Thursday, May 25, 2017

उदास दरख्तों के साये में

उदास दरख्तों के साये में
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अमर पन्कज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
खामोश वादियों की खामोशी का सफर
उदास दरख्तों के साये में सहमी डगर।
परिन्दे भी चुप मेरी तन्हाईयों के गवाह
हुआ करता कभी यहीं हमारा भी घर।
गुजारी है हमने यहाँ महकती हुई शाम
कैसे घुल गया अब इस फिजा में जहर।
जुड़ते रहे रिश्ते जहाँ मासूम दिलों के
अब न महबूब वहाँ न कोई हमसफ़र।
बेनूर दिख रही आज हर कली यहाँ की
उजड़ा चमन लगी इसे किसकी नज़र।
बदली नियत 'अमर' बागबां जो बने गए
ऐ सियासत तुझे इसकी क्या कोई खबर।

गुलों की बहार

गुलों की बहार
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अमर पन्कज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
गुल को देखें कि देखें चमन में इन गुलों की बहार
मुद्दतों किया है हमने भी इन लमहों का इन्तजार।
दिलकश अन्दाज और कहर ढाती सी नीयत उनकी
मासूमियत से वो गिराती रही हैं हर सब्र की दीवार।
महकती हुई साँसें और लरजते हुए से होठ उनके
चाँदनी बदन की खनक करती है सबको बेकरार।
कत्ल करती शोखियों का चल रहा है ये सिलसिला
भड़के हुए जज्बात को तन्हा मुलाकात की दरकार।
मखमली लिबास में उतरी वो जो सुर्ख-सफेदी सी हया
पलकों ने छिपा ली चश्मे-तसव्वुर ना गिला ना तकरार।
वो खुदा का नूर 'अमर' अब, लुटने का किसे होश यहाँ
इश्क-ए-रूहानी कायनात अपलक करता रहा दीदार।

अब सब सायाने हो गये

अब सब सायाने हो गये
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
ऐसा नहीं कि लोग सुनते नहीं
किसी को भी नही सुनते लोग
गौर से देखा-सुना करिए आप भी
कोयल, मोर, कौआ, मुर्गे
मेढक, झींगुर, भौंरे, तितली सबको
मौसम-बेमौसम रोज-रोज
अब सुना करते लोग।
शेरों की नकल करते सियारों की
बनावटी दहाड सुन रोज हँसते हैं लोग
तो क्या हुआ जो अब जंगल नहीं रहे
शहर ही कंक्रीट के जंगल बन गये
जंगली जानवर शहर आ गये फिर भी
शेर और शियार के फर्क को
पहचानते हैं लोग।
ऐसा नहीं कि लोग मुझे नहीं सुनते
मेरा बोलना तो क्या खांसना भी
कान लगाकर सुनते हैं लोग
बातें क्या हमेशा शक्ल देखकर
कयास लगाते हैं लोग
 भंगिमाओं का मतलब
अक्सर गुनते रहते हैं लोग।
सबको बड़े ध्यान से सुनते हैं लोग
केजरीवाल जी को सुनते हैं
मोदी जी को भी सुनते हैं
और आजकल तो
योगी जी को सुनते रहते हैं लोग
सब के सब जो सुनाते रहते हैं
मंदिरों से, मसजिदों से
जागरणों से, ज़लसों से
भौंपू पर चीख कर कान पकाते रहते हैं
उनको भी सुनते रहते हैं लोग।
कल भी सुनते थे लोग
आज भी सुनते हैं लोग
युगों-युगों से इस धरा पर
लोगों का काम ही रहा है सुनना
वेद सुनना, पुराण सुनना
रामायण सुनना, महाभारत सुनना
कथा सुनना, काविताएं सुनना
लफ्फाजी सुनना, भाषणबाजी सुनना
चुटकुलेबाजी सुनना, बहानेबाजी सुनना
सब कुछ बाअदब सुनते रहे हैं लोग।
लेकिन अब सब सयाने हो गये
सुनी-सुनाई बात पर कम
खुद की गुनी हुई बात पर ज्यादा
भरोसा करते हैं लोग
इसीलिए आप कुछ भी कहते रहिये
अब सभी को पहचानने लगे हैं लोग
हाँ सभी को गौर से देखने-सुनने लगे हैं लोग।

