Thursday, May 25, 2017

गुलों की बहार

गुलों की बहार
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अमर पन्कज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
गुल को देखें कि देखें चमन में इन गुलों की बहार
मुद्दतों किया है हमने भी इन लमहों का इन्तजार।
दिलकश अन्दाज और कहर ढाती सी नीयत उनकी
मासूमियत से वो गिराती रही हैं हर सब्र की दीवार।
महकती हुई साँसें और लरजते हुए से होठ उनके
चाँदनी बदन की खनक करती है सबको बेकरार।
कत्ल करती शोखियों का चल रहा है ये सिलसिला
भड़के हुए जज्बात को तन्हा मुलाकात की दरकार।
मखमली लिबास में उतरी वो जो सुर्ख-सफेदी सी हया
पलकों ने छिपा ली चश्मे-तसव्वुर ना गिला ना तकरार।
वो खुदा का नूर 'अमर' अब, लुटने का किसे होश यहाँ
इश्क-ए-रूहानी कायनात अपलक करता रहा दीदार।

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