Friday, April 7, 2017

हाल की मेरी नज़्में और कविताएं
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अमर पंकज झा (डॉ अमर नाथ झा) दिल्ली विश्वविद्यालय

(नज़्में)
1.
जज्बात बचाए रखना
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शायर है तू अशआर कहने के अन्दाज़ बचाए रखना
नज्म लिखने गजल सुनने के जज्बात बचाए रखना।
वक्त की नजाकत व मजबूरियों की बात सभी करते
सच से रु-ब-रु करा सकें जो वाकयात बचाए रखना।
हिला ना सकी तेज आँधियां अपनी ज़ड़ों से तुमको
तुझे तकने लगीं निगाहें ये लमहात बचाए रखना।
बेवक्त की बारिश में कभी फसल नहीं उगा करती
ये दौर भी बदलेगा भरोसे के हालात बचाए रखना।
पल-पल में गिरगिट सा रंग बदलता है जमाना मगर
सय़ाने संग मासूम भी यहां खयालात बचाए रखना।
बेखुदी में अक्सर आईना देखते-दिखाते हो 'अमर'
दिलों को समझ सको वो एहसासात बचाए रखना।

2.
ग़ज़ल क्या कहे मैने
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ग़ज़ल क्या कहे मैंने तुम तो खबरदार हो गए
जज्बात जो भड़के मेरे सब तेरे तरफदार हो गए।
दुश्मनों की कतार में तुमको नहीं रक्खा हमने
हम सावधान ना हुए और तुम असरदार हो गए।
सितम ढ़ाने के भी गजब तेरे अन्दाज हैं जालिम
जिनसे भी तुम हट के मिले वही सरमायेदार हो गए।
कुछ हम भी तो वाकिफ हैं हुकुमत की फितरत से
वो सब जो कल तक थे मेरे आज तेरे वफादार हो गए।
कुछ तो सिखलाते हो तुम दुनियादारी का सबब
यूँ ही नहीं मिलकर तुमसे लोग तेरे तलबदार हो गए।
कहते हैं के अदब में अदावत नहीं होती है 'अमर'
अदावत की हुनर में तो अब तुम भी समझदार हो गए।
3.
गफलत में है जमाना
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शबनम की ओट में, हैं वो शोले गिरा रहे
गफलत में है जमाना, जो महबूब समझ रहे ।
नफ़ासत से झुकते हैं, वो क़त्ल के लिये
मासूमियत ये आपकी, के सजदा बता रहे।
परोसते फरेब हैं, डूबो-डूबो के चाशनी में
कातिल भी आज, खुद को मसीहा बता रहे ।
वो कुदरत को बचाते, दरख्तों को काटकर
जंगलात उजाड़ते, और झाड़ियां सींचते रहे ।
लो खैरात बांटते हैं, रोज हमीं को लूटकर
पर लुटकर भी बेखुदी में, हम जश्न मनाते रहे ।
रहबरी का गुमां तुझे, है तू मगरूर भी 'अमर'
पड़ गए सब पसोपेश में, तेरा गुरूर देखते रहे।

4.
तेरे आने की ही आहट से
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तेरे आने की ही आहट से, मौसम का बदल जाना
परिन्दों का चहकना, या कलियों का मुस्कुराना।
कल के फ़ासले मिटाकर, अब गुफ़्तगू भी करना
नज्में भी उनका सुनना और ना नज़रें ही चुराना।
बोलती हुई सी आँखों से, हँस-हँस के ये बताना
अल्फाज भर नहीं, ना तुम बीता हुआ फसाना।
मत कर गिला ज़फा का, फिर बदला दौरे-जमाना
आओ कल की बात बिसरें, और गाएँ नया तराना।
पढ़ लेते हैं हाले-दिल जो, चेहरे की सिलवटों से ही
सीने के जख्म सीकर भी, तुम यूँ मुस्कराते रहना।
दिलों की बातें सुन, 'अमर' दिल से ही बातें करना
दिमागदारों की बस्ती में तू, दिल को बचाए रखना।

5.
सच कहने का मलाल कब तक करोगे
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ठहरो नहीं ऐ जिन्दगी तुम कभी, सरकती सही चलकर तो देखो।
बदली इबारत हर्फ़ को पढ़ो, बदलने का हुनर सीखकर तो देखो।
रंग व गुलाल में डूबा जमाना, कुछ देर तुम भी थिरककर तो देखो।
रकीब भी हबीब से मिलेंगे यहाँ, बस जरा तुम मुस्कुराकर तो देखो।
दिखते नशे में ये झूमते से लोग, करीब आप उनके जाकर तो देखो।
धुआँ ही धुआँ चिलमनों के पीछे, बहकते दिलों को छूकर तो देखो।
होली की फिजा है आती ही रहेगी, अपनी उम्मीदें सजाकर तो देखो।
शराबी आँखों में रूहानी सुकू है, खामोश निगाहें उठाकर तो देखो।
सच कहने का मलाल कब तक करोगे, थकन से अगन जलाकर तो देखो।
जमाना जल रहा सियासी-अदावत है, नफ़रतो की लपटें बुझाकर तो देखो।
अगले बरस भी वो तकती रहेंगी, दिलों में मुहब्बत कुछ बचाकर तो देखो।
ता-उम्र संभलने की कोशिश ही क्यों, 'अमर' एक बार फिसलकर तो देखो।
6.
