Saturday, January 29, 2011

pankaj-Goshthi par aapaka swagat hai.

यह ब्लॉग
यहाँ से लिंक किया हुआ
वेब
यह ब्लॉग
 
 
 
 
यहाँ से लिंक किया हुआ
 
 
 
वेब
 
 
 

रविवार, २९ अगस्त २०१०

वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हावी है.

आज कल देश में कई तरह की प्रवृतियाँ और विकृतियाँ एक साथ सक्रिय हैं. साहित्य, खेलकूद, संसद, सरकार, शिक्षा और धर्म--प्रत्येक मोर्चे पर कानफाडू चीख-पुकार मची हुयी है. सभी कोई देश सवारने में लगे होने का दावा कर रहे हैं, पर समाज बिखरता जा रहा है. क्यों?




धर्म,जाति, के ठेकेदार जोर-जोर से अपनी बात कहकर खुद के जीतने का अहसास करा  रहे हैं, राजनीति के चतुर खिलाडी हमारी संवेदनाओं को कुचलते हुए देश को विकास के पथ पर ले जाने का आलाप कर रहे हैं, शिक्षक पूरे देश को क्रांति का पाठ पढ़ाने में लगे हुए हैं जबकि कॉलेज वीरान हो रहे हैं.



साहित्यकारों की क्या बात करें? अपने-अपने मठों के महंत दूसरों  की बोटी-बोटी नोच लेने पर तुले हुए हैं. हम जो लिखें साहित्य; तुम लिखो तो कूड़ा--ये हिंदी जगत की शाश्वत घटिया राजनीति है और लेखक होने के कारण हम जन्मना महान हैं.



क्या कहें, क्या न कहें?



वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हावी है.



क्या करें हम?



क्या करो  तुम?



क्या करें हम सब?



कैसे करें हम सब?












वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हाबी है.

आज कल देश में कई तरह की प्रवृतियाँ और विकृतियाँ एक साथ सक्रिय हैं. साहित्य, खेलकूद, संसद, सरकार, शिक्षा और धर्म--प्रत्येक मोर्चे पर कानफाडू चीख-पुकार मची हुयी है. सभी कोई देश सवारने में लगे होने का दावा कर रहे हैं, पर समाज बिखरता जा रहा है. क्यों?

धर्म,जाति, के ठेकेदार जोर-जोर से अपनी बात कहकर जीतने का अहसास कर रहे हैं, राजनीति के चतुर खिलाडी हमारी संवेदनाओं को कुचलते हुए देश को विकास के पाठ पर ले जाने का आलाप कर रहे हैं, शिक्षक पूरे देश को क्रांति का पाठ पढ़ाने में लगे हुए हैं जबकि कॉलेज वीरान हो रहे हैं.

साहित्यकारों की क्या बात करें? अपने अपने मठों के महंत दोसरों की बोटी बोटी नोच लेने पर तुले हुए हैं. हम जो लिखें साहित्य तुम लिखो तो कूड़ा--ये हिंदी जगत की शाश्वत घटिया राजनीति है और लेखक होने के कारण हम जन्मना महान हैं.

क्या कहें, क्या न कहें?

वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हाबी है.

क्या करें हम?

क्या काटो तुम?

क्या करें हम सब?

कैसे करें हम सब?



शनिवार, २८ अगस्त २०१०

वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हाबी है.

आज कल देश में कई तरह की प्रवृतियाँ और विकृतियाँ एक साथ सक्रिय हैं. साहित्य, खेलकूद, संसद, सरकार, शिक्षा और धर्म--प्रत्येक मोर्चे पर कानफाडू चीख-पुकार मची हुयी है. सभी कोई देश सवारने में लगे होने का दावा कर रहे हैं, पर समाज बिखरता जा रहा है. क्यों?
धर्म,जाति, के ठेकेदार जोर-जोर से अपनी बात कहकर जीतने का अहसास कर रहे हैं, राजनीति के चतुर खिलाडी हमारी संवेदनाओं को कुचलते हुए देश को विकास के पाठ पर ले जाने का आलाप कर रहे हैं, शिक्षक पूरे देश को क्रांति का पाठ पढ़ाने में लगे हुए हैं जबकि कॉलेज वीरान हो रहे हैं.
साहित्यकारों की क्या बात करें? अपने अपने मठों के महंत दोसरों की बोटी बोटी नोच लेने पर तुले हुए हैं. हम जो लिखें साहित्य तुम लिखो तो कूड़ा--ये हिंदी जगत की शाश्वत घटिया राजनीति है और लेखक होने के कारण हम जन्मना महान हैं.
क्या कहें, क्या न कहें?
वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हाबी है.
क्या करें हम?
क्या काटो तुम?
क्या करें हम सब?
कैसे करें हम सब?

बुधवार, ३० जून २०१०

आचार्य पंकज के विराट व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि: उद्‍गार - अमरनाथ झा

आचार्य पंकज के विराट व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि: उद्‍गार
आज 30 जून है. आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जन्मदिवस. अगर आज वे होते तो 91 साल के हो चुके होते. परंतु दीर्घायु होना उनके भाग्य में नहीं था. बल्कि समस्त हिंदी संसार का यह दुर्भाग्य था कि पंकज जी जैसे उद्‍भट्ट विद्वान और महत्वपूर्ण कवि मात्र 58 वर्ष की उम्र में अलविदा हो गये. इससे भी अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि अपने अनेकों कार्यों से इतिहास बनाने वाले इस चामत्कारिक व्यक्तित्त्व की साहित्यिक सेवाओं का हिंदी समाज में समुचित मूल्यांकन अभी तक नहीं किया है. पिछले बरस आज ही के दिन उनकी 90 वीं जयन्ति पर समस्त अंग प्रदेश के कृतज्ञ कवियों, लेखको और बुद्धिजीवियों ने उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके ऐतिहासिक अवदानों का पुण्य स्मरण किया था.
पिछले बरस ही उनकी 32 वीं पुण्य तिथि पर यहां दिल्ली में भी जहां एक ओर डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने उनकी पचास बरस पुरानी हिमालय शीर्षक कविता को आज तक हिमालय पर लिखी गयी हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविता घोषित की थी, वहीं मस्तराम कपूर ने उनकी उद्बोधन शीर्षक कविता को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बताते हुए इसके लेखक को स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष से निकला हुआ तथा नवीन भारत के निर्माण के सपनों से सराबोर अति विशिष्ट रचनाकार बताते हुए उनकी आज तक की गुमनामी को हिन्दी जगत के कुछ ’गिरोहबाजों’ का षड्‍यंत्र तक घोषित कर दिया.
लेकिन क्या सचमुच पंकज जी गुमनामी में खो गये है. अगर ऐसा है तो संताल परगना की लोकस्मृति में नायक के तौर पर कैसे समादृत हो गये. संताल परगना की साहित्यिक परिचर्चा हो और वह पंकज जी के आस-पास घुमती हुई आगे न बढती हो तो वह परिचर्चा पूर्ण ही नहीं होती. यही पंकज जी को अमरत्व प्रदान करती है. अत: पंकज जी पर नये सिरे से अध्ययन करने की जरूरत आज हमें महसूस होती है.
उद्‍गार काव्य संग्रह को पढने से बरबस हमें यह कहना पडता है कि यह उनके विराट व्यक्तित्त्व की प्रतिध्वनि भी है. यहां यह भी बहस भी खडा होता है कि साहित्य से समाज है या समाज के लिये साहित्य होता है. व्यक्ति साहित्यिक कर्म से बडा बनता है या साहित्यिक कर्म बड़े व्यक्तित्त्व का एक हिस्सा होता है तथा उसको समझने का साधन भी होता है. इसका उत्तर किसी फार्मूले के रूप में नहीं दिया जा सकता. मुझे लगता है साहित्य और समाज के रिश्ते की तरह ही साहित्य और व्यक्ति का रिश्ता भी बहुआयामी होता है. इसके कई स्तर होते है. कुछ ऐसे व्यक्तित्त्व होते है जो बहुत कुछ लिख जाते है. कुछ ऐसे भी व्यक्तित्त्व होते है जो बहुत कम में भी बहुत कुछ लिख जाते है. गागर में सागर की तरह उद्‍गार अपनी कविताओं में अनंत ब्रह्मांड और मनुष्य के बहुस्तरीय संबंधों और अनुभूतियों का विराट संसार समेटे हुए है. उद्‍गार का विराट संसार मूलत: कवि पंकज के विशद्‍ जीवनानुभव से विकसित संसार ही है.
है एक हाथ में सुधा कलश
दूसरा लिये है हालाहल
मैं समदर्शी देता जग को
कर्मों का अमृत व विषफल
यह पंकज की गर्वोक्ति नहीं थी बल्कि उनकी समतामूलक दृष्टि थी जिसको बिना किसी वाद के घेरे से बंधा घोषित किये हुए भी पंकज अत्यंत सहजता से व्यक्त कर सकते थे. उनको जानने वाले बताते है कि यह समतामूलक दृष्टि उनके समतावादी जीवनशैली की उपज मात्र थी, कहीं से आरोपित या ओढ़ी हुई नहीं. क्या गांधी के रंग में रंग कर सन‌‍ 42 के करो या मरो मंत्र का जाप करते हुए भारत छोड़ो आंदोलन के क्रांतिकारी कवि को किसी वाद से समतामूलक दर्शन विकसित करने की जरूरत थी? कतई नही.... वे तो इन मूल्यों को जीते थे और औरों को भी अपने जीवनानुभव से सतत संघर्षरत रहने को प्रेरित करते थे. उदाहरण के लिये उनकी आश्वासन कविता देखिये......

आश्वासन

 मत कहो कि तुम दुर्बल हो
 मत कहो कि तुम निर्बल हो
  तुम में  अजेय  पौरूष  है
   तुम काल-जयी अभिमानी। 
तुम शक्ति स्त्रोत अक्षय हो
 तुम अप्रमेय तुम चिन्मय ।
  विज्ञान--ज्ञान की निधि तुम
   तुम हो असीम, तुम भास्वर
तुव विभु की ज्योति-किरण हो
 तुम विश्व-फलक--प्रतिबिम्बी
  तुम प्राण फूक सकते हो
   पत्थर की जड़ प्रतिमा में ।
पाकर शुचि स्पर्श तुम्हारा
 मरू में जीवन लहराता ।
  तुम वह अनुपम पारस जो
   लोहे को स्वर्ण बनाता ।
तुम में अमोघ विक्रम है
 तुम में विराट्‍ है पलता ।
  तुम नाप सहज ही सकते
   त्रिभुवन को तीन पगों में ।
दो फेंक आवरण वह जो
 तुम को लघु है बतलाता
  द्विविधा का जाल बिछाकर
   है बीच डगर भरमाता ।
माना कि विश्व जर्जर है
 है मनुज--चेतना सोई
  तुम नव विहान ला सकते
   आह्वान नया दे सकते ।
नव विश्व--सृजन कर सकते
 कर ध्वंस पुरातन को तुम
  तुम नव युग के मानव को
   भगवान नया दे सकते । 

कोई भी हताश मन इस कविता को पढकर सहज ही कर्तव्यबोध, स्वाभिमान और संघर्ष का पर्याय बन जायेगा ऐसा हमारा मानना है. ठीक इसी तरह उनकी एक अन्य कविता को रखना चाहता हूं और आपके ऊपर इस बात को छोड़ता हूं कि आप पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है....
 बढ़े अगम की ओर बीच में
 पंथी फिर अब रुकना कैसा ?
  जूझ चुके हो झंझा से जब
   सहसा तब यह झुकना कैसा

मन की रास शिथिल कर दी है
 तभी चरण डगमगा रहे हैं
  देखो नील गगन में अगणित
   विभा-दीप जगमगा रहे हैं ॥

संशय-कीट बड़े निर्मम ये
 आशा-सुमन कुतरते ही हैं ।
  संकल्पों के गिरि-शुंगों पर
   द्विविधा-मेघ उतरते ही हैं ।

उनकी धूल उड़ाते लेकिन
 तुमको अविरत बढ़ना ही है ।
  मंजिल पाने को राही, शत
   अवरोधों से लड़ना ही है ॥

बड़ा मनोहर स्वप्न-जाल है
   मनका हिरन बिबस बँध जाता ।
  मृग--तृष्णा-विभ्रम   में   बंदी
    फिर तो  तड़प-तड़प अकुलाता

सावधान ! लग जाए तुम पर
 कहीं न इसका जादू टोना ।
  फिरे न पानी अरमानों पर
   लुटे न पावन तप का सोना ॥

चले बहुत चलते ही जाओ
 तुमको बस, चलना हर दम है ।
  पथ को जो पहचान लिया तो 
   मंजिल समझो चारकदम है ॥

आइए आज 30 जून 2010 के इस पावन दिवस पर कृतज्ञ संताल परगना, अंग प्रदेश एवं बृहत्तर हिंदी संसार की ओर से उनको हम सब विनम्र श्राद्धांजलि अर्पित करें.


पंथी:--

शनिवार, ६ मार्च २०१०

संताल परगना के विस्मृत मनीषी आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा "पंकज" के अवदानों का मूल्यांकन ---

अमरनाथ झा
असोसिएट प्रोफ़ेसर, इतिहास विभाग,
स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय , दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली.












सारांश



आचार्य पंकज संताल परगना (झारखण्ड) में हिंदी साहित्य और हिंदी कविता की अलख जगाकर सैकड़ों साहित्यकार पैदा करने वाले उन विरले मनीषी व महान विद्वान-साहित्यकारों की उस परमपरा के अग्रणी रहे हैं जिनकी विरासत को यहां के लोगों ने आज तक संजोये रखा है. यूं तो संताल परगना की धरती पर पंकज जी के पहले और उनके बाद भी कई स्वनामधन्य साहित्यकारों ने अपना यत्किंचित योगदान दिया है, परंतु पंकज जी का योगदान इस मायने में सबसे अलग दिखता है कि उन्होंने साहित्य-सृजन को एक रचनात्मक आंदोलन में परिवर्तित किया. उन्होंने अपने गुरूजनों और पूर्ववर्ती विभूतियों से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों की विरासत को न सिर्फ़ संजोया बल्कि उसे संताल परगना के नगर-नगर, गांव-गांव में फैलाकर एक नया इतिहास रचा. संताल परगना के प्राय: सभी परवर्ती लेखक, कवि एवं साहित्यकार बड़ी सहजता और कृतज्ञता के साथ पंकज जी के इस ऋण को स्वीकारते है. आचार्य पंकज ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में, हिन्दी विद्यापीठ देवघर के शिक्षक और शहीद आश्रम छात्रावास देवघर के अधीक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों के साथ भूमिगत विप्लवी की बड़ी भूमिका निभाई और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर समस्त संताल परगना को शिक्षा और साहित्य की लौ से रौशन किया.







विशिष्ट शब्द--



घाटवाली,खैरबनी ईस्टेट , हिन्दी विद्यापीठ देवघर, वैद्यनाथ नगरी.







भूमिका



हमारा देश कई अर्थों में अद्भुत और अति विशिष्ट है. पूरे देश में बिखरे हुए अनगिनत महलों एवं किलों के भग्नावशेषों की जीर्ण-शीर्ण अवस्था जहां हमारी सामूहिक स्मृति और मानस में ’राजसत्ता’ के क्षणभंगुर होने के संकेतक हैं, तो दूसरी ओर विपन्न किंतु विद्वान मनीषियों से सम्बन्धित दन्त-कथाओं का विपुल भंडार, ऋषि परम्परा के प्रति हमारी अथाह श्रद्धा का जीवंत प्रमाण है. वे चिरंतन प्रेरणा-स्रोत बन गये हैं. संताल परगना के विभिन्न पक्षो के एक सामान्य अध्येता होने के नाते मैं यहां के मनीषियों की कीर्ति कथाओं से अचंभित न होकर, बल्कि उनसे संबंधित दन्तकथाओं और स्मृतियों(मेमोरी) को इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत मानकर संताल परगना की कुछ प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास किया गया है. भारतीय इतिहासकारों ने अभी तक दन्तकथाओं और स्मृतियों(मेमोरी) को यथोचित महत्व न देकर, मेरी दृष्टि में इतिहास के इस अतिशय महत्वपूर्ण स्रोत की अनदेखी की है, जिसके चलते हम आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों के माईक्रो इतिहास का सही-सही पुनर्गठन नहीं कर पा रहे हैं. देश भर में अस्मिता या आईडेंटीटी के सवाल आज जिस तरह से खडे हो रहे हैं उसको सही तरीके से समझने के लिये भी इस तरह के ऐतिहासिक अध्ययनों की जरूरत है.



