditary during Pala
regime but such appointments were also made
in the Gupta period. On the authority of
Karmadanda Shiva linga inscription it is learnt
that the Kumargupta’s minister Prithavisena
succeeded his father Sikhara Swami, the
minister of Chandragupta II in the same
office.
records that the minister Garga migrated to
Gaud from Panchaladesha situated in
Madhyadesha (E.I.Vol.II p. 180. E.I.Vol.XIV
P.166 and E.I. Vol. XXI P. 97).
(Gujarata) Brahmapas came to Bengal and
acted as priest in the temple of Nara Narayana,
while Dharmapala was ruling (E.I. Vol. 4 No.
34).
Banagaon copper plate record of Vigrahapala
that Kanyakubja Brahmanas came to settle in
Bengal.
inscriptions shows that the Brahrnapas from
the Midland left the area for good and settled in
Bengal.
life of Bengal and the first king of Sena family
viz Samantasena was called Brahma-
Kshatriya because being a Karanata Kshatriya
he cultivated the Brahmanical culture and was
a famous Brahmavadi.
Lakshamapa Sena a large number of grants
were bestowed upon to Brahmanas migrating
from the Madhyadesha (Madhyadesha
Vinirgatdya). Almost all Sena documents
(Bairakaur, Naihati, Govindapur, Tarpandihi,
Anulia Madhainagar and Sundrabana) contain
the similar descriptions.
epigraphs, the Kulapanjika throws some light
on “Kulinism” in Bengal and probably it rests on
the arrival of immigrant Brahmanas from
Kanauj.
8 The, son of the minister namely9 It is difficult to say10 However, it is clear from the Pala11 Even from Lata12 This type of movement is described in13 Hence the examination of Pala14 This migration effected the cultural15 In the reign of16 Besides dynastic17
It is difficult to point out a particular reason
for the migration of Brahmatias, but the entire
data gives two principal causes of this
behaviour. The social reason, occupies the
first place and the migration was initiated in the
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Anusandhanika / Vol. VIIl / No. II / July 2010
search of their occupation. The social position
given to the immigrants by the ruling chiefs was
not less attractive for their stay in the far off
area and the Agrahara was allurement for the
Brahmapas migrated to that particular locality.
Among the other causes the political changes
in the post-Harsha period produced a
psychological impression on the minds of
Brahmanas regarding their insecurity in
Madhyadesha where Islamic flow was high at a
later stage of early mediaeval period of Indian
history.
18
Similarly, the migration of Brahmanas also
took place from Mithila in different directions.
The Migration of Maithil Panditas has been
studied by several scholars. J. C. Jha has
made a detailed study of this subject. “The
migration of many panditas from that area of
North Bihar which had been called Mithila
(Tirhut) is a saga of adventure. They were
respected where ever they went and made
their mark in several fields—administration,
scholarship, priesthood, tantra, etc.” writes J.
C. Jha.
early mediaeval period is the history of
constant warfare and invasions from outside,
which led only to a chaotic situation
face of rapidly changing political scene, the
Palas ruled Mithila for the longest period and
left their impact on the life and culture of the
society to some extent.
Bangaon C.P. and the Naulagarh inscription
tell us that Tirbhukti was one of the important
administrative centres during the Pala rule
The period from the early 8th century to
the beginning of the 11th century AD. in the
history of Mithila can aptly be termed as the
period of instability and turbulence. It proved to
be the hunting or grazing ground for the
political powers growing all around
Panditas in general lived from hand to mouth.
Therefore we have evidences of migration of
Maithila Panditas in different parts of the world,
like, Vietnam, Burma, Combodia, Tibet and
other places.
basically the migration of Buddhist Panditas.
As far as the migration of the Maithil
Brahman Panditas are concerned, we find that
they migrated to Bengal in good numbers. The
story of Adisura, a legendry king of Bengal is
being credited for the migration of Maithil
Panditas to Bengal. But the historicity of
Adisura is not yet proven. Some identify
Adisura with Gurjar-Pratihar Bhoja. There are
others who hold that Vallalsena may be a
descendant of Adisura from the mother’s side
who flourished in 1060 A.D.
suggested that Adisura could well have been a
son or a grandson of Ranasura of Dakshina
Radha reffered to in Tirumalai Rock
inscriptions of Rajendra Cola.”
Sircar has different views about Adisura. He
holds Adisura legend totally unreliable.
According to him Sura royal family in ancient
Bengal is known but no genuine ruler named
Adisura is found in Bengal sources. The only
Adisura known to the East Indian history is a
petty chief who is mentioned by Vacaspatimisra
in his Nyayakanika.
opines “Hence Adisura, his contemporary
must have flourished in the middle of the ninth
century A.D.”
“He may have been a petty chief of North Bihar,
and a vassal of the Palas of Bengal and
Bihar.
