Thursday, May 25, 2017

सियासत की दुकान



सियासत की दुकान
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
उनको क्या मालूम
भरी दुपहरी जेठ की रेत पर
नंगे पाँव चलते रहकर
पहाड़ी जोर से
घैला भर-भरकर
पानी लाते रहने का जज्बा
फिर अपने-पराए के भेद बिना
शीतल जल सबको पिलाना
प्यास सबकी बुझाना
हर्षित-सस्मित अविराम
नहीं होता बहुत आसान।
बस देखता जा दौर
आज के रहनुमाओं का
और उनके
अनोखे खेल का भी
हैं जिनके
खून के छीटों से सने दामन
मसीहाई का ऊन्हें अरमान।
बहुत हो गया मजबूत भी मुल्क
हम आंखें तरेरें दुश्मनों पर
तो क्या हुआ जो सरहदों पर
शीष कटते रोज
रोज जंगलों में मारे जाते
अनगिनत वीर-विवश जवान।
बडे तफ्सील से देखा है हमने
राजधानी दिल्ली को
यहाँ की
चौड़ी सड़कें और तंग गलियां
खंडहर हो चुकी
सदियों पुरानी इमारतें
बंगलों तथा झुग्गियों को
सभी अजनबी हमसाए की तरह
खड़े साथ-साथ
आमने-सामने मकान।
चारो ओर शोर ही शोर है
विकास की आंधी का शोर
विकास एक मृग-मरीचिका
बसता है दूर कहीं टापुओं पर
चमचमाते रोशनदान उसके
छन-छन कर आती है
चकाचौंध करती आँखों को
चुँधियाती मोहिनी रोशनी
अफीमी गन्ध उसकी
कर रही सबको बदहवास
और उधर कर्ज के बोझ तले दबे
आत्महत्या कर रहे किसान।
अब गांवों से
सौंधी मिट्टी की महक नहीं आती
सब भागते जा रहे
आँखों में इन्द्रधनुषी स्वप्न सँजोए
विकास की मायावी
स्वर्गिक छाया की तलाश में
स्वपानलोक की ओर
मदहोश होकर
बच्चे, बूढ़े और जवान।
ऊजडे गाँवों में दिखती कहाँ अब
गाय-भैंस-बकरी की चौपाल
कहाँ अब थिरकती-फुदकती
खिलखिलाहटों से आँगन बुहारती
खेतों-खलिहानों में रस बरसाती
सरस गीत गाती
ग्रामिणाओं के झुंड
कहाँ तितलियों सी लहराती
वर्जनाओं को ललकारती
अल्हड किशोरियाँ
अल्हडता को रिझाते
कहाँ चरवाहों के उन्मुक्त गान।
हर जगह दम तोड़ती आदमियत
ये नजारे आम हैं अब
जतन से कंधों पर उठाए
खुद अपनी अबरू के जनाजे
बेतहाशा भागे जा रहे लोग
मासूमियत दिखती नहीं
ताजगी मिलती नहीं
हर तरफ फैली हुई
अजीबोगरीब सी थकान।
हम सभी उलझे हुए हैं
कौन किसको क्या कहे
यहाँ तो
सिर्फ वे लोग ही सुलझे हुए हैं
मुनाफे में
चल रही है जिनकी
सियासत की दुकान।

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