“संताल परगना सदियों से उपेक्षित रहा। पहले अविभाजित बिहार, बंगाल, बंग्लादेश और उड़ीसा, जो सूबे-बंगाल कहलाता था, की राजधानी बनने का गौरव जिस संताल परगना के राजमहल को था, उसी संताल परगना की धरती को अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल प्रांत के पदतल में पटक दिया गया। जब बिहार प्रांत बना तब भी संताल परगना की नियति जस-की-तस रही। हाल में झारखण्ड बनने के बाद भी संताल परगना की व्यथा-कथा खत्म नहीं हुई। आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परंपराएं आहत हुई, ओजमय व्यक्तित्वों की अवमानना हुई और यहां की समृद्ध साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया।"

संताल परगना के निवासियों के मन में सुलग रहे आक्रोश के पीछे उसकी उपेक्षा ही मूल कारण के रूप में सामने आती है. संताल परगना, शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में तो यह उपेक्षा-भाव असहनीय वेदना का रूप ले चुका है. हिन्दी विद्यापीठ देवघर जो कभी स्वाधीनता सेनानियों और हिन्दी साधकों का अखिल भारतीय स्तर का गढ़ हुआ करता था, के निर्माता महामना पं० शिवराम झा के अवदानों का उल्लेख किस इतिहासकार ने किया? ठीक इसी तरह संताल परगना के हिन्दी साहित्याकाश के जाज्वल्यमान शाश्वत नक्षत्रों — परमेश, कैरव और पंकज की बृहत्त्रयी के अवदानों का सम्यक् अध्ययन कितने तथाकथित विद्वानों ने किया? संताल परगना में साहित्य-सृजन के संस्कार को एक आंदोलन का रूप देकर नगर-नगर गांव-गांव की हर डगर पर ले जाने वाली ऐतिहासिक-साहित्यिक संस्था, पंकज-गोष्ठी के प्रेरणा-पुंज और संस्थापक सभापति आचार्य पंकज ने इतिहास जरूर रचा, परन्तु हिन्दी जगत ही नहीं, इतिहास्कारों ने भी उन्हें भुलाने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लोक-स्मृति का शाश्वत अंग और जनश्रुति का नायक बन चुके पंकज की भी सुधि हिन्दी-जगत तथा इतिहास के मठाधीशों ने कभी नहीं ली.



मज्कूर आलम ने ४ जुलाई २००५ में प्रभात खबर मे आचार्य पंकज के बारे में कुछ इस तरह लिखा--"बालक ज्योतींद्र से आचार्य पंकज तक की यात्रा, आंदोलनकारी पंकज की यात्रा, बताती है समय की गति को. सृष्टि के नियम को. उन्हें अपने अनुकूल करने की क्षमता को. जड़ से चेतन बनने की कथा को. यह भी बताती है कि कैसे दृढ़ इच्छाशक्ति विकलांग को भी शेरपा बना सकती है. कैसे चार आने के लिए नगरपालिका का झाड़ू लगाने को तैयार ज्योतींद्र, आचार्य पंकज बन सकता है! कैसे अपनी बुभुझा को दबाकर व घाटवाली को लात मारकर वतन पर मर मिटने वाला सिपाही बन सकता है! इतना ही नहीं हिंदी साहित्य में उपेक्षित संताल परगना का नाम इतिहास में दर्ज करवा सकता है! यह सवाल किसी के जेहन को मथ सकता है कि क्या थे पंकज? ’महामानव’! नहीं, वे भी हाड़-मांस के पुतले थे. साधारण सी जिंदगी जीने वाले. उनकी सादगी की कहानियां संताल-परगना के गांव-गांव में बिखरी पडी मिल जायेंगी, जिन्हें पिरोकर माला बनायी जा सकती है. वह भी भारतीय इतिहास के लिये अनमोल धरोहर होगी. आजादी की लडाई में अपने अद्भुत योगदान के लिये याद किये जाने वाले पंकज का जन्मदिन भी अविस्मरणीय दिन है, हूल-क्रान्ति दिवस अर्थात ३० जून को. वैसे भी संताल परगना के इतिहास विशेषज्ञों का मानना है कि आजादी की लडाई में इनके अवदानों की उचित समीक्षा नहीं हुई है. अंग्रेजपरस्त लेखकों ने इस क्षेत्र के आंदोलनकारियों का इतिहास लिखते वक्त जो कंजूसी की थी, उसी को बाद के लेखकों ने भी आगे बढा़या, जिसके चलते यहां की कई विभूतियों, अलामत अली, सलामत अली, शेख हारो, चांद, भैरव जैसे कई आजादी के परवाने यहां तक की सिदो-कान्हो की भी भूमिका की चर्चा इतिहास में ईमानदारी से नहीं हुई है. यह कसक न सिर्फ़ यहां के इतिहासकारों को, बल्कि हर आदमी में देखी जा सकती है.जो अंग्रेजपरस्त लेखकों ने लिख दिया उसे ही इतिहास मान लिया गया. यहां के कई अनछुए पहलुओं की ऐतिहासिक सत्यता की जांच ही नहीं की गयी. अगर इन तथ्यों का निष्पक्षता से मूल्यांकन किया जाता, तो राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर कई अद्भुत शख्सियतें यहां से उभर कर सामने आतीं. उनमें से निश्चित रूप से एक नाम और उभरता. वह नाम होता आचार्य ज्योतींद्र झा ’पंकज’ का."



शोध-विधि



तत्कालीन संताल परगना से संबंधित अनछुए पहलुओं को उजागर करने के लिये हमने विगत दो दशकों मे पंकज जी के समकालीन कई महानुभाओं के निजी संस्मरण और तथ्य एकत्रित किये गए.इसके अतिरिक्त पंकज जी से संबंधित दर्जनों किंवदंतियां , जो आज भी संताल परगना के गांवों में बिखरी हुई हैं, का भी सम्यक अध्ययन किया गया.पंकज जी के छात्रों, पंकज गोष्ठी के सदस्यों, पंकज जी के ग्रामीणों और रिस्तेदारों तथा उनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित लेखकों, तथा पंकज-भवन छात्रावास, दुमका, के पुराने छात्रो के संस्मरणों को भी इस लेख का आधार बनाया गया है. इनके अतिरिक्त पंकज जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित लेखों को इस निबन्ध का मुख्य स्रोत बनाया गया है.



मुख्य विषय



संताल परगना मुख्यालय दुमका से करीब 65 किलोमीटर पश्चिम देवघर जिलान्तर्गत सारठ प्रखंड के खैरबनी ग्राम में 30 जून 1919 को ठाकुर वसंत कुमार झा और मालिक देवी की तृतीय संतान के रूप में ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज का जन्म हुआ था. पंकज जी के जन्म के समय उनका ऐतिहासिक घाटवाली घराना — खैरबनी ईस्टेट विपन्न और बदहाल हो चुका था. भयंकर विपन्नता तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच साहुकारों के कर्ज के बोझ तले कराहते इस घाटवाली घरानें में उत्पन्न पंकज ने सिर्फ स्वयं के बल पर न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि अपने घराने को भी विपन्नता से मुक्त किया. परिवार का खोया स्वाभिमान वापस किया. लेकिन वह यहीं आकर रूकने वाले नहीं थे. उन्हें तो सम्पूर्ण जनपद को नयी पहचान देनी थी, संताल परगना को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना था. इसलिये कर्मयोगी पंकज प्रत्येक प्रकार की बाधाओं को लांघते हुए अपना काम करते चले गये.



पंकज जी ने 1938 में ही देवघर के हिंदी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य शुरू कर दिया और अपनी प्रकांड विद्वता के बल पर तत्कालीन हिंदी जगत के धुरंधरों का ध्यान अपनी ओर खींचा. 1942 के भारत-छोड़ो आन्दोलन की कमान एक शिक्षक की हैसियत से सम्हाली. 1954 में वे संताल परगना महाविद्यालय, दुमका, के संस्थापक शिक्षक एवं हिंदी विभाग के अध्यक्ष बन गए. 1955 तक आचार्य पंकज की ख्याति संताल परगना की सीमा से निकलकर उत्तर भारत और पूर्वी भारत के विद्वानों और साहित्याकारों तक फैल चुकी थी. उनके आभा मंडल से वशीभूत संताल परगना के साहित्यकारों ने 1955 में ही ’पंकज-गोष्ठी’ जैसी ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था का गठन किया जो 1975 तक संताल परगना की साहित्यिक चेतना का पर्याय बनी रही. पंकज जी इस संस्था के सभापति थे. 1955 से 1975 तक पंकज गोष्ठी संपूर्ण संताल परगना का अकेला और सबसे बड़ा साहित्यिक आन्दोलन था. सच तो यह है कि उस दौर में वहां पंकज गोष्ठी की मान्यता के बिना कोई साहित्यकार ही नहीं कहलाता था. पंकज गोष्ठी द्वारा प्रकाशित कविता संकलन का नाम था “अर्पणा" तथा एकांकी संकलन का नाम था “साहित्यकार”. 1958 में उनका प्रथम काव्य-संग्रह “स्नेह-दीप” के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ ने लिखी. 1962 में उनका दूसरा कविता संग्रह "उद्गार" के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. जनार्दन मिश्र ’परमेश’ ने लिखी. पंकज जी की रचनाएं बड़ी संख्या में दैनिक विश्वमित्र, श्रृंगार, बिहार बंधु, प्रकाश, साहित्य-संदेश व अवन्तिका में प्रकाशित होती थी. उन्होंने निबन्ध, आलोचना, एकांकी, प्रहसन और कविता पर समान रूप से लेखनी चलायी, परन्तु अमरत्व प्राप्त हुआ उन्हें कवि और विद्वान के रूप में. उनकी प्रकाशित पुस्तकों में स्नेह-दीप, उद्गार, निबन्ध-सार प्रमुख है. समीक्षात्मक लेखों में सूर और तुलसी पर लिखे गए उनके लेखों को काफी महत्व्पूर्ण माना जाता है. परन्तु भक्ति-कालीन साहित्य और रवीन्द्र-साहित्य के वे प्रकांड विद्वान माने जाते थे. रवीन्द्र-साहित्य के अध्येता हंस कुमार तिवारी उन्हें इस क्षेत्र के चलते-फिरते संस्थान की उपाधि देते थे. लक्ष्मी नारायण “सुधांशु”, जनार्दन मिश्र “परमेश”, बुद्धिनाथ झा “कैरव” के समकालीन इस महान विभूति–प्रोफ़ेसर ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज’ की विद्वता, रचनाधर्मिता एवं क्रांतिकारिता से तत्कालीन महत्त्वपूर्ण हिंदी रचनाकार जैसे–रामधारी सिंह” दिनकर”, द्विजेन्द्र नाथ झा “द्विज”, हंस कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन “पन्त’, जानकी वल्लभ शास्त्री,व नलिन विलोचन शर्मा आदि भली-भांति परिचित थे. आत्मप्रचार से कोसो दूर रहने वाले “पंकज”जी को भले आज के हिंदी जगत ने भूला सा दिया है, परन्तु 58 साल कि अल्पायु में ही 17 सितम्बर 1977 को दिवंगत इस आचार्य कवि को मृत्य के 32 वर्षो बाद भी संताल परगना के साहित्यकारों ने ही नहीं बल्कि लाखों लोगो ने अपनी स्मृति में आज भी महान विभूति के रूप में जिन्दा रखा है. संताल परगना का ऐसा कोई गाँव या शहर नहीं है जहाँ “पंकज” जी से सम्बंधित किम्वदंतियां न प्रचलित हो.और यही तथ्य इतिहास्कारों को भी आकर्षित करने के लिये पर्याप्त है.



पंकज के व्यक्तित्व एवं साहित्य की समीक्षा



हिन्दी विद्यापीठ के युवा सेनापतियों में पंकज का नाम विशिष्ट है. कवि, एकांकीकार व गद्य लेखक के रूप में इन्होंने जितनी ख्याति प्राप्त की उतनी ही ख्याति एक आचार्य समीक्षक के रूप में भी प्राप्त की. मध्यकालीन संत साहित्य व बंगला साहित्य, विशेषकर रवींद्र साहित्य के तो ये अध्येता थे. काव्य-शास्त्र व भक्ति साहित्य इनके सर्वाधिक प्रिय विषय थे. पंकज के अवदानों की चर्चा के क्रम में ’पंकज-गोष्ठी’ का उल्लेख किये बिना कोई भी प्रयास अधूरा ही कहा जायेगा. जिस तरह पंकज ने अपने छात्रों को विप्लवी, स्वाधीनता सेनानी, शिक्षक व पत्रकार के रूप में गढ़ा, उसी प्रकार उनके अंदर साहित्य का भी बीजांकुरण किया. साहित्य के विभिन्न वादों से परे रहकर उन्होंने स्वाधीनता के बाद संताल परगना में साहित्य सर्जना का एक आंदोलन खड़ा किया. 1955 से लेकर 1975 तक संताल परगना के साहित्य जगत में ’पंकज-गोष्ठी’ सर्वमान्य व सर्वाधिक स्वीकृत संस्था बनी रही.

ठीक इसी प्रकार से पंकज जी के एक अन्य शिष्य तथा एस.के.युनीवर्सीटी, दुमका, के सेवानिवृत्त शिक्षक प्रोफ़ेसर सत्यधन मिश्र ने भी पंकज जी के बारे मे लिखा---"आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जीवन-काल काफी छोटा रहा, परन्तु विद्वानों व आमजनों को उन्होनें अपने छोटे से जीवन-काल में ही चामत्कारिक रूप से प्रभावित किया. मात्र 19 वर्ष की अवस्था में, 1938 में वे हिन्दी विद्यापीठ जैसे उच्च-कोटि के विद्या मंदिर में शिक्षक भी बन गए. पंकज जी ने हिन्दी विद्यापीठ की मूल आत्मा को भी आत्मसात कर लिया था. वे दिन में अगर एक समर्पित शिक्षक थे तो रात में क्रांतिकारी नौजवानों के सेनापति. साहित्यिक मंच पर वे एक सुधी साहित्यकार थे तो आम लोगों के बीच सुख-दुख के साथी. इसलिए घोर कष्ट झेल कर भी उन्होंने न सिर्फ़ स्वयं को शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित किया, बल्कि सैकड़ों युवकों को निजी तौर पर शिक्षा हेतु प्रोत्साहित भी किया. विपन्नत्ता से जूझते हुए शिक्षा प्राप्त करते रहने की इनकी अदम्य इच्छा-शक्ति से संबंधित किंवदंतियां आज भी इस क्षेत्र के गांव-गांव में बिखरी हुई है. चार आने की नौकरी के लिए एक बार ये म्युनिसपैलिटी में झाड़ू लगाने का काम ढूंढने गए थे. कैसा था इनका जीवटपन! काम को कभी छोटा नहीं समझना और विद्यार्जन करना उनका मुख्य एजेंडा था. अखबार बेचकर, लोगो के बच्चों को पढ़ाकर, उफनती हुई अजय नदी को तैरकर पार करके रोज बामनगामा में नौकरी करके, तथा दिन में एक बार भोजन कर गुजारा करके भी इन्होंने विद्या हासिल की और अपनी विद्वता, स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी भूमिका तथा साहित्यिक प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत किया. हिन्दी विद्यापीठ देवघर, बामनगामा हाई स्कूल सारठ, मधुपुर हाई स्कूल, पुन:हिन्दी विद्यापीठ देवघर और अंतत: संताल परगना महाविद्यालय दुमका के संस्थापक हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में ये आजीवन शिक्षा जगत की सेवा करते रहे.आचार्य पंकज के विभिन्न रूपों से प्रेरणा, विभिन्न वर्गों के लोगों ने ली और वे जनश्रुति के नायक बन गये. जब लोग इन्हें बोलते हुए सुनते थे तो विस्मृत और सम्मोहित होकर सुनते रह जाते थे.17 सितम्बर, 1977 में जब इनका अकस्मात निधन हो गया तो सम्पूर्ण संताल परगना में शोक की लहर दौड़ गयी. संताल परगना के उन चुनिंदा लेखकों में से वह एक हैं जिनके कारण आज संताल परगना का दुमका व देवघर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद व बनारस की तरह विभिन्न प्रयोगों का गढ़ बनता जा रहा हैं. ’मानुष सत्त’ को चरितार्थ करते हुए इस अंचल को जो दिव्य-दृष्टि पंकज ने दी है वह आने वाले कल को भी प्रेरित करती रहेगी."