19 The history of Mithila or Tirhut in the20. In the21 The Bhagalpur grand,22.23. The24 But these migrations were25 “It is also26 But D. C.27 In this context J. C. Jha28 Swati Sen Gupta also opines”29
D. C. Sircar believes that the Kulajis and
the Kulapanjikas were composed and
compiled not earlier than the 12th century A.D.
because it mentions dates in Saka era which
became popular in Bengal as late as the 12th
century A. D. Hence D. C. Sircar believes that it
was not the Brahmanas from Kanyakubja, but
those who migrated from Mithila who, may
have brought the institution of Kulinism to
Bengal.
story of Adisura and is of the view that Kulinism
was probably imported in Bengal from Mithila.
30 R. C. Majumdar also disproves the31
Hence, it becomes clear that during the Pala
period Maithil Brahmans migrated to Bengal in
large numbers.
As far as the migration of Maithil
Brahmanas in the area of Santal Parganas is
concerned, there is lack to establish as to when
did they come to this area. J. C. Jha nowhere
does mentions any thing about this. May be J.
C. Jha perceives this ‘Region’ too as part of
that of Mithila. This can be inferred by his
several quotes. Mentioning about the Tibetan
students in India he writes at one place “A large
number of Tibetan students flocked at Nalanda
in Magadh and Vikramshila in Mithila'
Similarly this is again evident from his
identification of Siddhas with Maithilas,
“Whatever the birthplace of Bauddhas and the
Siddhas, there is no dispute on the fact that
32.
-187-
Anusandhanika / Vol. VIIl / No. II / July 2010
most of them lived for long in the monastery of
Vikramasila which stood in the eastern part of
Mithila, spoke the language of Mithila and used
the then script of Mithila. And as such it is safe
to call them Maithila.”
context also he displays the same idea “A
majority of the manuscripts found in Tibet are in
early Maithili script differently called by
different scholars as proto-Magadhi or proto-
Bengali. This clearly proves that the vast
majority of these refugee panditas came from
Mithila i.e. Campa and Tirbhukti. This was
perhaps the largest group migration of the
Maithila Panditas.”
Campa and Vikramasila was definitely not
within the boundry of Mithila, which J. C. Jha
would like us to believe. Hence, there is no
wonder why does he not describe the
migration of Maithil Brahmanas in the area of
Santal Parganas.
We do not have much reference about the
mula grama of the Maithils of this area in the
Panji Prabandh also. Ratneshwar Mishra in his
book written in Hindi entitled ‘Bihar Vibhuti Pt.
Binodanand Jha’ tells us that it is not possible
to trace the mula of Maithil Brahmanas living in
the area of Deoghar. Therefore, it becomes
very difficult for us to trace the time period
when the migration of Maithil Brahmanas to
this area might have started.
There can be three explanations in order
to understand the absence of any record of the
Maithil Brahmanas of Santal Parganas in Panji
Prabandh, which ultimately suggests about the
probable period of their migration from Mithila.
As per the Panji-Prabandh the Maithilas who
performed the Agnihotra sacrifices and who
devoted their time from sunrise to sunset to
religious worship, were given the first place
and called Srotriyas. Next to the Srotriyas were
the Yogyas (diserving) who got the second
class and next to the Yogyas came the
Panjibadhas who were placed in the third class
and Jaibaras composed the fourth class.
per the version of Ramanath Jha, the Panji-
Prabandh was finally compiled in Saka 1248
(1327 A.D.), three years after the end of
Harisimha’s reign, though the work of
compilation was started much earlier.
despite all its claim that it contains all
information about all Maithil Brahmanas we
find that many families of the Maithil
Brahmanas migrated to Bengal and other parts
of the country, whose genealogical records
could not find a place in the celebrated Panji for
want of positive information and as such the
Panji-Prabandh, in spite of its enormous size
and inexplicable complicity, can not be claimed
to be a comprehensive document of the Maithil
Brahmanas for all practical purposes.
33 Similarly in another34 As we all know that Both35 As36 But37
Secondly, since the migration of Mathil
Brahmanas to this area along with Bengal
might have started long before the time of King
Hari Singh Deo, therefore, naturally we donot
have any such records for this in the Panji-
Prabandh. Prof. Ratneshwar Mishra also
seems to be in agreement with this proposition.
Thirdly, if it is tried to reinterpret the story
of Adisura, we may reach to some valid
conclusion. As suggested by Swati Sen Gupta
Adisura might be a small king of North Bihar.
38
Again as stated earlier, it is also suggested that
Adisura could well have been a son or a
grandson of Ranasura of Dakshina Radha
reffered to in Tirumalai Rock inscriptions of
Rajendra Cola.
might have been an ancestor of Laksmishura,
the ruler of Aparmandar, mentioned in the
Ramcharita,
said Adisura, a descendent of Ranasura, was
the ancestor of Laksmansura of Apar Mandar.
As shown earlier the area of Apar Mandar/
Sumha/ Uttar Radha/ Dakshin Radha are interchangeable
and overlapping and correspond
to the modern Santal Parganas, therefore,
Maithil Brahmanas must have started to come
to this area during the
the king of the region of the modern Santal
Parganas during 10th-11th centuries. Thus we
can conclude that both D. C. Sircar and R. C.