भर दूं दुनिया को जज्बात से

भर दूं दुनिया को जज्बात से
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
भर दूं दुनिया को जज्बात से मैं
अगर हौसले पर
यूं चढ़ती रहे परवान।
नित देखता हूँ
दर्दे-दरिया हजारों
जज्ब कर भी
निकल ही आती
तेरे लबों पर
छोटी सी मुस्कान।
बहुत दुश्वारियां हैं
भले ही हजारों
परेशानियां हैं
फिर भी चलता रहा
मुस्कान के बल
ध्येय की ओर
सतत बढ़ता रहा
कोई क्या जाने
राज कि हर बार
इतने पास आकर
रस्ता तेरा
छोड़ने पर मजबूर क्यों
बवंडर और तूफान।

सियासत की दुकान



सियासत की दुकान
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
उनको क्या मालूम
भरी दुपहरी जेठ की रेत पर
नंगे पाँव चलते रहकर
पहाड़ी जोर से
घैला भर-भरकर
पानी लाते रहने का जज्बा
फिर अपने-पराए के भेद बिना
शीतल जल सबको पिलाना
प्यास सबकी बुझाना
हर्षित-सस्मित अविराम
नहीं होता बहुत आसान।
बस देखता जा दौर
आज के रहनुमाओं का
और उनके
अनोखे खेल का भी
हैं जिनके
खून के छीटों से सने दामन
मसीहाई का ऊन्हें अरमान।
बहुत हो गया मजबूत भी मुल्क
हम आंखें तरेरें दुश्मनों पर
तो क्या हुआ जो सरहदों पर
शीष कटते रोज
रोज जंगलों में मारे जाते
अनगिनत वीर-विवश जवान।
बडे तफ्सील से देखा है हमने
राजधानी दिल्ली को
यहाँ की
चौड़ी सड़कें और तंग गलियां
खंडहर हो चुकी
सदियों पुरानी इमारतें
बंगलों तथा झुग्गियों को
सभी अजनबी हमसाए की तरह
खड़े साथ-साथ
आमने-सामने मकान।
चारो ओर शोर ही शोर है
विकास की आंधी का शोर
विकास एक मृग-मरीचिका
बसता है दूर कहीं टापुओं पर
चमचमाते रोशनदान उसके
छन-छन कर आती है
चकाचौंध करती आँखों को
चुँधियाती मोहिनी रोशनी
अफीमी गन्ध उसकी
कर रही सबको बदहवास
और उधर कर्ज के बोझ तले दबे
आत्महत्या कर रहे किसान।
अब गांवों से
सौंधी मिट्टी की महक नहीं आती
सब भागते जा रहे
आँखों में इन्द्रधनुषी स्वप्न सँजोए
विकास की मायावी
स्वर्गिक छाया की तलाश में
स्वपानलोक की ओर
मदहोश होकर
बच्चे, बूढ़े और जवान।
ऊजडे गाँवों में दिखती कहाँ अब
गाय-भैंस-बकरी की चौपाल
कहाँ अब थिरकती-फुदकती
खिलखिलाहटों से आँगन बुहारती
खेतों-खलिहानों में रस बरसाती
सरस गीत गाती
ग्रामिणाओं के झुंड
कहाँ तितलियों सी लहराती
वर्जनाओं को ललकारती
अल्हड किशोरियाँ
अल्हडता को रिझाते
कहाँ चरवाहों के उन्मुक्त गान।
हर जगह दम तोड़ती आदमियत
ये नजारे आम हैं अब
जतन से कंधों पर उठाए
खुद अपनी अबरू के जनाजे
बेतहाशा भागे जा रहे लोग
मासूमियत दिखती नहीं
ताजगी मिलती नहीं
हर तरफ फैली हुई
अजीबोगरीब सी थकान।
हम सभी उलझे हुए हैं
कौन किसको क्या कहे
यहाँ तो
सिर्फ वे लोग ही सुलझे हुए हैं
मुनाफे में
चल रही है जिनकी
सियासत की दुकान।