प्रगति वार्ता नामक लघु-साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक डॉ. रामजन्म मिश्र ने भी हाल के एक साक्षात्कार में पंकज जी के बारे में कहा है--- "पंकज जी असाधारण रूप से आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे इतने सरल और साधारण थे कि असाधारण बन गए थे. अपनी छोटी सी जिंदगी में भी उन्होंने जो काम कर दिए वे भी असाधारण ही सिद्ध हुए.विद्यार्थी जीवन में ही वे गाँधी जी के संपर्क में आये और जीवन भर के लिए गाँधी के मूल्यों को आत्मसात कर लिया."



पंकज जी के अवदानों की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध विद्वान और पत्रकार तथ पंकज जी के एक अन्य अनुयायी स्वर्गीय डोमन साहू "समीर"ने भी लिखा साहित्यिक गतिविधियों में आपकी संलग्नता का एक जीता-जागता उदाहरण दुमका में संस्थापित ’पंकज-गोष्ठी’ रहा है. जिसके तत्वावधान में नियमित रूप से साहित्य-चर्चा हुआ करती थी. यहीं नहीं, वहां के ’महेश नारायण साहित्य शोध-संस्थान’ ने आपको ’आचार्य’ की उपाधि से सम्मानित भी किया था.

आचार्य पंकज की कव्य-यात्रा का मूल्यांकन करते हुए एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. ताराचरण खवाडे ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है---"मैं समदरशी देता जग को, कर्मों का अमर व विषफल के उद्घोषक कवि स्व० ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी संसार से उपेक्षित क्षेत्र संताल परगना के एक ऐसे कवि है, जिनकी कविताओं में आम जन का संघर्ष अधिक मुखरित हुआ है. कविवर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी साहित्य के संताल परगना के सरोवर में खिलते है, जिसमे एक ओर छायावादी प्रवृत्तियों की सुगन्ध है, तो दूसरी ओर प्रगतिवादी संघर्ष का सुवास.---कवि ऐसे प्रगति का द्वार खोलना चाहता है, जहां समरस जीवन हो, जहां शांति हो, भाईचारा हो और हो प्रेममय वातावरण. पंकज के काव्य-संसार का फैलाव बहुत अधिक तो नहीं है, किन्तु उसमें गहराई अधिक है. और, यह गहराई कवि को पंकज के व्यक्तित्व की संघर्षशीलता से मिली है."



पंकज जी की कविताओ की गेयात्मकता को आधार मानते हुए एक अन्य प्रतिष्टित कवि-लेखक व एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. राम वरण चौघरी अपने लेख"गीत एवं नवगीत के स्पर्श-बिन्दु के कवि ’पंकज’" मे कहते हैं कि----"आचार्य पंकज के गीत ही नहीं, इनकी कविताएं — सभी की सभी — छंदों के अनुशासन में बंधी हैं. गीत यदि बिंब है तो संगीत इसका प्रकाश है, रिफ्लेक्शन है, प्रतिबिंब है. गीत का आधार शब्द है और संगीत का आधार नाद है. संगीत गीत की परिणति है. जिस गीत के भीतर संगीत नहीं है वह आकाश का वैसा सूखा बादल है, जिसके भीतर पानी नहीं होता, जो बरसता नहीं है, धरती को सराबोर नहीं करता है. आचार्य पंकज के गीतों में सहज संगीत है, इन गीतों का शिल्प इतना सुघर है कि कोई गायक इन्हें तुरत गा सकता है."



आचार्य पंकज जी की अक्षय कीर्ति--कथा



आचार्य पंकज किस तरह से एक तरफ़ लोगों की स्मृति में बस गये हैं तो दूसरी तरफ़ दन्त-कथाओं में भी समाते चले जा रहे हैं--इसकी भी झलक हमें निम्नलिखित उद्धरणों में मिलती है. “1954 में पंकज जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ. दुमका में संताल परगना महाविद्यालय की स्थापना हुई और पंकज जी वहां के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में संस्थापक शिक्षक बने. नियुक्ति हेतु आम साक्षात्कार की प्रक्रिया से अलग हटकर पंकज जी का साक्षात्कार हुआ. यह भी एक इतिहास है. पंकज जी जैसे धुरंधर स्थापित विद्वान का साक्षात्कार नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच व्याख्यान हुआ और पंकज जी के भाषण से विमुग्ध विद्वत्समुदाय के साथ-साथ आम लोगों ने पंकज जी की महाविद्यालय में नियुक्ति को सहमति दी. टेलीविजन के विभिन्न कार्यक्रमों (रियलिटी शो आदि) में आज हम कलाकारों की तरफ से आम जनता को वोट के लिये अपील करता हुआ पाते है और जनता के वोट से निर्णय होता है. लेकिन आज से 55 साल पहले भी इस तरह का सीधा प्रयोग देश के अति पिछड़े संताल परगना मुख्यालय दुमका में हुआ था और पंकज जी उसके केन्द्र-बिन्दु थे. है कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र? ऐसा लगता है कि नियति ने पंकज जी को इतिहास बनाने के लिये ही भेजा था, इसलिये उनसे संबंधित हर घटना ऐतिहासिक हो गयी है." गोड्डा जिला के इस स्कूल शिक्षक नित्यानन्द ने अपने आलेख में आगे लिखा है- "बात 68-69 के किसी वर्ष की है– ठीक से वर्ष याद नहीं आ रहा. दुमका में कलेक्टरेट क्लब द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में रवीन्द्र साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ० हंस कुमार तिवारी मुख्य अतिथि थे. संगोष्ठी की अध्यक्षता पंकज जी कर रहे थे. कवीन्द्र रवीन्द्र से संबंधित डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को उपस्थित विद्वत्समुदाय ने धैर्यपूर्वक सुना. संभाषण समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर का दौर चला. इसमें भी तिवारी जी ने प्रेमपूर्वक श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की. इसके बाद अध्यक्षीय भाषण शुरू हुआ, जिसमें पंकज जी ने बड़ी विनम्रता, परंतु दृढ़तापूर्वक रवीन्द्र साहित्य से धाराप्रवाह उद्धरण-दर-उद्धरण देकर अपनी सम्मोहक और ओजमयी भाषा में डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को नकारते हुए अपनी नवीन प्रस्थापना प्रस्तुत की. पंकज जी के इस सम्मोहक, परंतु गंभीर अध्ययन को प्रदर्शित करने वाले भाषण से उपस्थित विद्वत्समाज तो मंत्रमुग्ध और विस्मृत था ही, स्वयं डॉ० तिवारी भी अचंभित और भावविभोर थे. पंकज जी के संभाषण की समाप्ति के बाद अभिभूत डॉ० तिवारी ने दुमका की उस संगोष्ठी में सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि रवीन्द्र-साहित्य के उस युग का सबसे गूढ़ और महान अध्येता पंकज जी ही हैं.



नित्यानन्द की ही तरह से पंकज जी के एक अन्य शिष्य एवं निकटवर्ती सारठ के निवासी भूजेन्द्र आरत, जो ख्यातिलब्ध व यशस्वी उपन्यासकार भी हैं, ने अपने किशोर मन पर अंकित पंकज जी की छाप का सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है-----"30 जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली के प्रार्थना सभागार से निकलते समय कर दी गई थी. इससे सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौड़ गई. संताल परगना का छोटा-सा गाँव सारठ वैचारिक रुप से प्रखर गाँधीवादी तथा राष्ट्रीय घटनाओं से सीधा ताल्लुक रखने वाला गाँव के रूप में चर्चित था. इस घटना का सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा. सारठ क्षेत्र के ग्रामीण शोकाकुल हो उठे. 31 जनवरी, 1948 को राय बहादुर जगदीश प्रसाद सिंह विद्यालय, बमनगावाँ के प्रांगण से छात्रों, शिक्षकों, इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ-साथ हजारों ग्रामीणों ने गमगीन माहौल में बापू की शवयात्रा निकाली थी, जो अजय नदी के तट तक पहुंचीं. अजय नदी के पूर्वी तट पर बसे सारठ गाँव के अनगिनत लोग श्मसान में एकत्रित होकर बापू की प्रतीकात्मक अंत्येष्टि कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे. मैं उस समय करीब 8-9 वर्ष का बालक था, हजारों की भीड़ देखकर, कौतुहलवश वहाँ पहुंच गया. उसी समय भीड़ में से एक गंभीर आवाज गूंजी कि पूज्य बापू के सम्मान में ’पंकज’ जी अपनी कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे. इसके बाद भीड़ से निकलकर धोती और खालता (कुर्ता) धारी एक तेजस्वी व्यक्ति ने अपनी भावपूर्ण कविता के माध्यम से पूज्य बापू को जब श्रद्धांजलि अर्पित की तो हजारों की भीड़ में उपस्थित लोगों की आंखें गीली हो गई. हजारों लोग सुबकने लगे। मुझे इतने सारे लोगों को रोते-कलपते देखकर समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो गया है जो एक साथ इतने सारे लोग रो रहे हैं! कैसा अद्भुत था पंकज जी द्वारा अर्पित उस काव्य श्रद्धांजलि का प्रभाव ! उसी समय पहली बार मेरे बाल-मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर पंकज जी का नाम अंकित हो गया.” कई अन्तरंग पक्षों का रेखाचित्र खींचते हुए जन-सामान्य पर पंकज जी के व्यक्तित्व और विद्वता को दर्शाते हुए लिखते हैं----" दुमका में उन दिनों प्रतिवर्ष रामनवमी के अवसर पर ’रामायण यज्ञ’ हुआ करता था. यह यज्ञ सप्ताह भर चला करता था. इसमें भारत के कोने-कोने से रामायण के प्रकांड पंडित एवं विद्वान अध्येताओं को यज्ञ समिति द्वारा आमंत्रित किया जाता था. यज्ञ स्थल जिला स्कूल के सामने यज्ञ मैदान हुआ करता था. यज्ञ स्थल पर सायंकाल में प्रवचन का कार्यक्रम होता था. विन्दु जी महाराज, करपात्री जी महाराज, शंकराचार्य जी एवं अन्य ख्यातिलब्ध विद्वान यहां प्रवचन किया करते थे. एक दिन में यहां केवल एक रामायण के अध्येता का प्रवचन संभव हो पाता था. इस कार्यक्रम में जहां देश के कोने-कोने से प्रकांड रामायणी अध्येताओं का प्रवचन होता था वहीं सप्ताह की एक संध्या पंकज जी के प्रवचन के लिये सुरक्षित रहती थी. ऐसे थे हमारे पंकज जी और उनका प्रवचन! हम छात्रों और दुमका वासियों के लिये तो सचमुच यह गौरव की है.



पंकज जी से संबंधित दन्त कथाएं और किंवदंतियां



नित्यानंद बताते हैं-“शारीरिक श्रम की गरिमा को उच्च धरातल पर स्थापित करने का एक अन्य सुन्दर उदाहारण पंकज जी ने पेश किया है. 1968 में उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) हो गया. उन दिनों मधुमेह बहुत बड़ी बीमारी थी. गिने-चुने लोग ही इस बीमारी से लड़कर जीवन-रक्षा करने में सफल हो पाते थे. चिकित्सक ने पंकज जी को एक रामवाण दिया — अधिक से अधिक पसीना बहाओ. फिर क्या था! पंकज जी ने वह कर दिखाया, जिसका दूसरा उदाहरण साहित्यकारों की पूरी विरादरी में शायद अन्यत्र है ही नहीं. संताल परगना की सख्त, पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन. पंकज जी ने कुदाल उठाई और इस पथरीली जमीन को खोदना शुरु कर दिया. छ: महीने तक पत्थरों को तोड़ते रहें, बंजर मिट्टी काटते रहे और देखते ही देखते पथरीली ऊबड़-खाबड़ परती बंजर जमीन पर दो बीघे का खेत बना डाला. हां, पंकज जी ने– अकेले पंकज जी ने कुदाल-फावड़े को अपने हाथों से चलाकर, पत्थर काटकर दो बीघे का खेत बना डाला. खैरबनी गांव में उनके द्वारा बनाया गया यह खेत आज भी पंकज जी की अदम्य जीजीविषा और अतुलनीय पराक्रम की गाथा सुना रहा है. क्या किसी और साहित्यकार या विद्वान ने इस तरह के पराक्रम का परिचय दिया है? पिछले दिनों अदम्य पराक्रम का अद्भुत उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी ने तब रखा जब उन्होंने अकेले पहाड़ काटकर राजमार्ग बना दिया. आदिवासी दशरथ मांझी तक पंकज जी की कहानी पहुंची थी या नहीं हमें यह नहीं मालूम, परन्तु हम इतना जरूर जानते है कि पंकज जी या दशरथ मांझी जैसे महावीरों ने ही मानव जाति को सतत प्रगति-पथ पर अग्रसर किया है. युगों-युगों तक ऐसे महामानव हम सब की प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे"

नित्यानन्द के अनुसार “कर्तव्य-परायणता और पंकज जी एक दूसरे के पर्याय थे. बारिश के महिने में विनाशलीला का पर्याय बन चुकी अजय नदी को तैरकर अध्यापन हेतु पंकज जी स्कूल आते-जाते थे. वे नदी के किनारे पहुंचकर एक लंगोट धारण किये हुए, बाकि सभी कपड़ों को एक हाथ में उठाकर, पानी से बचाते हुए, दूसरे हाथ से तैरकर नदी को पार करते थे. कुचालें मारती हुई अजय नदी की बाढ़ एक हाथ से तैरकर पार करने वाला यह अद्भुत व्यक्ति अध्यापन हेतु बिला-नागा स्कूल पहुंचता था. क्या कहेंगे इसे आप! शिष्यों के प्रति जिम्मेदारी, कर्तव्य परायणता या जीवन मूल्यों की ईमानदारी. “गोविन्द के पहले गुरु” की वन्दना करने की संस्कृति अगर हमारे देश में थी तो निश्चय ही पंकज जी जैसे गुरुओं के कारण ही. ऐसी बेमिसाल कर्तव्यपरायणता, साहस और खतरों से खेलने वाले व्यक्तित्व ने ही पंकज जी को महान बनाया था, जिनकी गाथाओं के स्मरण मात्र से रोमांच होने लगता है, तन-बदन में सिहरन की झुरझुरी दौड़ने लगती है. “



नित्यानन्द के अनुसार-“पंकज जी एक तरफ तो खुली किताब थे, शिशु की तरह निर्मल उनका हृदय था, जिसे कोई भी पढ़, देख और महसूस कर सकता था. दूसरी तरफ उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था और उनका कर्म-शंकुल जीवन इतना परिघटनापूर्ण था कि वे अनबूझ पहेली और रहस्य भी थे. निरंतर आपदाओं को चुनौती देकर संघर्षरत रहनेवाले पंकज जी के जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं जिसे आज का तर्किक मन स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन उनसे भी पंकज जी के अनूठे व्यक्तित्व की झलक मिलती है.1946-47 की घटना है, पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ समेत कई विद्यालयों में पढाते हुए 1945 में मैट्रिक पास करते हैं. तदुपरांत इंटरमीडिएट की पढा़ई के लिये टी० एन० जे० कॉलेज, भागलपुर में दाखिला लेते हैं. रहने की समस्या आती है। छात्रावास का खर्च उठाना संभव नहीं है. पंकज जी उहापोह की स्थिति से उबरते हुए विश्वविद्यालय के पीछे टी एन बी कालेज और परवत्ती के बीच स्थित पुराने ईसाई कब्रिस्तान की एक झोपड़ी में पहुंचते हैं. वहां एक बूढ़ा चौकीदार मिलता है. पंकज जी और चौकीदार में बातें होती है और पंकज जी को उस कब्रिस्तान में आश्रय मिल जाता है---रात-दिन उसी झोपड़ी में कटती है, लेकिन चौकीदार कहीं नहीं दिखता है तो कहां गया वह चौकीदार? क्या वह सचमुच चौकीदार था या कोई भूत जिसने आचार्या पंकज को उस परदेश में आश्रय दिया था? लोगों का मानना है कि वह भूत था. सच चाहे कुछ भी हो लेकिन कब्रिस्तान में अकेले रहकर पढाई करने का कोई उदाहरण और भी है क्या?"

