Sunday, August 28, 2011

पूरा देश अत्मविश्वास से लबरेज है---वो सुबह कभी तो आयेगी.

अब अण्णा का अनशन समाप्त हुआ. अण्णा के शब्दों मे स्थगित हुआ है, समाप्त नहीं. बहुत कुछ देखा-सुना-समझा, पूरे दौर में. रोज रामलीला मैदान गया. डूटा के चुनाव के दिन भी गया अपनी इसी समझ को बढाने हेतु. लिखा भी. लगतार लिखा, कुछ छपा, बहुत नहीं छपा. हां वेब साईट पर जरूर पोस्ट करता रहा. अनुभव की दुनिया जरूर स्मृद्ध हुयी. अगर हमें नया संसार बनाना है तो बहुत कुछ करना होगा. नये भारत के निर्माण के लिये अभी बहुत कुछ योगदान करना होगा. सवाधीनता अन्दोलन के इस चौथे दौर मे हमें कयी असहज सवाल भी पू्छने होंगे, अपने आप से भी और वेसे तमाम लोगों से, जो नया समाज बनाने की प्रक्रिया मे लगे हुए हैं--अरसे से. कयी नवीन मानदंड गढने होंगे, कयी पुरातन मूल्यों को भी अपनाना होगा. ताकत परम्परा से लेनी होगी, समझ नयी बनानी होगी. मौजूदा अन्दोलन की कमजोरियों से भी सबक लेना होगा और इसकी शक्ति से अपना खोया अत्मविश्वास हसिल करना होगा. पूरा देश अत्मविश्वास से लबरेज है---वो सुबह कभी तो आयेगी.

Sunday, August 21, 2011

अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.

प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा की मृत्य भारतीय इतिहास लेखन की ही नहीं बल्कि प्रगतिशील चिन्तन की अपूरणीय क्षति है. लगातार कई पीढ़ियों को इतिहास की उस अवधारण से, जो भारत में डी.डी.कोशाम्बी और इंगलैंड में ए.एल .बाशम विकसित कर  रहे थे, के मूल तत्वों से बनी थी वे पिछले आधे दशक से भी ज्यादा समय से परिचित करा रहे थे. आज ४-४ पीढ़ियों के लोग उनके विद्यार्थी बनाने का गौरव हासिल कर चुके है और उनकी अगाध विद्वता से सनी हुई अद्भुत शिक्षण शैली से से इतिहास की समझ बनाने में सफल हुए हैं.१९८४-१९८६ में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास , प्राचीन इतिहास में एम. ए. करने के दौर में मुझे भी उनका छात्र बनाने का गौरव मिला था. हालाँकि वे सेवा निवृत हो चुके थे परन्तु प्रोफ़ेसर डी.एन. झा के निवेदन पर तथा हमलोगों के अनुनय -विनय पर उन्होंने अपने आवास पर ही एक पेपर हमें पढाया था. हमारा बैच उनसे पढ़ने वाले विद्यार्थियों का आख़िरी बैच था. सचमुच हमने उनके जैसे महान विद्वान और उत्कृष्ट शिक्षक के विद्यार्थी के रूप में जीवन की अमूल्य निधि हासिल की है.
प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा के सच्चे शिष्य के रूप में प्रोफ़ेसर डी.एन.झा ने बिलकुल वही मेनारिज्म और पढ़ने का अंदाज़ पाया है जिनसे उनके छात्र उनमे प्रोफ़ेसर शर्मा का विस्तार देखते हैं.
एक और बात. मेरे कॉलेज, एस. पी. कॉलेज, दुमका के दिवंगत गुरुदेव, प्रोफ़ेसर देवेन्द्र कुवर, जो पटना विश्वविद्यालय में गुरुदेव प्रोफ़ेसर डी.एन.झा के सहपाठी और गुरुदेव प्रोफ़ेसर आर.एस.शर्मा के शिष्य थे भी हमें इनके बारे में बहुत बाते बताया करते थे. मेरे स्वर्गीय पूज्य पिताजी पंकज जी जो अपने समय में उस क्षेत्र के हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ और उद्भट विद्वान समझे जाते थे, ने अपनी औपचारिक अंगरेजी शिक्षा पद्धति देर से शुरू की थी. जब आर.एस.शर्मा टी.एन. बी. कॉलेज में शिक्षक थे तब मेरे पिताजी हिन्दी के सुविख्यात विद्वान् और हमउम्र होने के वावजूद शर्मा जी के आई.ए. के छात्र थे. दुर्भाग्य से मेरे पिताजी १९७७ में ही ५८ वर्ष की अल्पायु में ही दिवंगत हो गए. परन्तु यह बात संयोग नहीं है की मुझे विज्ञानं पी पढ़ाई से हटाकर इतिहास की पढ़ाई करने को विवश करते हुए पिताजी ने जो सोचा था उसी के तहत आज मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ. क्या शर्मा जी जैसे मित्र और शिक्षक से प्रभावित होकर उन्होंने ऐसा किया था? जो भी हो परन्तु यह तो सुखद संयोग और अभिमान की बात है की शर्मा जी मेरे दिवंगत पिताजी और मेरे --दोनों के शिक्षक थे.
इस सुविख्यात इतिहासकार, मौलिक चिन्तक, उद्भट विद्वान् और अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.

Friday, August 5, 2011

हमारा ज्ञान वर्धन करें, बड़ी कृपा होगी


हमारा ज्ञान वर्धन करें, बड़ी कृपा होगी
सन ४२ की क्रन्ति ने पूरे देश को एक से बढ़कर एक क्रान्तिकारी, बलिदानी, और देशभक्त समाजसेवी दिया--जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज को समर्पित कर दिया था.परन्तु अब वह पीढ़ी बची नही रही और बदलते सन्दर्भों में नवीन विचारों से लैस आन्दोलन्कारियों की एक ऐसी जमात उभरी है जो सिर्फ़ अंज्रेगी में ही खुद को स्वभविक रूप से अभिव्यक्त कर पाती है. मुझे लगता है यह उनकी मजबूरी है क्योंकि उन्हें बचपन से ही तालीम इसी भाषा में दी जाती रही है. कुछ बड़ा काम कर गुजरने की तमन्ना वाले ऐसी नवीन पौध के लिये नांक-भों सिकोड़ने की बजय हमें उनके अन्दर की पीड़ा को भी समझना चाहिये और उनके दर्द का भागीदार बनना चाहिये क्योंकि अपने बचपन की तालीम पर उनका कोई अख्तियार थोड़े ही था.
लेकिन इससे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि, बीमारू कहे जाने वाले हिन्दी क्षेत्र की जनता के हितार्थ क्या किया जाए-- भषाई रूप से? साफ़-साफ़ कहूं तो हिन्दी को कैसे सही रूप में काम-काज की भाषा बनाया जा सकता है? हिन्दी पर सरकार द्वारा करोड़ों रुपए बहाए जाते हैं--इसका सर्थक परिणाम कैसे प्राप्त हो? इस यक्ष प्रश्न पर आप सभी मित्रोन की राय जानना चाहता हूं. कृपया अपनी-अपनी राय देकर हमारा ज्ञान वर्धन करें, बड़ी कृपा होगी.

कृपया कुछ लिखकर सुझाव दें--मेरी भावना की भूख कुछ तो जरूर शांत होगी.