Majumdar are wrong when they declare
Adisura a mythical character, whereas as he
was a historical personality and ruler of the
region of Santal Parganas. We would also like
to correct the readings of Swati Sen Gupta that
Adi Sura was a king of East Bihar, not of North
Bihar. By all probale explainations it is safe to
conclude that the migration of the Maithil
Brahmanas in the region of Santal Paraganas
started taking place since 10th-11th century
AD.
However S. Narayan is of the opinion that
“on the basis of their Bahi, they can’t be older
than 350 years. A very few have Bahi, of more
39 And since Ranasura himself40 we can safely conclude that thereign of Adisura who was
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Anusandhanika / Vol. VIIl / No. II / July 2010
than 350 years, counting the declaration letter
of their Jajman”.
historians hold three views regarding their
origin at Deoghar. According to the first opinion
Maithils came in the 17th century to seek
assistance from the king of Gidhaur and
secured his favour on condition that they will
act as Pujaris (Shrine priests) of Baidyanath
temple. The second view is that the Maithiis
came here in search of employment. They
found Baidyanath temple and ample land for
agriculture. They started cultivation and
worship of Baidyanath Jee. Even to this day
some of the Maithils of Athganwa are
cultivators and the Maithil Pandas either have
kinsmen or landed propery in these eight
villages. But it is not unlikely that they decided
to become its custodians after seeing good
prospects from the temple. The third view is
that once King Narendra Deo Singh of Mithila
(1743-1760 A.D.) Wanted to feed Brahmins to
be freed from Brahmhatya (sin incurred by
killing of a Brahmin) but could not get them in
adequate numbers in Mithila as many of them
had migrated to Dcoghar”.
certainly not correct for two simple reasons.
Firstly, he does not study the historical pattern
of the migration of Maithil Brahmnas to reach to
any logical conclusion and secondly, he relies
upon the version of a so called local historian
with whom no professional historian is known
to. Hence, the view regarding the historicity of
the pandas of Deoghar expressed by Narayan
need not be taken seriously and the conclusion
that the migration of the Maithil Brahmanas in
the region of Santal Paraganas started taking
place since 10th-11th century A D, stands
correct.
41 He further informs us “local42 But S. Narayan is
Conclusion
The migration of Mathil Brahmanas in this
region started a new era for this land. The
process of acculturation and Sanskritisation
left deep impact on both the Maithila
Brahmanas and the local traditions of this area
which ultimately gave rise to the distinct
character of a religious sect of this area to be
known as ‘The Baidyanath Cult’. The
Baidyanath Cult and the cultural horizon of the
region is deeply influenced by the migration of
Maithil Brahmanas in this area to a great
extent.as a whole. Thus in this sense the study
of this migration becomes very important in
order to study the process of Sanskritisation of
this region.
References
1. Farooqui Amar, Early Social Formations
(Revised Second Edition), Manak
Publication Pvt. Ltd., New Delhi, 2002,
pp. 128-129
2. Ibid
3. Ibid
4. Basham A. L., The Wonder that was India,
Rupa & Co., New Delhi, Reprint, 1986
p. 30
5. Ibid
6. Ibid
7. Upadhyay Basudeva, Migration of
Bramanas from Madhya Desha, JBRS,
Vol. XLV, 1959, pp. 308-311
8. Ibid
9. Ibid
10. Ibid
11. E.I. Vol. II, p. 180, E.I. Vol. XIV, p. 166 and
E.I. Vol. XXI, p. 97, cf. Upadhyay
Basudeva, op. cit.
12. E.I. Vol. IV, No. 34, cf. Upadhyay
Basudeva , op. cit.
13. Ibid
14. Ibid
15. Ibid
16. Ibid
17. Ibid
18. Ibid
19. Jha J. C., Migration and Achievements of
Maithila Panditas, Janki Prakashan, New
Delhi, 1991, Preface.
20. Ibid, p. 8
21. Ibid, p. 9
22. Ibid
23. Ibid
24. Ibid, p. 22
-189-
25. Chanda R., Gauda-Rajmala, p.p. 69-71,
cf. Jha J. C., op. cit.
26. op.cit.
27. cf. Jha J. C., p. 30
28. Ibid
29. cf. Jha J. C., p. 31
30. Ibid.
31. J.B.O.R.F., XVII, 1, 1930-31, p. 9
32. Jha J. C., op. cit. pp. 22-23
33. Ibid. p.25
34. Ibid. p. 27
35. Thakur Upendra, History of Mithila (2nd
ed.), Mithila Institute, Dabhanga, 1988,
p.367
36. Ibid. pp. 373-374
37. Ibid. pp. 376-377
38. Cf. J. C. Jha, op. cit.
39. Ghosh Amartya, PIHC: 53 Session, 1992-
93, pp.79-81. Also see J. N. Sarkar,
History of Bengal, Vol.II, Calcutta, 2003
(reprint), P. 459.
40. Sinha C. P. N., Sectional Presidential
Address (Ancient India), Proceedings,
IHC: 55th Session, 1994, p.19.
41. Narayan S., op. cit. p.26
42. Ibid
Anusandhanika / Vol. VIIl / No. II / July 2010