इंतहा जुल्म का कितना बाकी बचा है
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नक़ाबपोशी की जरुरत किसे है यहाँ
खुला खेल है दांव आजमाते हैं लोग
लम्हों में हबीब, लमहों में रकीब
बड़ी फख्र से फितरत दिखाते हैं लोग ।
बर्बादियों का जश्न आज जोरों पे है
अपनी बेहयाई पे खिलखिलाते हैं लोग
जलजला आ रहा है, है चीखो-पुकार
पे जश्ने-मस्ती में डूबे अजाने हैं लोग ।
इंकलाबी नारों की रस्मी रवायत भी
गूंजती फिजा में रोज, सुनाते हैं लोग
मादरे-वतन पे मिटने की कसमें भी
अजान की तरह रोज लगाते हैं लोग ।
बेमानी आज करना बातें सुकूँ का
ग़ज़ल क्यों कहे है हकीकत बयानी
आज तुम पिटे हो कल सब पिटेंगे
के खुद से ही आज बेखबर हैं लोग ।
बदल दूंगा आलम जुल्मते-सितम का
घरों में दुबक कर अब बताते हैं लोग
बदला है निज़ाम अब खाँसना मना है
रूह काँप जाती सब जानते हैं लोग ।
इंतहा जुल्म का कितना बाकी बचा है
आँखों में किसके कितना पानी बचा है
किसकी रगों का खूँ उबलने लगा है
'अमर' वाकया सब जानते हैं लोग ।
7.
रुसवाइयों का जश्न
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दर्द के प्याले मेरे नसीब में भी कुछ कम न थे
दीगर थी बात कि, मैं पीता भी रहा मुस्कुराता भी रहा।
अब कैसे कहें के फख्र था जिसकी यारी पे मुझे
वही तबीयत से रोज-रोज, दिल मेरा रुलाता भी रहा।
हैरान हूँ आप की इस मासूमियत पे ए दोस्त
मेरा साथ नागवार पे, औरों की महफ़िल सजाता रहा।
मेरे शिकवे को इस कदर थाम रक्खा है आपने
ये न देखा के हजारों जख्म, मैं खुदी से सहलाता रहा।
क्यों तन्हा मुझे देख अब नजरें चुराते हुजूर
रुसवाइयों का जश्न यूँ ही, मैं रोज-रोज मनाता रहा।
जरूरत थी बेइन्तिहा जिसकी तुझे ए 'अमर',
वो ही आज तुमसे, फासले का मीनार बनाता रहा।
8.
अब मुझे देखने लगे लोग
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अमर पंकज (डा अमर नाथ झा)
तमन्ना-ए-लबे-जाम दीवानगी मेरी
अब मुझे देखने लगे लोग
उफ! ये शोखी नफासत सलासत तिरा
मुतास्सिर होने लगे लोग।
वाह! क्या खुमारे-जिस्मे-नाजुक
मिट गया शिद्दते-शौक
खिरमने-दिल का शरीके-हाल
मुझे कहने लगे लोग।
अब तो ले आ पैमाने-वफा
ता-ब-लब ऐ नूरे-हयात
अहदे-वफा सहरो-शाम दर पे
सिजदा करने लगे लोग।
आरजू शबे-वस्ल की नवा-ए-ज़िगर खराश
मैकदे में तनहाई व साकी-ए-शबाब
ये क्या रवायत तेरे निजाम की
पेशे-दस्ती-ए-बोसां को दौलत से
अक्सर तौलने लगे लोग.
डर आतिशे-दोजख का क्या
हकीके-इश्क सा जुनूं बढ़ गया 'अमर'
चूमना चाहता गुले-रंगे-रुखसार हया क्या
अब सब जानने लगे लोग.
9.