निष्कर्ष



आचार्य पंकज के व्यक्तित्व के साथ इतनी परिघटनाएं गुम्फित हैं कि पंकज जी का व्यक्तित्व रहस्यमय लगने लगता है. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के हर पहलू में चमत्कार ही चमत्कार है.आचार्या पंकज को कवि, एकांकीकार, समीक्षक, नाटककार, रंगकर्मी, संगठनकर्ता, स्वाधीनता सेनानी जैसे अलग-अलग खांचों में डालकर– उनका सम्यक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं. उनके तटस्थ और सम्यक मूल्यांकन हेतु सम्पूर्णता और समग्रता में ही पंकज जी के अवदानों की समीक्षा होनी चाहिये. इसीलिये तो 30 जून 2009 में दुमका में सम्पन्न “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज 90वीं जयन्ती समारोह” में जहां प्रति उप-कुलपति डॉ० प्रमोदिनी हांसदा उन्हें वीर सिद्दो-कान्हों की परंपरा में संताल परगना का महान सपूत घोषित करती हैं, वहीं प्रो० सत्यधन मिश्र जैसे वयोवृद्ध शिक्षाविद् पंकज जी को महामानव मान लेते है. एक ओर जहां आर. के. नीरद जैसे साहित्यकार-पत्रकार पंकज जी को “स्वयं में संस्थागत स्वरूप थे पंकज” कहकर विश्लेषित करते है, वहीं दूसरी ओर राजकुमार हिम्मतसिंहका जैसे विचारक-लेखक उनको महान संत-साहित्यकार की उपाधि से विभूषित करते है, लेकिन फिर भी पंकज जी का वर्णन पूरा नहीं हो पाता. ऐसा क्यों है?



ठीक इसी तरह आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ की 32वीं पुण्य-तिथि की पूर्व-संध्या पर नयी दिल्ली में 16 सितम्बर 2009 को ’पंकज-स्मृति संध्या सह काव्य गोष्ठी’ का भव्य आयोजन किया गया. इस अवसर पर प्रसिद्ध गीतकार कुंवर बेचैन ने गीतकार ’पंकज’ को काव्य-तर्पन करते हुए अपनी श्रद्धांजलि दी. प्रसिद्ध समीक्षक डा० गंगा प्रसाद ’विमल’ ने’पंकज’ जी की ’हिमालय के प्रति’ कविता का पाठ करते हुए उसे अब तक हिमालय पर हिन्दी में लिखी गयी सर्वश्रेष्ठ कविता घोषित किया. संगोष्ठी में डा० विजय शंकर मिश्र ने अपना आलेख पाठ करते हुए ’पंकज’ की कविताओं को बेहद संघर्ष और अटूट आदर्श की कविता घोषित किया.चर्चित समीक्षक डा० सुरेश ढींगरा ने भी पंकज की कविताओं की समीक्षा करते हुए उन्हें संताल परगना या अंग-प्रदेश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का महान कवि घोषित करते हुए उनके रचना-संसार पर नयी समीक्षा दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया.

प्रसिद्ध कथाकार तथा समीक्षक डा० विक्रम सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ के विराट व्यक्तित्व एवं संताल परगना में 1955-1975 तक हिन्दी साहित्य की धूम मचाने वाली उनके नाम पर बनी संस्था ’पंकज-गोष्ठी’ के ऐतिहासिक योगदान के बावजूद अगर पंकज को विस्मृत किया जा रहा है तो यह जरूर किसी साजिश का हिस्सा है, क्योकि उनके प्रचंड व्यक्तित्व की आंच में झुलसने से बचने के लिये उस समय के कुछ विख्यात समीक्षकों ने पंकज और उनके कार्यों को पूरी तरह उपेक्षित किया.



जामिया मिलिया इस्लामिया से आये इतिहासकार डा० रिजवान कैसर तथा दिल्ली विश्वविद्यालय विद्वत् परिषद् सदस्य और इतिहासविद् डा० अशोक सिंह ने आचार्य पंकज को साहित्य ही नहीं, बल्कि इतिहास की भी धरोहर बताया और उन पर शोध करने की आवश्यकता पर बल दिया.



संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे मशहूर समाजवादी चिंतक और लेखक श्री मस्तराम कपूर ने ’पंकज’ की ’उद्बोधन’ कविता को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बताते हुए कहा कि ऐसी बेजोड़ कविताएं सिर्फ स्वाधीनता सेनानी पंकज या उनकी पीढ़ी के कवि ही लिख सकते थे. यही उनके अनूठेपन का सबसे बड़ा प्रमाण है. उनके अनुसार आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ समेत हिन्दी के सैकड़ों साहित्यकारों को इसीलिये गुमनामी में भेजने का षड्यंत्र रचा गया, क्योंकि पचास के दशक के ऐसे रचनाकारों के जीवन-दर्शन और जीवन मूल्य के केंद्र में गांधी थे.



आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज या पंकज जी के बारे मे ऊपर दर्शाए गये विवरणों के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं----1) कठोर साधना, दृढ़ सिद्धांत, सुस्पष्ट जीवन-दर्शन तथा अतुलनीय चरित्र ने आचार्य पंकज को प्रखर व्यक्तित्व का स्वामी बनाया था.2) भयंकर विपन्नता के वावजूद निरन्तर संघर्षशीलता की प्रवृत्ति ने आचार्य पंकज को युवाओं का आदर्श बनाया.3) 1942 के भरत-छोडो आन्दोलन दौरान दिन में सीधे-सादे शिक्षक और रात में अपने छात्रों के साथ विप्लवी की उनकी भूमिका ने उन्हें अपने छात्रों का रोल माडल बना दिया.4) कवि के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी और उनकी लोकप्रियता में काफी अभिवृद्धि हुई.5) पंकज-गोष्ठी से संताल परगना के सुदूर में बस गये.6) अनुशासित तथा लोकप्रिय अध्यापक के रूप मे उनका बहुत सम्मान था. 7) उनकी असाधारण सादगी ने उन्हें महामनव की तरह महिमा मंडित किया.8) एक ही साथ आम और खास---बन जाने वाले पंकज जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक अलौकिक दैवीय चमत्कार का परिणाम मान लिया गया.पंकज जी को जिन्होंने भी देखा, पंकज जी उनकी आंखों में सदा-सर्वदा के लिये बस गये. जिन्होंने भी उन्हें सुना, वे आजीवन पंकज जी के मुरीद बन गये. परन्तु, वास्तव में महामानव दिखने वाले पंकज जी भी हाड़-मांस के पुतले ही थे, इसलिए किसी भी तरह की भावुकता से बचते हुए वैचारिक स्पष्टता के साथ उनका सम्यक मूल्यांकन करने की जरूरत है और उनके योगदानों को किस तरह से संताल परगना के बौद्धिक और शिक्षित समूह रेखांकित करते हैं, इसको समझने की जरूरत है.



चूंकि विद्रोह की लम्बी ऐतिहासिक परम्परा संताल परगना में पहले से मौजूद रही है, वहां की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टता ने भी वहां के लोगों मे अत्म-अभिमान के भाव भरे हैं. दूसरी तरफ, विकास की दौड में लगातार पिछडते चले जाने के कारण राजनीतिक प्रक्रिया से वहां मोह-भंग की स्थिति बन गयी है. परिणामतः अगर एक तरफ नक्सलवाद वहां अपनी जडें जमा रहा है तो दूसरी तरफ महेशनारायण, भवप्रीतानन्द, दर्शणदूबे, जनार्धन मिश्र "परमेश", बुद्धिनाथ झा "कैरव" तथा आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा "पंकज" जैसे साहित्य-सेवियों की उपेक्षा को संताल परगना की उपेक्षा के साथ जोडकर देखा जा रहा है. इसलिये इन सभी महपुरुषों के व्यक्तित्व के आस-पास रहस्य का आवरण चढने लगा है और इतिहास का मिथिकीकरण होने लगा है. अतः संताल परगना के इतिहास को इन मिथकों और दन्त-कथाओं के आवरण से मुक्त करके वहां का वास्तविक इतिहास लिखने का जरूरी काम इतिहासकारो को करना होगा.







संदर्भ



1).The Santal Pargana District Gazetters



2) ’स्नेह-दीप’, दुमका, 1958



3) उद्गार, दुमका, 1962.



4) बाँस-बाँस बाँसुरी ’भाषा-संगम’, दुमका



5) अपूर्व्या, दुमका,1996



6) प्रभात-खबर, देवघर, 4 जुलाई, 2005.



7) प्रभात-खबर, दुमका, 1 जुलाई, 2009.



8) प्रगति वार्ता, साहिबगंज, झारखंड ,अक्तूबर, 2009



9) प्रथम प्रवक्ता, नई दिल्ली, 16 अक्तूबर, 2009.



10) . http:www.pankajgoshthi.org



{Anusandhanika /Vol. viii / No.1 /January 2010 / pp.121-127} से साभार.

रविवार, २४ जनवरी २०१०

संताल परगना के विस्मृत मनीषी आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा "पंकज" के अवदानों का मूल्यांकन ---





सारांश

आचार्य पंकज संताल परगना (झारखण्ड) में हिंदी साहित्य और हिंदी कविता की अलख जगाकर सैकड़ों साहित्यकार पैदा करने वाले उन विरले मनीषी व महान विद्वान-साहित्यकारों की उस परमपरा के अग्रणी रहे हैं जिनकी विरासत को यहां के लोगों ने आज तक संजोये रखा है. यूं तो संताल परगना की धरती पर पंकज जी के पहले और उनके बाद भी कई स्वनामधन्य साहित्यकारों ने अपना यत्किंचित योगदान दिया है, परंतु पंकज जी का योगदान इस मायने में सबसे अलग दिखता है कि उन्होंने साहित्य-सृजन को एक रचनात्मक आंदोलन में परिवर्तित किया. उन्होंने अपने गुरूजनों और पूर्ववर्ती विभूतियों से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों की विरासत को न सिर्फ़ संजोया बल्कि उसे संताल परगना के नगर-नगर, गांव-गांव में फैलाकर एक नया इतिहास रचा. संताल परगना के प्राय: सभी परवर्ती लेखक, कवि एवं साहित्यकार बड़ी सहजता और कृतज्ञता के साथ पंकज जी के इस ऋण को स्वीकारते है. आचार्य पंकज ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में, हिन्दी विद्यापीठ देवघर के शिक्षक और शहीद आश्रम छात्रावास देवघर के अधीक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों के साथ भूमिगत विप्लवी की बड़ी भूमिका निभाई और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर समस्त संताल परगना को शिक्षा और साहित्य की लौ से रौशन किया.



विशिष्ट शब्द--

घाटवाली,खैरबनी ईस्टेट , हिन्दी विद्यापीठ देवघर, वैद्यनाथ नगरी.



भूमिका

हमारा देश कई अर्थों में अद्भुत और अति विशिष्ट है. पूरे देश में बिखरे हुए अनगिनत महलों एवं किलों के भग्नावशेषों की जीर्ण-शीर्ण अवस्था जहां हमारी सामूहिक स्मृति और मानस में ’राजसत्ता’ के क्षणभंगुर होने के संकेतक हैं, तो दूसरी ओर विपन्न किंतु विद्वान मनीषियों से सम्बन्धित दन्त-कथाओं का विपुल भंडार, ऋषि परम्परा के प्रति हमारी अथाह श्रद्धा का जीवंत प्रमाण  है. वे चिरंतन प्रेरणा-स्रोत बन गये हैं. संताल परगना के विभिन्न पक्षो के एक सामान्य अध्येता होने के नाते मैं यहां के मनीषियों की कीर्ति कथाओं से अचंभित न होकर, बल्कि उनसे संबंधित दन्तकथाओं और स्मृतियों(मेमोरी) को इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत मानकर संताल परगना की कुछ प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास किया गया है. भारतीय इतिहासकारों ने अभी तक दन्तकथाओं और स्मृतियों(मेमोरी) को यथोचित महत्व न देकर, मेरी दृष्टि में इतिहास के इस अतिशय महत्वपूर्ण स्रोत की अनदेखी की है, जिसके चलते हम आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों के माईक्रो इतिहास का सही-सही पुनर्गठन नहीं कर पा रहे हैं. देश भर में अस्मिता या आईडेंटीटी के सवाल आज जिस तरह से खडे हो रहे हैं उसको सही तरीके से समझने के लिये भी इस तरह के ऐतिहासिक अध्ययनों की जरूरत है.

“संताल परगना सदियों से उपेक्षित रहा। पहले अविभाजित बिहार, बंगाल, बंग्लादेश और उड़ीसा, जो सूबे-बंगाल कहलाता था, की राजधानी बनने का गौरव जिस संताल परगना के राजमहल को था, उसी संताल परगना की धरती को अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल प्रांत के पदतल में पटक दिया गया। जब बिहार प्रांत बना तब भी संताल परगना की नियति जस-की-तस रही। हाल में झारखण्ड बनने के बाद भी संताल परगना की व्यथा-कथा खत्म नहीं हुई। आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परंपराएं आहत हुई, ओजमय व्यक्तित्वों की अवमानना हुई और यहां की समृद्ध साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया।"
संताल परगना के निवासियों के मन में सुलग रहे आक्रोश के पीछे उसकी उपेक्षा ही मूल कारण के रूप में सामने आती है. संताल परगना, शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में तो यह उपेक्षा-भाव असहनीय वेदना का रूप ले चुका है. हिन्दी विद्यापीठ देवघर जो कभी स्वाधीनता सेनानियों और हिन्दी साधकों का अखिल भारतीय स्तर का गढ़ हुआ करता था, के निर्माता महामना पं० शिवराम झा के अवदानों का उल्लेख किस इतिहासकार ने किया? ठीक इसी तरह संताल परगना के हिन्दी साहित्याकाश के जाज्वल्यमान शाश्वत नक्षत्रों — परमेश, कैरव और पंकज की बृहत्त्रयी के अवदानों का सम्यक् अध्ययन कितने तथाकथित विद्वानों ने किया? संताल परगना में साहित्य-सृजन के संस्कार को एक आंदोलन का रूप देकर नगर-नगर गांव-गांव की हर डगर पर ले जाने वाली ऐतिहासिक-साहित्यिक संस्था, पंकज-गोष्ठी के प्रेरणा-पुंज और संस्थापक सभापति आचार्य पंकज ने इतिहास जरूर रचा, परन्तु हिन्दी जगत ही नहीं, इतिहास्कारों ने भी उन्हें भुलाने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लोक-स्मृति का शाश्वत अंग और जनश्रुति का नायक बन चुके पंकज की भी सुधि हिन्दी-जगत तथा इतिहास के मठाधीशों ने कभी नहीं ली.

मज्कूर आलम ने ४ जुलाई २००५ में प्रभात खबर मे आचार्य पंकज के बारे में कुछ इस तरह लिखा--"बालक ज्योतींद्र से आचार्य पंकज तक की यात्रा, आंदोलनकारी पंकज की यात्रा, बताती है समय की गति को. सृष्टि के नियम को. उन्हें अपने अनुकूल करने की क्षमता को. जड़ से चेतन बनने की कथा को. यह भी बताती है कि कैसे दृढ़ इच्छाशक्ति विकलांग को भी शेरपा बना सकती है. कैसे चार आने के लिए नगरपालिका का झाड़ू लगाने को तैयार ज्योतींद्र, आचार्य पंकज बन सकता है! कैसे अपनी बुभुझा को दबाकर व घाटवाली को लात मारकर वतन पर मर मिटने वाला सिपाही बन सकता है! इतना ही नहीं हिंदी साहित्य में उपेक्षित संताल परगना का नाम इतिहास में दर्ज करवा सकता है! यह सवाल किसी के जेहन को मथ सकता है कि क्या थे पंकज? ’महामानव’! नहीं, वे भी हाड़-मांस के पुतले थे. साधारण सी जिंदगी जीने वाले. उनकी सादगी की कहानियां संताल-परगना के गांव-गांव में बिखरी पडी मिल जायेंगी, जिन्हें पिरोकर माला बनायी जा सकती है. वह भी भारतीय इतिहास के लिये अनमोल धरोहर होगी. आजादी की लडाई में अपने अद्भुत योगदान के लिये याद किये जाने वाले पंकज का जन्मदिन भी अविस्मरणीय दिन है, हूल-क्रान्ति दिवस अर्थात ३० जून को. वैसे भी संताल परगना के इतिहास विशेषज्ञों का मानना है कि आजादी की लडाई में इनके अवदानों की उचित समीक्षा नहीं हुई है. अंग्रेजपरस्त लेखकों ने इस क्षेत्र के आंदोलनकारियों का इतिहास लिखते वक्त जो कंजूसी की थी, उसी को बाद के लेखकों ने भी आगे बढा़या, जिसके चलते यहां की कई विभूतियों, अलामत अली, सलामत अली, शेख हारो, चांद, भैरव जैसे कई आजादी के परवाने यहां तक की सिदो-कान्हो की भी भूमिका की चर्चा इतिहास में ईमानदारी से नहीं हुई है. यह कसक न सिर्फ़ यहां के इतिहासकारों को, बल्कि हर आदमी में देखी जा सकती है.जो अंग्रेजपरस्त लेखकों ने लिख दिया उसे ही इतिहास मान लिया गया. यहां के कई अनछुए पहलुओं की ऐतिहासिक सत्यता की जांच ही नहीं की गयी. अगर इन तथ्यों का निष्पक्षता से मूल्यांकन किया जाता, तो राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर कई अद्भुत शख्सियतें यहां से उभर कर सामने आतीं. उनमें से निश्चित रूप से एक नाम और उभरता. वह नाम होता आचार्य ज्योतींद्र झा ’पंकज’ का."

शोध-विधि

तत्कालीन संताल परगना से संबंधित अनछुए पहलुओं को उजागर करने के लिये हमने विगत दो दशकों मे पंकज जी के समकालीन कई महानुभाओं के निजी संस्मरण  और तथ्य एकत्रित किये गए.इसके अतिरिक्त पंकज जी से संबंधित दर्जनों किंवदंतियां , जो आज भी संताल परगना के गांवों में बिखरी हुई हैं, का भी सम्यक अध्ययन किया गया.पंकज जी के छात्रों, पंकज गोष्ठी के सदस्यों, पंकज जी के ग्रामीणों और रिस्तेदारों तथा उनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित लेखकों, तथा पंकज-भवन छात्रावास, दुमका, के पुराने छात्रो के संस्मरणों को भी इस लेख का आधार बनाया गया है. इनके अतिरिक्त पंकज जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित लेखों को इस निबन्ध का मुख्य स्रोत बनाया गया है.

मुख्य विषय

संताल परगना मुख्यालय दुमका से करीब 65 किलोमीटर पश्चिम देवघर जिलान्तर्गत सारठ प्रखंड के खैरबनी ग्राम में 30 जून 1919 को ठाकुर वसंत कुमार झा और मालिक देवी की तृतीय संतान के रूप में ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज का जन्म हुआ था. पंकज जी के जन्म के समय उनका ऐतिहासिक घाटवाली घराना — खैरबनी ईस्टेट विपन्न और बदहाल हो चुका था. भयंकर विपन्नता तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच साहुकारों के कर्ज के बोझ तले कराहते इस घाटवाली घरानें में उत्पन्न पंकज ने सिर्फ स्वयं के बल पर न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि अपने घराने को भी विपन्नता से मुक्त किया. परिवार का खोया स्वाभिमान वापस किया. लेकिन वह यहीं आकर रूकने वाले नहीं थे. उन्हें तो सम्पूर्ण जनपद को नयी पहचान देनी थी, संताल परगना को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना था. इसलिये कर्मयोगी पंकज प्रत्येक प्रकार की बाधाओं को लांघते हुए अपना काम करते चले गये.

पंकज जी ने 1938 में ही देवघर के हिंदी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य शुरू कर दिया और अपनी प्रकांड विद्वता के बल पर तत्कालीन हिंदी जगत के धुरंधरों का ध्यान अपनी ओर खींचा. 1942 के भारत-छोड़ो आन्दोलन की कमान एक शिक्षक की हैसियत से सम्हाली. 1954 में वे संताल परगना महाविद्यालय, दुमका, के संस्थापक शिक्षक एवं हिंदी विभाग के अध्यक्ष बन गए. 1955 तक आचार्य पंकज की ख्याति संताल परगना की सीमा से निकलकर उत्तर भारत और पूर्वी भारत के विद्वानों और साहित्याकारों तक फैल चुकी थी. उनके आभा मंडल से वशीभूत संताल परगना के साहित्यकारों ने 1955 में ही ’पंकज-गोष्ठी’ जैसी ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था का गठन किया जो 1975 तक संताल परगना की साहित्यिक चेतना का पर्याय बनी रही. पंकज जी इस संस्था के सभापति थे. 1955 से 1975 तक पंकज गोष्ठी संपूर्ण संताल परगना का अकेला और सबसे बड़ा साहित्यिक आन्दोलन था. सच तो यह है कि उस दौर में वहां पंकज गोष्ठी की मान्यता के बिना कोई साहित्यकार ही नहीं कहलाता था. पंकज गोष्ठी द्वारा प्रकाशित कविता संकलन का नाम था “अर्पणा" तथा एकांकी संकलन का नाम था “साहित्यकार”. 1958 में उनका प्रथम काव्य-संग्रह “स्नेह-दीप” के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ ने लिखी. 1962 में उनका दूसरा कविता संग्रह "उद्गार" के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. जनार्दन मिश्र ’परमेश’ ने लिखी. पंकज जी की रचनाएं बड़ी संख्या में दैनिक विश्वमित्र, श्रृंगार, बिहार बंधु, प्रकाश, साहित्य-संदेश व अवन्तिका में प्रकाशित होती थी. उन्होंने निबन्ध, आलोचना, एकांकी, प्रहसन और कविता पर समान रूप से लेखनी चलायी, परन्तु अमरत्व प्राप्त हुआ उन्हें कवि और विद्वान के रूप में. उनकी प्रकाशित पुस्तकों में स्नेह-दीप, उद्गार, निबन्ध-सार प्रमुख है. समीक्षात्मक लेखों में सूर और तुलसी पर लिखे गए उनके लेखों को काफी महत्व्पूर्ण माना जाता है. परन्तु भक्ति-कालीन साहित्य और रवीन्द्र-साहित्य के वे प्रकांड विद्वान माने जाते थे. रवीन्द्र-साहित्य के अध्येता हंस कुमार तिवारी उन्हें इस क्षेत्र के चलते-फिरते संस्थान की उपाधि देते थे. लक्ष्मी नारायण “सुधांशु”, जनार्दन मिश्र “परमेश”, बुद्धिनाथ झा “कैरव” के समकालीन इस महान विभूति–प्रोफ़ेसर ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज’ की विद्वता, रचनाधर्मिता एवं क्रांतिकारिता से तत्कालीन महत्त्वपूर्ण हिंदी रचनाकार जैसे–रामधारी सिंह” दिनकर”, द्विजेन्द्र नाथ झा “द्विज”, हंस कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन “पन्त’, जानकी वल्लभ शास्त्री,व नलिन विलोचन शर्मा आदि भली-भांति परिचित थे. आत्मप्रचार से कोसो दूर रहने वाले “पंकज”जी को भले आज के हिंदी जगत ने भूला सा दिया है, परन्तु 58 साल कि अल्पायु में ही 17 सितम्बर 1977 को दिवंगत इस आचार्य कवि को मृत्य के 32 वर्षो बाद भी संताल परगना के साहित्यकारों ने ही नहीं बल्कि लाखों लोगो ने अपनी स्मृति में आज भी महान विभूति के रूप में जिन्दा रखा है. संताल परगना का ऐसा कोई गाँव या शहर नहीं है जहाँ “पंकज” जी से सम्बंधित किम्वदंतियां न प्रचलित हो.और यही तथ्य इतिहास्कारों को भी आकर्षित करने के लिये पर्याप्त है.

पंकज के व्यक्तित्व एवं साहित्य की समीक्षा

 हिन्दी विद्यापीठ के युवा सेनापतियों में पंकज का नाम विशिष्ट  है. कवि, एकांकीकार व गद्य लेखक के रूप में इन्होंने जितनी ख्याति प्राप्त की उतनी ही ख्याति एक आचार्य समीक्षक के रूप में भी प्राप्त की. मध्यकालीन संत साहित्य व बंगला साहित्य, विशेषकर रवींद्र साहित्य के तो ये  अध्येता थे. काव्य-शास्त्र व भक्ति साहित्य इनके सर्वाधिक प्रिय विषय थे. पंकज के अवदानों की चर्चा के क्रम में ’पंकज-गोष्ठी’ का उल्लेख किये बिना कोई भी प्रयास अधूरा ही कहा जायेगा. जिस तरह पंकज ने अपने छात्रों को विप्लवी, स्वाधीनता सेनानी, शिक्षक व पत्रकार के रूप में गढ़ा, उसी प्रकार उनके अंदर साहित्य का भी बीजांकुरण किया. साहित्य के विभिन्न वादों से परे रहकर उन्होंने स्वाधीनता के बाद संताल परगना में साहित्य सर्जना का एक आंदोलन खड़ा किया.  1955 से लेकर 1975 तक संताल परगना के साहित्य जगत में ’पंकज-गोष्ठी’ सर्वमान्य व सर्वाधिक स्वीकृत संस्था बनी रही.
ठीक इसी प्रकार से पंकज जी के एक अन्य शिष्य तथा एस.के.युनीवर्सीटी, दुमका, के सेवानिवृत्त शिक्षक प्रोफ़ेसर सत्यधन मिश्र ने भी पंकज जी के बारे मे लिखा---"आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जीवन-काल काफी छोटा रहा, परन्तु विद्वानों व आमजनों को उन्होनें अपने छोटे से जीवन-काल में ही चामत्कारिक रूप से प्रभावित किया. मात्र 19 वर्ष की अवस्था में, 1938 में वे हिन्दी विद्यापीठ जैसे उच्च-कोटि के विद्या मंदिर में शिक्षक भी बन गए. पंकज जी ने हिन्दी विद्यापीठ की मूल आत्मा को भी आत्मसात कर लिया था. वे दिन में अगर एक समर्पित शिक्षक थे तो रात में क्रांतिकारी नौजवानों के सेनापति. साहित्यिक मंच पर वे एक सुधी साहित्यकार थे तो आम लोगों के बीच सुख-दुख के साथी. इसलिए घोर कष्ट झेल कर भी उन्होंने न सिर्फ़ स्वयं को शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित किया, बल्कि सैकड़ों युवकों को निजी तौर पर शिक्षा हेतु प्रोत्साहित भी किया. विपन्नत्ता से जूझते हुए शिक्षा प्राप्त करते रहने की इनकी अदम्य इच्छा-शक्ति से संबंधित किंवदंतियां आज भी इस क्षेत्र के गांव-गांव में बिखरी हुई है. चार आने की नौकरी के लिए एक बार ये म्युनिसपैलिटी में झाड़ू लगाने का काम ढूंढने गए थे. कैसा था इनका जीवटपन! काम को कभी छोटा नहीं समझना और विद्यार्जन करना उनका मुख्य एजेंडा था. अखबार बेचकर, लोगो के बच्चों को पढ़ाकर, उफनती हुई अजय नदी को तैरकर पार करके रोज बामनगामा में नौकरी करके, तथा दिन में एक बार भोजन कर गुजारा करके भी इन्होंने विद्या हासिल की और अपनी विद्वता, स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी भूमिका तथा साहित्यिक प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत किया. हिन्दी विद्यापीठ देवघर, बामनगामा हाई स्कूल सारठ, मधुपुर हाई स्कूल, पुन:हिन्दी विद्यापीठ देवघर और अंतत: संताल परगना महाविद्यालय दुमका के संस्थापक हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में ये आजीवन शिक्षा जगत की सेवा करते रहे.आचार्य पंकज  के विभिन्न रूपों से प्रेरणा, विभिन्न वर्गों के लोगों ने ली और वे जनश्रुति के नायक बन गये. जब लोग इन्हें बोलते हुए सुनते थे तो विस्मृत और सम्मोहित होकर सुनते रह जाते थे.17 सितम्बर, 1977 में जब इनका अकस्मात निधन हो गया तो सम्पूर्ण संताल परगना में शोक की लहर दौड़ गयी. संताल परगना के उन चुनिंदा लेखकों में से वह एक हैं जिनके कारण आज संताल परगना का दुमका व देवघर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद व बनारस की तरह विभिन्न प्रयोगों का गढ़ बनता जा रहा हैं. ’मानुष सत्त’ को चरितार्थ करते हुए इस अंचल को जो दिव्य-दृष्टि पंकज ने दी है वह आने वाले कल को भी प्रेरित करती रहेगी."

प्रगति वार्ता नामक लघु-साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक डॉ. रामजन्म मिश्र ने भी हाल के एक साक्षात्कार में पंकज जी के बारे में कहा है--- "पंकज जी असाधारण रूप से आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे इतने सरल और साधारण थे कि असाधारण बन गए थे. अपनी छोटी सी जिंदगी में भी उन्होंने जो काम कर दिए वे भी असाधारण ही सिद्ध हुए.विद्यार्थी जीवन में ही वे गाँधी जी के संपर्क में आये और जीवन भर के लिए गाँधी के मूल्यों को आत्मसात कर लिया."

पंकज जी के अवदानों की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध विद्वान और पत्रकार तथ पंकज जी के एक अन्य अनुयायी स्वर्गीय डोमन साहू "समीर"ने भी लिखा साहित्यिक गतिविधियों में आपकी संलग्नता का एक जीता-जागता उदाहरण दुमका में संस्थापित ’पंकज-गोष्ठी’ रहा है. जिसके तत्वावधान में नियमित रूप से साहित्य-चर्चा हुआ करती थी. यहीं नहीं, वहां के ’महेश नारायण साहित्य शोध-संस्थान’ ने आपको ’आचार्य’ की उपाधि से सम्मानित भी किया था.
आचार्य पंकज  की कव्य-यात्रा का मूल्यांकन करते हुए एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. ताराचरण खवाडे ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है---"मैं समदरशी देता जग को, कर्मों का अमर व विषफल के उद्घोषक कवि स्व० ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी संसार से उपेक्षित क्षेत्र संताल परगना के एक ऐसे कवि है, जिनकी कविताओं में आम जन का संघर्ष अधिक मुखरित हुआ है. कविवर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी साहित्य के संताल परगना के सरोवर में खिलते है, जिसमे एक ओर छायावादी प्रवृत्तियों की सुगन्ध है, तो दूसरी ओर प्रगतिवादी संघर्ष का सुवास.---कवि ऐसे प्रगति का द्वार खोलना चाहता है, जहां समरस जीवन हो, जहां शांति हो, भाईचारा हो और हो प्रेममय वातावरण. पंकज के काव्य-संसार का फैलाव बहुत अधिक तो नहीं है, किन्तु उसमें गहराई अधिक है. और, यह गहराई कवि को पंकज के व्यक्तित्व की संघर्षशीलता से मिली है."

पंकज जी की कविताओ की गेयात्मकता को आधार मानते हुए एक अन्य प्रतिष्टित कवि-लेखक व एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. राम वरण चौघरी अपने लेख"गीत एवं नवगीत के स्पर्श-बिन्दु के कवि ’पंकज’" मे कहते हैं कि----"आचार्य पंकज के गीत ही नहीं, इनकी कविताएं — सभी की सभी — छंदों के अनुशासन में बंधी हैं. गीत यदि बिंब है तो संगीत इसका प्रकाश है, रिफ्लेक्शन है, प्रतिबिंब है. गीत का आधार शब्द है और संगीत का आधार नाद है. संगीत गीत की परिणति है. जिस गीत के भीतर संगीत नहीं है वह आकाश का वैसा सूखा बादल है, जिसके भीतर पानी नहीं होता, जो बरसता नहीं है, धरती को सराबोर नहीं करता है. आचार्य पंकज  के गीतों में सहज संगीत है, इन गीतों का शिल्प इतना सुघर है कि कोई गायक इन्हें तुरत गा सकता है."