आपको देखा किया है हमने
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अमर पंकज ( डा अमर नाथ झा )
हसरत भरी निगाहों से आपको देखा किया है हमने
अहले-करम हैं आपके जिनपे, उसने भी हाय यों कभी देखा होता ।
चन्द लमहात की गुफ्तगू से जों मचला है दिल मेरा
अफशोस आपके गेसूओं से खेलता है जो, वो भी कभी मचला होता।
ब-रु-ए कार खड़ा कोई मजनूं वहां नहीं फिर भी साहिब
पैकरे-तस्वीर की मानिन्द दिल में उसने, आपको जों रक्खा होता।
जौके-वस्ल से हरदम आपने दिया किया है जिस्त का मजा लेकिन
महरुम-ए-किस्मत पुरकरी छोड, उसने सादगी जों जाना होता।
ज़ियां-वो-सूद की फिकर में भटकता दूदे-चरागे महफिल की तरह
चरागे-शम्मा में मुज़्मर रूहे-वफा को, कभी तो उसने परखा होता।
नासमझ कहे दुनिया तो क्या चूम लूं राहे-फना भी 'अमर'
सोजे-निहां जल रहा है काश, तुझे भी उसने कभी समझा होता।
10.
गजब की तूने दोस्ती निभाई है
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ऐ दोस्त क्या गजब की तूने दोस्ती निभाई है, के दोस्ती भी आज एक रफ़िक से शरमाई है।
मोहब्बत में अदावत अब कोई सीखे तुमसे, तेरी तासीर ही जुल्मते-जहराव और बेवफाई है।
सब रिन्द हैं यहाँ कौन देखे दर्दे-निहाँ किसी का, इस महफ़िल में तो सिर्फ अफसुर्दगी गहराई है।
दिल की खिलवतों में मस्तूर थी शोखे-तमन्ना, अब ये सोजे-जिगर भी तेरे तोहफे की रूसवाई है।
ड़ूबकर दिल की गहराईयों में देख ऐ तबस्सुम, बावला-इश्क इंतहा तेरे ही रूह की परछाईं है।
दिल्ली की दुनिया में दिल महज एक खिलौना है 'अमर' कहां यहाँ ज़ज्बात अोर कहां यहाँ पुरवाई है।
11.
सब दिन याद रक्खें
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वो आपने दी सीख जो के सब दिन याद रक्खें, फिर जिंदगी ने लीं करवटें सब दिन याद रक्खें।
चाँद छूने की ख़्वाहिश थी बादलों को चीरकर, मिल गया चाँद जा बादलों से सब दिन याद रक्खें।
फिक्र थी कब दुश्मनों की पर आज बेरुख आप हैं, बेरुखी भी तो आपकी सब दिन याद रक्खें।
हक़ किसे फरियाद का चाहत बनाए रक्खें, नज़रों की कशिश आपकी सब दिन याद रक्खें।
वक्त ना ठंढ़े बदन या दिल के शोले-इश्क़ का, शबनम सी हँसी दे दीजिये सब दिन याद रक्खें।
यूँ तो अपनी बेखुदी पर हँसता है रोज 'अमर', अब आप ऐसे हँस दिए के सब दिन याद रक्खें।
12.
अहबाबे-दस्तूर
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अमर पंकज (डा अमर नाथ झा )
इस शहर में अहबाबे-दस्तूर निराली है
रफीक-बावले की कदम-कदम पे रुस्वाई है
राहे-हस्ती का हमराज बनाया था आपने ही
निभाई ना गई तो ये इल्जामे-बेवफाई है।
मस्तूर थी तमन्ना-ए-शोख दिल की खिलवतों में
तोहफा तिरा भी दोस्त क्या सोजे-ज़िगर है
सुन सुकुत की सदाएं देख दर्दे-निहां हमारा
बलानोश बना गया अफससुर्दगी बचाई है।
बेरूह गिला करना तेरे जुल्मते-जहराव की
ये बेरुखी भी आपकी मैने दिल से लगाई है
दिल की दुनिया में मत पूछ 'अमर' कीमत अपनी
आबे-फिरदौस छोड़ा रस्मे-दोस्ती निभाई है।
13.
गम संभाल रक्खें
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अमर पंकज (डा अमर नाथ झा)
महफिल में गुरेजा किया आपने के सब दिन याद रक्खें
नहीं दी मुहब्बत तो क्या निशाते-कोहे-गम संभाल रक्खें
मौजे-खिरामे-यार की कशिश हश्र तलक याद रक्खें
ये कस्दे-गुरेज भी आपकी है के सब दिन याद रक्खें।
तलातुम से घिरा तिशना हूँ इजहारे-हाल छिपाए रक्खें
कशाने इश्क़ हूँ तो फरियाद क्यों पासे-दर्द याद रक्खें
रफू-ए-जख्म ना अब देख चश्मे फुसूंगर याद रक्खें
खू-ए-सवाल नहीं मुझको पे खन्द-ए-दिल याद रक्खें।
ताकते-बेदादे-इंतिज़ार है ऐजाजे-मासीहा याद रक्खें
शबे-हिजराँ की तमन्ना में ऐशे-बेताबी याद रक्खें
आसाँ तो नहीं यूं ख़ुद की बेखुदी पे हँसना 'अमर'
मगर आप मुहाल हँसे सारे-बज़्म के सब दिन याद रक्खें।
14.