आचार्य पंकज जी की अक्षय कीर्ति--कथा

आचार्य पंकज किस तरह से एक तरफ़ लोगों की स्मृति में बस गये हैं तो दूसरी तरफ़ दन्त-कथाओं में भी समाते चले जा रहे हैं--इसकी भी झलक हमें निम्नलिखित उद्धरणों में मिलती है. “1954 में पंकज जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ. दुमका में संताल परगना महाविद्यालय की स्थापना हुई और पंकज जी वहां के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में संस्थापक शिक्षक बने. नियुक्ति हेतु आम साक्षात्कार की प्रक्रिया से अलग हटकर पंकज जी का साक्षात्कार हुआ. यह भी एक इतिहास है. पंकज जी जैसे धुरंधर स्थापित विद्वान का साक्षात्कार नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच व्याख्यान हुआ और पंकज जी के भाषण से विमुग्ध विद्वत्समुदाय के साथ-साथ आम लोगों ने पंकज जी की महाविद्यालय में नियुक्ति को सहमति दी. टेलीविजन के विभिन्न कार्यक्रमों (रियलिटी शो आदि) में आज हम कलाकारों की तरफ से आम जनता को वोट के लिये अपील करता हुआ पाते है और जनता के वोट से निर्णय होता है. लेकिन आज से 55 साल पहले भी इस तरह का सीधा प्रयोग देश के अति पिछड़े संताल परगना मुख्यालय दुमका में हुआ था और पंकज जी उसके केन्द्र-बिन्दु थे. है कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र? ऐसा लगता है कि नियति ने पंकज जी को इतिहास बनाने के लिये ही भेजा था, इसलिये उनसे संबंधित हर घटना ऐतिहासिक हो गयी है." गोड्डा जिला के इस स्कूल शिक्षक नित्यानन्द ने अपने आलेख में आगे लिखा है- "बात 68-69 के किसी वर्ष की है– ठीक से वर्ष याद नहीं आ रहा. दुमका में कलेक्टरेट क्लब द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में रवीन्द्र साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ० हंस कुमार तिवारी मुख्य अतिथि थे. संगोष्ठी की अध्यक्षता पंकज जी कर रहे थे. कवीन्द्र रवीन्द्र से संबंधित डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को उपस्थित विद्वत्समुदाय ने धैर्यपूर्वक सुना. संभाषण समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर का दौर चला. इसमें भी तिवारी जी ने प्रेमपूर्वक श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की.  इसके बाद अध्यक्षीय भाषण शुरू हुआ, जिसमें पंकज जी ने बड़ी विनम्रता, परंतु दृढ़तापूर्वक रवीन्द्र साहित्य से धाराप्रवाह उद्धरण-दर-उद्धरण देकर अपनी सम्मोहक और ओजमयी भाषा में डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को नकारते हुए अपनी नवीन प्रस्थापना प्रस्तुत की. पंकज जी के इस सम्मोहक, परंतु गंभीर अध्ययन को प्रदर्शित करने वाले भाषण से उपस्थित विद्वत्समाज तो मंत्रमुग्ध और विस्मृत था ही, स्वयं डॉ० तिवारी भी अचंभित और भावविभोर थे. पंकज जी के संभाषण की समाप्ति के बाद अभिभूत डॉ० तिवारी ने दुमका की उस संगोष्ठी में सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि रवीन्द्र-साहित्य के उस युग का सबसे गूढ़ और महान अध्येता पंकज जी ही हैं.

नित्यानन्द की ही तरह से पंकज जी के एक अन्य शिष्य एवं निकटवर्ती सारठ के निवासी भूजेन्द्र आरत, जो ख्यातिलब्ध व यशस्वी उपन्यासकार भी हैं, ने अपने किशोर मन पर अंकित पंकज जी की छाप का सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है-----"30 जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली के प्रार्थना सभागार से निकलते समय कर दी गई थी. इससे सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौड़ गई. संताल परगना का छोटा-सा गाँव सारठ वैचारिक रुप से प्रखर गाँधीवादी तथा राष्ट्रीय घटनाओं से सीधा ताल्लुक रखने वाला गाँव के रूप में चर्चित था. इस घटना का सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा. सारठ क्षेत्र के ग्रामीण शोकाकुल हो उठे. 31 जनवरी, 1948 को राय बहादुर जगदीश प्रसाद सिंह विद्यालय, बमनगावाँ के प्रांगण से छात्रों, शिक्षकों, इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ-साथ हजारों ग्रामीणों ने गमगीन माहौल में बापू की शवयात्रा निकाली थी, जो अजय नदी के तट तक पहुंचीं. अजय नदी के पूर्वी तट पर बसे सारठ गाँव के अनगिनत लोग श्मसान में एकत्रित होकर बापू की प्रतीकात्मक अंत्येष्टि कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे. मैं उस समय करीब 8-9 वर्ष का बालक था, हजारों की भीड़ देखकर, कौतुहलवश वहाँ पहुंच गया. उसी समय भीड़ में से एक गंभीर आवाज गूंजी कि पूज्य बापू के सम्मान में ’पंकज’ जी अपनी कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे. इसके बाद भीड़ से निकलकर धोती और खालता (कुर्ता) धारी एक तेजस्वी व्यक्ति ने अपनी भावपूर्ण कविता के माध्यम से पूज्य बापू को जब श्रद्धांजलि अर्पित की तो हजारों की भीड़ में उपस्थित लोगों की आंखें गीली हो गई. हजारों लोग सुबकने लगे। मुझे इतने सारे लोगों को रोते-कलपते देखकर समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो गया है जो एक साथ इतने सारे लोग रो रहे हैं! कैसा अद्भुत था पंकज जी द्वारा अर्पित उस काव्य श्रद्धांजलि का प्रभाव ! उसी समय पहली बार मेरे बाल-मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर पंकज जी का नाम अंकित हो गया.”  कई अन्तरंग पक्षों का रेखाचित्र खींचते हुए जन-सामान्य पर पंकज जी के व्यक्तित्व और विद्वता को दर्शाते हुए लिखते हैं----" दुमका में उन दिनों प्रतिवर्ष रामनवमी के अवसर पर ’रामायण यज्ञ’ हुआ करता था. यह यज्ञ सप्ताह भर चला करता था. इसमें भारत के कोने-कोने से रामायण के प्रकांड पंडित एवं विद्वान अध्येताओं को यज्ञ समिति द्वारा आमंत्रित किया जाता था. यज्ञ स्थल जिला स्कूल के सामने यज्ञ मैदान हुआ करता था. यज्ञ स्थल पर सायंकाल में प्रवचन का कार्यक्रम होता था. विन्दु जी महाराज, करपात्री जी महाराज, शंकराचार्य जी एवं अन्य ख्यातिलब्ध विद्वान यहां प्रवचन किया करते थे. एक दिन में यहां केवल एक रामायण के अध्येता का प्रवचन संभव हो पाता था. इस कार्यक्रम में जहां देश के कोने-कोने से प्रकांड रामायणी अध्येताओं का प्रवचन होता था वहीं सप्ताह की एक संध्या पंकज जी के प्रवचन के लिये सुरक्षित रहती थी. ऐसे थे हमारे पंकज जी और उनका प्रवचन! हम छात्रों और दुमका वासियों के लिये तो सचमुच यह गौरव की है.

पंकज जी से संबंधित दन्त कथाएं और किंवदंतियां

नित्यानंद बताते हैं-“शारीरिक श्रम की गरिमा को उच्च धरातल पर स्थापित करने का एक अन्य सुन्दर उदाहारण पंकज जी ने पेश किया है. 1968 में उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) हो गया. उन दिनों मधुमेह बहुत बड़ी बीमारी थी. गिने-चुने लोग ही इस बीमारी से लड़कर जीवन-रक्षा करने में सफल हो पाते थे. चिकित्सक ने पंकज जी को एक रामवाण दिया — अधिक से अधिक पसीना बहाओ. फिर क्या था! पंकज जी ने वह कर दिखाया, जिसका दूसरा उदाहरण साहित्यकारों की पूरी विरादरी में शायद अन्यत्र है ही नहीं. संताल परगना की सख्त, पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन. पंकज जी ने कुदाल उठाई और इस पथरीली जमीन को खोदना शुरु कर दिया. छ: महीने तक पत्थरों को तोड़ते रहें, बंजर मिट्टी काटते रहे और देखते ही देखते पथरीली ऊबड़-खाबड़ परती बंजर जमीन पर दो बीघे का खेत बना डाला. हां, पंकज जी ने– अकेले पंकज जी ने कुदाल-फावड़े को अपने हाथों से चलाकर, पत्थर काटकर दो बीघे का खेत बना डाला. खैरबनी गांव में उनके द्वारा बनाया गया यह खेत आज भी पंकज जी की अदम्य जीजीविषा और अतुलनीय पराक्रम की गाथा सुना रहा है. क्या किसी और साहित्यकार या विद्वान ने इस तरह के पराक्रम का परिचय दिया है? पिछले दिनों अदम्य पराक्रम का अद्भुत उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी ने तब रखा जब उन्होंने अकेले पहाड़ काटकर राजमार्ग बना दिया. आदिवासी दशरथ मांझी तक पंकज जी की कहानी पहुंची थी या नहीं हमें यह नहीं मालूम, परन्तु हम इतना जरूर जानते है कि पंकज जी या दशरथ मांझी जैसे महावीरों ने ही मानव जाति को सतत प्रगति-पथ पर अग्रसर किया है. युगों-युगों तक ऐसे महामानव हम सब की प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे"
नित्यानन्द के अनुसार “कर्तव्य-परायणता और पंकज जी एक दूसरे के पर्याय थे. बारिश के महिने में विनाशलीला का पर्याय बन चुकी अजय नदी को तैरकर अध्यापन हेतु पंकज जी स्कूल आते-जाते थे. वे नदी के किनारे पहुंचकर एक लंगोट धारण किये हुए, बाकि सभी कपड़ों को एक हाथ में उठाकर, पानी से बचाते हुए, दूसरे हाथ से तैरकर नदी को पार करते थे. कुचालें मारती हुई अजय नदी की बाढ़ एक हाथ से तैरकर पार करने वाला यह अद्भुत व्यक्ति अध्यापन हेतु बिला-नागा स्कूल पहुंचता था. क्या कहेंगे इसे आप! शिष्यों के प्रति जिम्मेदारी, कर्तव्य परायणता या जीवन मूल्यों की ईमानदारी. “गोविन्द के पहले गुरु” की वन्दना करने की संस्कृति अगर हमारे देश में थी तो निश्चय ही पंकज जी जैसे गुरुओं के कारण ही. ऐसी बेमिसाल कर्तव्यपरायणता, साहस और खतरों से खेलने वाले व्यक्तित्व ने ही पंकज जी को महान बनाया था, जिनकी गाथाओं के स्मरण मात्र से रोमांच होने लगता है, तन-बदन में सिहरन की झुरझुरी दौड़ने लगती है. “

नित्यानन्द के अनुसार-“पंकज जी एक तरफ तो खुली किताब थे, शिशु की तरह निर्मल उनका हृदय था, जिसे कोई भी पढ़, देख और महसूस कर सकता था. दूसरी तरफ उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था और उनका कर्म-शंकुल जीवन इतना परिघटनापूर्ण था कि वे अनबूझ पहेली और रहस्य भी थे. निरंतर आपदाओं को चुनौती देकर संघर्षरत रहनेवाले पंकज जी के जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं जिसे आज का तर्किक मन स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन उनसे भी पंकज जी के अनूठे व्यक्तित्व की झलक मिलती है.1946-47 की घटना है, पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ समेत कई विद्यालयों में पढाते हुए 1945 में मैट्रिक पास करते हैं. तदुपरांत इंटरमीडिएट की पढा़ई के लिये टी० एन० जे० कॉलेज, भागलपुर में दाखिला लेते हैं. रहने की समस्या आती है। छात्रावास का खर्च उठाना संभव नहीं है. पंकज जी उहापोह की स्थिति से उबरते हुए विश्वविद्यालय के पीछे टी एन बी कालेज और परवत्ती के बीच स्थित पुराने ईसाई कब्रिस्तान की एक झोपड़ी में पहुंचते हैं. वहां एक बूढ़ा चौकीदार मिलता है. पंकज जी और चौकीदार में बातें होती है और पंकज जी को उस कब्रिस्तान में आश्रय मिल जाता है---रात-दिन  उसी झोपड़ी में कटती है, लेकिन चौकीदार कहीं नहीं दिखता है तो कहां गया वह चौकीदार? क्या वह सचमुच चौकीदार था या कोई भूत जिसने आचार्या पंकज  को उस परदेश में आश्रय दिया था? लोगों का मानना है कि वह भूत था. सच चाहे कुछ भी हो लेकिन कब्रिस्तान में अकेले रहकर पढाई करने का कोई उदाहरण और भी है क्या?"
निष्कर्ष

आचार्य पंकज  के व्यक्तित्व के साथ इतनी परिघटनाएं गुम्फित हैं कि पंकज जी का व्यक्तित्व रहस्यमय लगने लगता है. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के हर पहलू में चमत्कार ही चमत्कार है.आचार्या  पंकज को कवि, एकांकीकार, समीक्षक, नाटककार, रंगकर्मी, संगठनकर्ता, स्वाधीनता सेनानी जैसे अलग-अलग खांचों में डालकर– उनका सम्यक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं. उनके तटस्थ और सम्यक मूल्यांकन हेतु सम्पूर्णता और समग्रता में ही पंकज जी के अवदानों की समीक्षा होनी चाहिये. इसीलिये तो 30 जून 2009 में दुमका में सम्पन्न “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज 90वीं जयन्ती समारोह” में जहां प्रति उप-कुलपति डॉ० प्रमोदिनी हांसदा उन्हें वीर सिद्दो-कान्हों की परंपरा में संताल परगना का महान सपूत घोषित करती हैं, वहीं प्रो० सत्यधन मिश्र जैसे वयोवृद्ध शिक्षाविद् पंकज जी को महामानव मान लेते है. एक ओर जहां आर. के. नीरद जैसे साहित्यकार-पत्रकार पंकज जी को “स्वयं में संस्थागत स्वरूप थे पंकज” कहकर विश्लेषित करते है, वहीं दूसरी ओर राजकुमार हिम्मतसिंहका जैसे विचारक-लेखक उनको महान संत-साहित्यकार की उपाधि से विभूषित करते है, लेकिन फिर भी पंकज जी का वर्णन पूरा नहीं हो पाता. ऐसा क्यों है?

ठीक इसी तरह आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ की 32वीं पुण्य-तिथि की पूर्व-संध्या पर नयी दिल्ली में 16 सितम्बर 2009 को ’पंकज-स्मृति संध्या सह काव्य गोष्ठी’ का भव्य आयोजन किया गया. इस अवसर पर प्रसिद्ध गीतकार कुंवर बेचैन ने गीतकार ’पंकज’ को काव्य-तर्पन करते हुए अपनी श्रद्धांजलि दी. प्रसिद्ध समीक्षक डा० गंगा प्रसाद ’विमल’ ने’पंकज’ जी की ’हिमालय के प्रति’ कविता का पाठ करते हुए उसे अब तक हिमालय पर हिन्दी में लिखी गयी सर्वश्रेष्ठ कविता घोषित किया. संगोष्ठी में डा० विजय शंकर मिश्र ने अपना आलेख पाठ करते हुए ’पंकज’ की कविताओं को बेहद संघर्ष और अटूट आदर्श की कविता घोषित किया.चर्चित समीक्षक डा० सुरेश ढींगरा ने भी पंकज की कविताओं की समीक्षा करते हुए उन्हें संताल परगना या अंग-प्रदेश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का महान कवि घोषित करते हुए उनके रचना-संसार पर नयी समीक्षा दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता  पर बल दिया.
प्रसिद्ध कथाकार तथा समीक्षक डा० विक्रम सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ के विराट व्यक्तित्व एवं संताल परगना में 1955-1975 तक हिन्दी साहित्य की धूम मचाने वाली उनके नाम पर बनी संस्था ’पंकज-गोष्ठी’ के ऐतिहासिक योगदान के बावजूद अगर पंकज को विस्मृत किया जा रहा है तो यह जरूर किसी साजिश का हिस्सा है, क्योकि उनके प्रचंड व्यक्तित्व की आंच में झुलसने से बचने के लिये उस समय के कुछ विख्यात समीक्षकों ने पंकज और उनके कार्यों को पूरी तरह उपेक्षित किया.

जामिया मिलिया इस्लामिया से आये इतिहासकार डा० रिजवान कैसर तथा दिल्ली विश्वविद्यालय विद्वत् परिषद् सदस्य और इतिहासविद् डा० अशोक सिंह ने आचार्य पंकज को साहित्य ही नहीं, बल्कि इतिहास की भी धरोहर बताया और उन पर शोध करने की आवश्यकता पर बल दिया.

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे मशहूर समाजवादी चिंतक और लेखक श्री मस्तराम कपूर ने ’पंकज’ की ’उद्बोधन’ कविता को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बताते हुए कहा कि ऐसी बेजोड़ कविताएं सिर्फ स्वाधीनता सेनानी पंकज या उनकी पीढ़ी के कवि ही लिख सकते थे. यही उनके अनूठेपन का सबसे बड़ा प्रमाण है. उनके अनुसार आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ समेत हिन्दी के सैकड़ों साहित्यकारों को इसीलिये गुमनामी में भेजने का षड्यंत्र रचा गया, क्योंकि पचास के दशक के ऐसे रचनाकारों के जीवन-दर्शन और जीवन मूल्य के केंद्र में गांधी थे.

आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज या पंकज जी के बारे मे ऊपर दर्शाए गये विवरणों के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं----1) कठोर साधना, दृढ़ सिद्धांत, सुस्पष्ट जीवन-दर्शन तथा अतुलनीय चरित्र ने आचार्य पंकज  को प्रखर व्यक्तित्व का स्वामी बनाया था.2) भयंकर विपन्नता के वावजूद निरन्तर संघर्षशीलता की प्रवृत्ति ने आचार्य पंकज  को युवाओं का आदर्श  बनाया.3) 1942 के भरत-छोडो आन्दोलन दौरान दिन में सीधे-सादे शिक्षक और रात में अपने छात्रों के साथ विप्लवी की उनकी भूमिका ने उन्हें अपने छात्रों का रोल माडल बना दिया.4) कवि के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी और उनकी लोकप्रियता में काफी अभिवृद्धि हुई.5) पंकज-गोष्ठी से संताल परगना के सुदूर में  बस गये.6) अनुशासित तथा लोकप्रिय अध्यापक के रूप मे उनका बहुत सम्मान था. 7) उनकी असाधारण सादगी ने उन्हें महामनव की तरह महिमा मंडित किया.8) एक ही साथ आम और खास---बन जाने वाले पंकज जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक अलौकिक दैवीय चमत्कार का परिणाम मान लिया गया.पंकज जी को जिन्होंने भी देखा, पंकज जी उनकी आंखों में सदा-सर्वदा के लिये बस गये. जिन्होंने भी उन्हें सुना, वे आजीवन पंकज जी के मुरीद बन गये. परन्तु, वास्तव में महामानव दिखने वाले पंकज जी भी हाड़-मांस के पुतले ही थे, इसलिए किसी भी तरह की भावुकता से बचते हुए वैचारिक स्पष्टता के साथ उनका सम्यक मूल्यांकन करने की जरूरत है और उनके योगदानों को किस तरह से संताल परगना के बौद्धिक और शिक्षित समूह रेखांकित करते हैं, इसको समझने की जरूरत है.

चूंकि विद्रोह की लम्बी ऐतिहासिक परम्परा संताल परगना में पहले से मौजूद रही है, वहां की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टता ने भी वहां के लोगों मे अत्म-अभिमान के भाव भरे हैं. दूसरी तरफ, विकास की दौड में लगातार पिछडते चले जाने के कारण राजनीतिक प्रक्रिया से वहां मोह-भंग की स्थिति बन गयी है. परिणामतः अगर एक तरफ नक्सलवाद वहां अपनी जडें जमा रहा है तो दूसरी तरफ महेशनारायण, भवप्रीतानन्द, दर्शणदूबे, जनार्धन मिश्र "परमेश", बुद्धिनाथ झा "कैरव" तथा आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा "पंकज" जैसे साहित्य-सेवियों की उपेक्षा को संताल परगना की उपेक्षा के साथ जोडकर देखा जा रहा है. इसलिये इन सभी महपुरुषों के व्यक्तित्व के आस-पास रहस्य का आवरण चढने लगा है और इतिहास का मिथिकीकरण होने लगा है. अतः संताल परगना के इतिहास को इन मिथकों और दन्त-कथाओं के आवरण से मुक्त करके वहां का वास्तविक इतिहास लिखने का जरूरी काम इतिहासकारो को करना होगा.



संदर्भ

1).The Santal Pargana District Gazetters

2) ’स्नेह-दीप’, दुमका, 1958

3) उद्गार, दुमका, 1962.

4) बाँस-बाँस बाँसुरी ’भाषा-संगम’, दुमका

5) अपूर्व्या, दुमका,1996

6) प्रभात-खबर, देवघर, 4 जुलाई, 2005.

7) प्रभात-खबर, दुमका, 1 जुलाई, 2009.

8) प्रगति वार्ता, साहिबगंज, झारखंड ,अक्तूबर, 2009

9) प्रथम प्रवक्ता, नई दिल्ली, 16 अक्तूबर, 2009.

10) . http:www.pankajgoshthi.org

{Anusandhanika /Vol. viii / No.1 /January 2010 / pp.121-127} से  साभार. 

शुक्रवार, १ जनवरी २०१०

aha!aaj ka din kitana sunder hai,kyonki yah kitana naya hai


aha!aaj ka din kitana sunder hai,kyonki yah kitana naya hai---bhav jagat main.7 baje sokar utha ,naye din ka ahsas hua.naye varsh ka aabhaash hua, naye dashak kaa aagaaj hua.nit nootanataa.kshan-kshan men naveenataa.pal-pal ka jeevan.kaal ke anant pravah par pratyek pal tairaaa jeevan.hichkole ke thapedon ke beech adamya jeejeevisha ke sath chalata jeevan.samast brahmaand ko apane me sametakar chalataa jeevan.jeevan , jeevan sirf jeevn.ander jeevan bahar jeevan.jeevan leela ki mridul-katu smritiyon ke sath chalane vaala jeevan.nav varsh par navollas kaa jeevan.aao sab milkar is jeevan sudhaa kaa paan kare!poojya pitaji pankaj ji ke shabdon me----hai ek kabhi uthata parada , hai ek kabhi girata paradaa, uthane girane ka kram jaari, yoon khel manohar chalataa rahata. nav varsh me samasta brahmaand kee mangal kaamanaaon ke saath.

रविवार, २० दिसम्बर २००९

'अभी-अभी' के आफिस से न्यूज एडिटर को पुलिस ने उठाया

मालिक और समूह संपादक भूमिगत : चरखी दादरी में पत्रकार उतरे सड़क पर, निकाला मौन जुलूस : प्रेस क्लब नारनौल ने की पुलिस कार्रवाई की निंदा : 'अभी-अभी' अखबार के रोहतक मुख्यालय से हरियाणा पुलिस ने न्यूज एडिटर उदयशंकर खवारे को गिरफ्तार कर लिया है। अखबार के मालिक और प्रधान संपादक कुलदीप श्योराण और ग्रुप एडिटर अजयदीप लाठर भूमिगत हो गए हैं। ये लोग अपनी अग्रिम जमानत कराने की कोशिश में हैं। सभी के मोबाइल स्विच आफ आ रहे हैं। 'अभी-अभी' से जुड़े एक सूत्र ने बताया कि हरियाणा पुलिस एकेडमी के खिलाफ खबर छापे जाने से नाराज पुलिस अधिकारी अखबार की प्रिंटिंग रोकने की कोशिश कर रहे हैं। हिसार में प्रिंटिंग रोकी गई जिससे अखबार की प्रिंटिंग बाहर से कराई गई। अभी-अभी की सेकेंड लाइन को भी परेशान कर रही है पुलिस ताकि अखबार का प्रकाशन और संचालन अधिकतम बाधित की जा सके।



अभी-अभी का मुख्यालय पहले गुड़गांव हुआ करता था जिसे बाद में रोहतक शिफ्ट कर दिया गया। रोहतक, हिसार और नोएडा से प्रकाशित होने वाले इस अखबार को रोहतक के मधुबन स्थित हरियाणा पुलिस अकादमी के खिलाफ खबर छापना भारी पड़ रहा है। हालांकि हरियाणा के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है और विपक्षी पार्टियां भी सरकार पर पुलिस पर लगाम लगाने की मांग कर रही हैं लेकिन रोहतक पुलिस के अधिकारी अब भी पूरे जोर-शोर से 'अभी-अभी' और इससे जुड़े लोगों को नुकसान पहुंचाने की मुहिम में लगे हैं।



उधर, चरखी दादरी (भिवानी) में पत्रकार वीरवार को सड़क पर उतर आए। इन लोगों ने प्रदेश सरकार के इशारे पर पुलिस द्वारा एक समाचार पत्र के संपादक व संचालक के खिलाफ दर्ज झूठे मुकदमे को खारिज करने व इस मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की। मधुबन पुलिस की कायरतापूर्ण कार्रवाई से व्यथित पत्रकारों ने आज अपने बाजूओं पर काली पट्टी बांध शहर में मौन जुलूस निकाला तथा मुकदमे खारिज करने की मांग को लेकर उन्होंन स्थानीय एस.डी.एम. के माध्यम से राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा। दादरी पत्रकार कल्याण परिषद के अध्यक्ष प्रवीन शर्मा ने कहा कि सेक्स कांड का मामला सामने आने पर सरकार को उसी समय उच्चस्तरीय जांच के आदेश दे देने चाहिए थे। लेकिन पुलिस ने मामले की पड़ताल किए बगैर पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज कर दिया जो लोकतंत्र पर सीधा हमला है। अगर इसी तरह कलम की आवाज को दबा दिया गया, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने पत्रकारों को एकजुट हो जाने का आह्वान करते हुए कहा कि यदि शीघ्र पत्रकारों पर दर्ज किए गए मुकदमों को खारिज नहीं गया तो वे आंदोलन का रास्ता अपनाएंगे। बैठक के बाद सभी पत्रकार पूर्ण मार्केट से अपनी बाजूओं पर काली पट्टी बांध नगर के मुख्य बाजारों में मौन जुलूस निकालते हुए एस.डी.एम. कार्यालय में पहुंचे तथा पत्रकारों पर दर्ज किए गए मुकदमों को खारिज करने की मांग को लेकर एस.डी.एम. होशियार सिंह सिवाच के माध्यम से महामहिम राज्यपाल हरियाणा सरकार को ज्ञापन सौंपा। इस मौके पर परिषद् के प्रधान प्रवीन शर्मा, महासचिव शिव कुमार गोयल, वरिष्ठ पत्रकार सुरेश गर्ग, रविंद्र सांगवान, रामलाल गुप्ता, उप प्रधान प्रदीप साहु, सुरेंद्र सहारण, प्रवक्ता राजेश चरखी, जगबीर शर्मा, राजेश गुप्ता, राकेश प्रधान, सचिव राजेश शर्मा, सोनू जांगड़ा, सुखदीप इत्यादि पत्रकार उपस्थित थे।

प्रेस क्लब नारनौल (हरियाणा) के अध्यक्ष असीम राव ने अपने एक बयान में कहा है कि हरियाणा में पुलिस किस तरह से निरंकुश होकर काम कर रही है, इसका नमूना मधुबन पुलिस अकादमी प्रकरण में दिख रहा है। बुधवार को पुलिस ने अखबार के समाचार संपादक उदयशंकर खवाड़े को प्रेस से जबरन उठा कर आपातकाल से भी बढ़कर निरंकुशता का परिचय दिया है। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या प्रदेश में प्रेस स्वतंत्र है? क्या हरियाणा में लोकतंत्र है? यदि है तो अखबार के खिलाफ इस तरह का दमन किस तरह हो रहा है और आरोपी विभाग आरोप लगाने वालों को ही कैसे प्रताड़ित कर रहा है। आज नहीं तो कल इन सवालों का जवाब प्रदेश की जनता मांगेगी और पुलिस व प्रदेश के नेतृत्व को देने भी होंगे।



जिस तरह से पुलिस ने अभी-अभी के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, प्रबंधक, रिपोर्टरों व वितरकों के खिलाफ मुकदमें दर्ज किए हैं उससे स्पष्ट हो गया है कि पुलिस अपनी शक्तियों का किस प्रकार से दुरूपयोग कर रही है। पुलिस ने हॉकर व एजेंट तक को नहीं बख्शा, खबर संपादक ने लिखी है और बौखलाए पुलिस अधिकारियों ने मुकदमें में करनाल के ब्यूरो प्रमुख को और अखबार बांट कर पेट पालने वाले लोगों को भी लपेट लिया है। सारे प्रकरण को देखकर लग ही नहीं रहा कि प्रदेश में लोकतंत्र भी है। एक तरफ प्रदेश का पुलिस नेतृत्व पुलिस की छवि सुधारने का दम भरता है तो दूसरी तरफ तानाशाही तरीके से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोंटने का प्रयास किया जा रहा है। इस पूरे प्रकरण में प्रदेश सरकार की अब तक की निष्क्रियता भी कई सवाल खड़े कर रही है। मुख्यमंत्री ने जांच करवाने की बात तो कही है, लेकिन अखबार के निर्दोष लोगों के खिलाफ दर्ज मुकदमें दर्ज करने बाबत उन्होंने अपना स्टैंड स्पष्ट नहीं किया है। अगर पुलिस अपनी मनमानी करके अखबार से जुड़े लोगों को प्रताड़ित करने में सफल रही और कल जांच में उसके वरिष्ठ अधिकारी दोषी साबित हुए तो प्रदेश सरकार की बदनामी ही होगी और स्वच्छ छवि के मुख्यमंत्री पर भी उस कालिख के छींटे पड़ सकते हैं। अगर बिना जांच करवाए ही मुकदमे दर्ज होने लगे तो फिर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कौन आगे आएगा?

ऊपर की खबर पढ़कर कौन हैरान होगा?क्या यही यथार्थ चरित्र नही है , हमारे लोकतंत्र का? मुझे तो लोकतंत्र के इस महान देश की पुलिसिया कार्रवाई का समृद्ध एवं निजी अनुभव है.१९९० में एक ही दिन में छार थाने की पुलिस ने अलग-अलग गिरफ्तार किया.१९९४ में मातृभाषा को सम्मान दिलाने हेतु धरना देने और सत्याग्रह करने के अपराध को देशद्रोह मन गया और तिहाड़ जेल की हवा खानी पड़ी.२००१ में शराबियों की हरकतों का विरोध करने की कीमत गाजियाबाद पुलिस की हिरासत में रात काटकर चुकानी पड़ी.और तो और जाब में दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद् का निर्वाचित सदस्य था,तथा यहं इंदिरापुरम की तमाम आर डबल्यू एज के फेदरेसन का अध्यक्ष होने की हैसियत से लगातार मीडिया में चर्चित हूँ तब भी २००७ में पुलिस ने नही बख्शा.पता नही किस व्यवस्था में जी रहे है हम और क्या है इसका उप्छार? क्या हमें सिर्फ लड़ते ही रहना है? हाँ यही करते रहना है.पंकज जी के शब्दों में ---विहंस  कर जो चल चुका तूफ़ान में,क्यों डरे वह पथ मिले या न मिले?
न्यूज एडिटर उदयशंकर खवारे जी मेरी शुभकामना और बधाई के मुक्त अधिकारी हैं.

शुक्रवार, ४ दिसम्बर २००९


कल पुनः बेचैन जी को सुनाने का मौका मिला.एक सुखद एहसा है उनको सुनना.दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मलेन की ओर से हिंदी भवन में --एक शाम कुंवर बेचैन के नाम ---कार्यक्रम में उनके एकल काव्य पाठ में हम डूबते चले गए.डॉ.व्यास ने ठीक ही कहा की पिछले पांच दशक की गुटबंदी के दौर में बिना किसी गुट का होते हुए भी खुद को साहित्य में प्रासंगिक बनाये रखना उनकी सबसे बड़ी सफलता है.परन्तु मेरी नजर में उनके काव्य संसार में अभिव्यक्त वदना और प्रेम के स्वर ने ही उनको प्रासंगिक बनाये रखा.उनके पूर्ववर्ती के रूप में पंकज के काव्य में भी जिजीविषा ,संघर्ष और प्रेम के भाव को ही प्रमुखता मिली है.पंकज और बेचैन की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है.------

बुधवार, २ दिसम्बर २००९

खुशबू की लकीर ही है----डॉ.कुंअर बेचैन की काव्य-यात्रा

खुशबू की लकीर ही है----डॉ.कुंअर बेचैन की काव्य-यात्रा. कल यानी १ दिसंबर ०९ को राजभाषा मंच की ओर से आयोजित साहित्य अकादमी के कर्यक्रम---कुंअर बेचैन के एकल काव्य -पाठ में शामिल होना एक सुखद -अनुभूति की तरह था.सचमुच बेहद सुरीली आवाज के मालिक कुंअर बेचैन को माँ सरस्वती ने अपनी कृपा से समृद्ध किया है.लगभग दो घंटे के इस कर्यक्रम में --------

शनिवार, २८ नवम्बर २००९

Plz comment on my blog
पंकज जी समाज का वरदान!
ये कहा जाता है कि bhagvaan कभी कभी मानव को महामानव बनाकर दुनिया में भेजते हैं।is बात को बल आचार्य ज्योतिन्द्र प्राद झा "पंकज" के जन्म पर मिलता है और ऊपर वाले की सत्ता की इन्साफ पर यकीं होता है। इस बात पर कोई किंतु परन्तु नहीं है की उपरवाले ने परमपूज्य "पंकज जी " को एक समाज का एक अनमोल वरदान स्वरुप तोहफा भएंट प्रदान किया।
जारी

शनिवार, २१ नवम्बर २००९

ye kaisi bachainee hai?