दिल पारा-पारा हुआ
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अमर पंकज (डा अमर नाथ झा)
क्या हुआ जो पायी तेरे दर पे रुसवाई हमने
दिल पारा-पारा हुआ पर रस्मे-अहबाब तो निभाई हमने
दस्तूर है ये न देख दिले-बहशी की जानिब
इश्क़ की इंतहां का यही सुरूर इसे दिल से लगाई हमने।
जिगर जला-जला करके मिटाता रहा वजूदे-हस्ती
वैसे भी दो पल के लिए तेरी बाहों की तमन्ना जगाई हमने
गुंचों से मुहब्बत की है तो खारों की परवाह न कर
सीने से लगा अब परहेज नहीं इश्क़ की रीत बताई हमने।
मौसमे-गुल बहुत हैं बागों के इस शहर में रश्के-महताब
सबा-ए-ख़ास आज सुर्ख-रु आरिजों की आरजू सजाई हमने
एतमादे-नजर ही नहीं सीरत भी देख कहते हैं वो 'अमर'
पशेमान हूँ क्या कहूँ अभी तो सूरते-हुश्न से नजर हटाई हमने।
(कविताएं)
1.
सूरज निकलने को है
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पुरानी-पहचानी सड़क पर
चलता चला जा रहा हूँ
जानी-अजानी नज़रें
फिर मुस्कुराने लगी हैं।
अभी-अभी तो गुजरी
आँधी भरी वो रात
सहमे हुए परिन्दे अब
नीड़ से निकल पड़े।
भोर की हुई है आहट
मुर्गे बांग देने लगे हैं
चुप बैठी कोयल भी
सुर-तान सजाने लगी है।
धुंध अब छटने लगी
पौ भी फटने लगी
सूरज निकलने को है
धूप भी खिलने को है।
2.
रोज तुम खिले-खिले से रहो
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अनवरत चलती रही है जिन्दगी
नदी-नाले लांघती
चट्टान-पर्वत काटती
धुप्प-अन्धेरा चीरती
स्याह-सन्नाटा तोड़ती
ता-उम्र अजानी आपदाओं से
भिड़ती रही है जिन्दगी
अनगढ़ रास्ते चलती रही है जिन्दगी !
सुन ना पाया आजतक
तुम्हारे पदचाप की भी आहटें
न ही फुर्सत से देखा कभी
वसन्त की खिलखिलाहटें
कैसे कहूँ फिर आज कि
रात भर महके से रहो
रोज तुम खिले-खिले से रहो
कि खिलती कुमुद है सांझ में !
अब दूर आकर उस मोड से
तुम्हें कैसे कहें इस छोर से
'प्रेम-दिवस' के शोर से हट
ढूंढें आज फिर कोई बहाना
चलें-देखें वही अपना ठिकाना
बैठकर कुछ सुस्ताएँ तो हम
खुद को जरा भरमाएँ तो हम
खंडहरों के इस संसार से !
3.
ऐ जिंदगी, तेरे वास्ते
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कुछ याद नहीं रहता, कुछ याद नहीं रखता
जिंदगी के सिवा।
कुछ नहीं दीखता, कुछ देखता भी नहीं
तुम्हारी आखो के सिवा।
कुछ भुलाता नहीं, कुछ भी ना भूलता
उन हादसों के सिवा ।
जिन्दा हैं हम और जीते भी हैं
प्रेम के वास्ते
प्रेम करते हैं हम, करते ही रहेंगे
ऐ जिंदगी, तेरे वास्ते !
4.
बहुत दिनों के बाद
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बहुत दिनों के बाद दिखी हिम्मत की लाली
बहुत दिनों के बाद जवानी हुई मतवाली।
बहुत दिनों के बाद दिखा नारों का जोश
बहुत दिनों के बाद दिखा गहरा-आक्रोश
बहुत दिनों के बाद जली है फिर मोमबत्ती
बहुत दिनों के बाद दिखी सड़कों पर मस्ती
बहुत दिनों के बाद दिखा बिफरा उन्माद
बहुत दिनों के बाद दिखे सड़कों पे उस्ताद
बहुत दिनों के बाद दिखी सबकी अकुलाहट
बहुत दिनों के बाद सुनी नवयुग की आहट
बहुत दिनों के बाद हुए अब सभी सयाने
बहुत दिनों के बाद बने बेगाने अपने।
(आप सभी प्रबुद्ध एवं सहृदय पाठकों और मित्रों से अनुरोध है कि कृपया इन रचनाओं पर अपनी राय जरूर दें। आपकी राय के आलोक में मेरे रचनाकार का मार्गदर्शन होगा।)
विनीत: अमर पंकज झा (डॉ अमर नाथ झा, दिल्ली विश्वविद्यालय)