ये कैसा अनमनापन है? जोश-खरोश से  दुनिया को बदलने के सपने ३५ सालों से देख रहा हूँ.तरंग सी उठती है मन में,तूफ़ान सा उठाता है दिल में.और बढ़ जाता हूँ --कुछ कर देता हूँ.असंभव सा दीखने वाला काम मुझे ही नहीं मेरे साथियों को भी संभव दीखने लगता है.मेरे साथ सभी सपने देखने लगते हैं.पर सपने पूरे होते हैं क्या? तो फिर क्या हुआ?  

बुधवार, ११ नवम्बर २००९

बहुत कुछ बदल गया .....पर कुछ भी तो नहीं बदला.


23 साल बीत गए. 24 साल शुरू हो गए. लगभग दो युग का अंत.  युगांत... आज ही के दिन 1986 में मैनें अपने कॉलेज में, स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज में व्याख्याता पद पर योगदान किया था. आज असोसिएट प्रोफेसर बन गया हूँ, परन्तु खुद को वहीं खडा पाता हूँ. बल्कि  तब बहुत अधिक जोश और उत्साह से लबरेज था मैं. जोश तो अब भी वही है, परन्तु कई बार उत्साह नही होता....परन्तु दुनिया को बदलने की तमन्ना अभी भी शेष है...वैसी की वैसी,एक दिवा स्वप्न की तरह . बहुत कुछ बदल गया .....पर  कुछ भी तो  नहीं बदला. बाल सफ़ेद हो गए. पत्नी गंभीर हो गयीं. बेटा 18 साल का हो गया. बेटी 12 साल की हो गयी..13 पूरे हो जायेंगे उसके भी जनवरी में.........

रविवार, ११ अक्तूबर २००९

पंकज के काव्य में संघर्ष चेतना का बोध


पंकज के काव्य में संघर्ष चेतना का बोध




प्रो० ताराचरण खवाड़े









--------------------------------------------------------------------------------





मैं समदरशी देता जग को

कर्मों का अमर व विषफल



के उद्‌घोषक कवि स्व० ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी संसार से उपेक्षित क्षेत्र संताल परगना के एक ऐसे कवि है, जिनकी कविताओं में आम जन का संघर्ष अधिक मुखरित हुआ है. कवि स्नेह का दीप जलाने का आग्रही है, ताकि ’भ्रमित मनुजता पथ पा जाये’ और ’अपनी शांति सौम्य सुचिता की लौ से’ जो घृणा द्वेष के तिमिर को हर ले. यह आग्रह बहुत पहले निराला के ’वीणा वादिनी बर दे’ में व्यक्त हो चुका है –





काट अंध उर के बंधन स्तर

कलुष भेद, तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे



इतिवृत्तात्मक द्विवेदी युगीन व यथातथ्यात्मक अभिव्यक्ति का दौर समाप्त हो चुका था. छायावाद लक्षणा-व्यंजना प्रतीक व बिंब योजना के घोड़े पर सवार हो एक नवीन भाषा में प्रकृति, सौंदर्य़, सुख-दुख का गायन व्यक्तितकता के परिवेष्टन में कल्पना का आश्रय ले स्थापित हो चुका था. परिवर्तनशीलता सृष्टि-चक्र की अनिवार्य शर्त है. छायावाद सिर्फ़ मर ही नहीं चुका था, उसका शव-परीक्षण भी कुछ आलोचक कर चुके थे. किन्तु उसकी आत्मा साहित्य के सृजन-क्षितिज पर मंडरा रही थी. उत्तर छायावाद व फिर प्रगतिवाद अपना-अपना मोर्चा संभाल रहा था. ऐसे ही समय में अपनी कविता लेकर कविवर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी साहित्य के संताल परगना के सरोवर में खिलते है, जिसमे एक और छायावादी प्रवृत्तियों कॊ सुगन्ध है, तो दूसरी और प्रगतिवादी संघर्ष का सुवास. कवि पंकज की काव्य यात्रा छायावाद व उत्तर छायावाद की क्षीण होती प्रवृत्तियों की राह से शुरू होती है व रूप कविता को देख विस्मित-चकित सा वह गा उठता है–





कौन स्वप्न के चंद्रलोक से

छाया बन उतरी भू पर l

अवगुंठन में विहंस-विहंस जो

तोड़ रही विधि का बंघन l





कभी वह ’कली से बतियाता है, कभी ’सरिता’ प्रिय मिलन के उन्माद उरेहता है, कभी स्मृतियों को कुरेदता है –





तेरी स्मृतियों का हार लिए

मैं जीवन ज्वार सुलाता हूं

या





निशि दिन आती याद तुम्हारी

जबकि





पागल चांद के नयन में चांदनी हो l



ऐसी रचनाओं में कवि की किशोर भावना आत्मुग्धता व यौनाकर्षण के इंद्रजाल में फंसती है. कल्पना का महल खड़ा करती है. अंत में स्वप्न-भंग का दंश भी झेलती है–





जले न वे मुझसे परवाने

मिले न वे मुझसे दीवाने l

– और, अपनी नियति पर जार-जार आंसू बहाती है–





शीतल पवन है गा रहा

बंदी मधुप अकुला रहा l



पंकज जी की ऐसी कितनी-कितनी रचनाओं में छायावादी आत्मा का मंडराना दिखाई पड़ता है. ऐसी कविताओं को देख कवि पंकज को भावुक कवि, कल्पना का कवि, वैयक्तिकता का कवि, छायावादी या फिर उत्तर छायावादी कवि घोषित कर देना जल्दबाजी होगी.





यह कैशोर्य भावुकता का दौर गुजर जाने के बाद जीवन व जगत के यथार्थ से जब उनका साबका पड़ता है, तब कवि महसूसता है कि जीना कितना कठिन है व जीने के लिए संघर्ष कितना जरूरी. उनकी कविताओं में उनके जीवन का यथार्थ कुछ इस कदर घुल-मिल जाता है कि मनुष्य मात्र के संघर्ष का यथार्थ बन जाता है. एक अनजाने गांव खैरबनी गांव का प्रतिभा संपन्न छात्र. कितने बाह्य व आंतरिक अड़चनों को अपनी हिम्मत व उदग्र आकांक्षाओं के सहारे पराजित करता हुआ एक मंजिल पाता है - यह अपने आप में कवि पंकज के व्यक्तित्व के संघर्षशील जीवन का एक ऐसा पक्ष है, जिसने उन्हें जुझारू कवि बनाया, आम आदमी का पक्षधर कवि, मानवीय संघर्ष चेतना का कवि. प्रगतिशील कवि. मेरी समझ में प्रगतिशीलता व प्रगतिवाद में मौलिक अंतर है. प्रगतिवाद मार्क्सवाद के कोख से उत्पन्न एक साहित्यिक उत्पाद, जबकि प्रगतिशीलता हमारे परंपरागत संस्कारों से जन्मा, आमजन से संघर्ष, अनुभवों व अनुभूतियों का साहित्यिक निचोड़. कवि पंकज का संघर्ष व उनकी प्रगतिशीलता उनके पूरे रचना-संसार में व्याप्त है. एक समय भोगे यथार्थ की अभिव्यक्ति की अनुगूंज पूरे हिन्दी काव्य-संसार में व्याप्त थीं, जिसे लक्ष्यकर बाबा नागार्जुन ने लिखा भी था–





कालिदास सच सच बतलाना

इंदुमति के मृत्यु शोक में अज रोया या तुम रोये थे?



स्पष्टत: साहित्य को मात्र आवेष्टन की प्रतिक्रिया नहीं भुक्त यथार्थ से भी जोड़ा गया है. इस दृष्टि से विचार करने पर पंकज की रचनाओं में आवेष्टन व भुक्त यथार्थ का समावेश हुआ लगता है.





फूल व शूल के प्रतीकों से वे आवेष्टन गत यथार्थ को अंकित करते हं, जिससे भिड़ना मनुष्य की नियति है. उनका यह प्रश्न इस टकराहट को व्यक्त करता है –





फूल भी क्यों शूल बनता ?

अमृत के वर विटप तल क्यों

जहर का है कीट पलता?



यह संसार सुखात्मक कम दुखात्मक अधिक है. यहां जीना कितना दुश्वार है? किन्तु जीना एक मजबूरी है. इसकी गतिशीलता के लिये संघर्ष का पतवार आवश्यक है, परिस्थियां चाहे कितनी विपरीत हों —





बरसतीं हों सावन की धार

नाचती बिजली की तलवार

चीखता मेघ, भीत, आकाश,

प्रलय का मिलता आभास l



फिर भी निरन्तर कर्मठता से जीवन को जीने लायक बनाया जा सकता है. निराशायें कभी-कभी कर्म-विमुख व निष्क्रिय करती हैं व लगने लगता है कि —





नियति का अभिशाप हूं मै



पर इस अभिशाप को वरदान बनाने के लिये पलायन नहीं, हौसला चाहिये. मानवीय चेतना में इतना संकल्प होना चाहिये –





मैं महासिंधु का गर्जन हूं

हिल उठे धरा, डोले अंबर,

मैं वह परिवर्तन हूं l



पंकज, अपने कठिन युग में मानवता के पक्षधर कवि रहे है. जहां शोषण है, उत्पीड़न है, वहां कवि जन-पक्षधर बन खड़ा है. वह लघु मानव की ओर से घोषित करता है कि –



<

देवत्व नहीं ललचा सकता

हमको न भूख अंबर की है l

मिट्टी के लघु पुतले है हम

मिट्टी से मोह निरंतर है l



युग-युगाब्दि से पीड़ित आमजन को धन-वैभव नहीं, पद-प्रतिष्ठा नहीं, मानवीय संवेदना चाहिये. पीड़ा से मुक्ति, अपमान व अवमानना से मुक्ति चाहिये. ऐसे ही मुक्ति के लिये संघर्ष करना होगा, निरंतरता के साथ –





सिद्धि चूमती चरण उसी के

हंस-हंस विध्नों से कि लड़े जो

बंधु लौह सा बन जा जिससे

भिड़कर सौ चट्टानें टूटें l

मरू में भी जीवनमय निर्झर,

जिसके चरण-चिह्न से फूटें l

ठीक इसी तरह —





शूलों पर चलना मुश्किल है

हिम्मतवाला वहां सफल है l

कहकर कवि आमजन में लड़ने की क्षमता भरता है —





रूकता कब हिम्मत का राही

चाहे पथ कितना बेढब है l

या –





मैं झंझा में पलने वाला हूं

मेरा तो इतिहास अजब है l



कहीं न कहीं कवि का अपना अनुभव, पर के अनुभव के साथ घुल-मिलकर एक ऐसे औदात्य संघर्ष की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, जो केवल उसका नहीं, मानव मात्र का एक महत्वपूर्ण औजार है. कवि की आकांक्षा एक ऐसे संसार की रचना करती है जहां –





रहे न कोई आज उपेक्षित

रहे न कोई आज बुभुक्षित

नहीं तिरष्कृत, लांक्षित कोई

आज प्रगति का मुक्त द्वार हो l



कवि ऐसे प्रगति का द्वार खोलना चाहता है, जहां समरस जीवन हो, जहां शांति हो, भाईचारा हो और हो प्रेममय वातावरण.





पंकज के काव्य-संसार का फैलाव बहुत अधिक तो नहीं है, किन्तु उसमें गहराई अधिक है. और, यह गहराई कवि को पंकज के व्यक्तित्व की संघर्षशीलता से मिली है.



प्रभात खबर (देवघर संस्करण)

जुलाई 2, 2005, शनिवार

से साभार









Jyotindra Prashad Jha 'Pankaj'

Browse Categories

Santal Pragna



Allwaysdisplay



Browse Archives

June 2009

शनिवार, १० अक्तूबर २००९

आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी की याद में आयोजित यह कार्यक्रम हमें हिंदी साहित्य की इस शोकान्तिका पर विचार करने का मौका देता है---मस्तराम कपूर


आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी की याद में आयोजित यह कार्यक्रम हमें हिंदी साहित्य की इस शोकान्तिका पर विचार करने का मौका देता है — कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारा साहित्य कैसे विदेशी साहित्य-विमर्श पर निर्भर हो गया और उसका संबंध अपनी परंपरा से टूट गया। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास साठोत्तरी पीढ़ी से शुरू होता है और यह परिवर्तन उससे पहले के साहित्य तथा साहित्यकारों को नकार कर या उनकी तिरस्कारपूर्वक उपेक्षा कर होता है। इस परिवर्तन के अंतर्गत भक्तिकाल और रीतिकाल ही नहीं, आधुनिक काल के मैथिलीशरण, श्रीधर पाठक, पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर, बच्चन, नवीन यहां तक कि जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, विष्णु प्रभाकर आदि भी उपेक्षित हुए। यह एक तरह का साहित्यिक तख्ता-पलट था जो राजनैतिक तख्ता-पलट का अनुगामी था। जिस तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जवाहरलाल, सरदार पटेल, मौलाना आजाद आदि कांग्रेस के नेताओं ने गाँधीजी के ग्राम स्वराज और स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम मूल्यों से पल्ला झाड़कर ब्रिटिश राज की सारी संस्थाओं और तौर-तरीको को ढोने का जिम्मा लेकर अपने को आधुनिक और प्रगतिशील घोषित किया, उसी तरह, साठोत्तरी पीढी़ के लेखकों-समीक्षकों ने भी अपने अतीत को, अपने इतिहास को नकार कर और उसका उपहास कर विदेशी विचारों, संकल्पनाओं तथा मूल्य-विमर्श के अनुकरण को अपनाकर अपने को अत्याधुनिक, प्रगतिशील या जनवादी घोषित किया। समय-समय पर इंगलैंड-अमरीका के शिक्षा-संस्थानों या शिक्षा-जगत से जो भी साहित्यिक और वैचारिक वायरस(स्वाइन-फ्लू के वायरस की तरह) चलें उन्होंने यहां के बौद्धिक जगत को इस प्रकार जकड़ लिया कि अब उससे मुक्ति की संभावना भी नहीं दिखाई दे रही है। इस बीच डॉ० राममनोहार लोहिया ने जवाहरलाल नेहरू के मोह से आविष्ट एवं सन्निपात-ग्रस्त बौद्धिक जगत को कुछ, ताजे, नये विचारों से झकझोरने का प्रयास किया। जब हिंदी के बौद्धिक जगत के लोग गुलाब और गेहूं, रोटी और आजादी, क्रांतिकरण और सौंदर्य-रचना के द्वंद की बहस में उलझे हुए थे तो डॉ० राममनोहर लोहिया ने एक सूत्र दिया। उन्होंने कहा कि जैसे गाँधीजी के रास्ते पर चलकर समता के माध्यम से शांति और शांति के माध्यम से समता की साधना की जा सकती है, उसी प्रकार स्वतंत्रता, समता और बंधुता के संघर्ष के माध्यम से सत्य, शिव और सुंदर की तथा सत्य, शिव और सुन्दर के माध्यम से स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता की साधना की जा सकती है। उनके इस विचार ने रूस या चीन की क्रांति का झंडा उठाने वाली साहित्यिक संस्थाओं के आतंक से साहित्य को मुक्त किया तथा साहित्य को उस व्यापक सरोकार से जोड़ा, जिसका लक्ष्य था मानव-जीवन को स्वतंत्रता, समता और बंधुता के अनुभवों से समृद्ध करना। इससे हर लेखक को मर्क्सवादी ठप्पा लगाने की जरूरत नहीं रही और साहित्य के क्षेत्र का ऐसा विस्तार हुआ कि उसमें सौंदर्यवादी, प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी और अराजकतावादी ही नहीं, स्त्रीवादी और दलितवादी लेखन भी समाविष्ट हुआ। यहीं कारण हैं कि लोहिया ने हिन्दी साहित्य पर व्यापक प्रभाव डाला और ’दिनमान’, परिमल ग्रुप के लेखक ही नहीं, उनके अलावा भी बड़ी संख्या में लेखक उनसे प्रभावित हुए; जैसे: रेणु, मुक्तिबोध, शमसेर, कुंवर नारायण, प्रयाग शुक्ल, गिरिराज किशोर, रमेश चन्द्र शाह, गिरधर राठी, ओम प्रकाश दीपक, हृदयेश, शिवप्रसाद सिंह, कृष्ण नाथ, नित्यानंद तिवारी, कृष्ण दत्त पालीवाल आदि (हिन्दी में) और विरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, यू. आर. अनन्तमूर्ति, चद्रशेखर पाटिल, स्नेहलता रेड्डी, पट्टाभि रामा रेड्डी, आचार्य अगे, फुले देशपांडे, विजय तेंदुलकर आदि अन्य भारतीय भाषाओं में.




इस समय बहुत जरूरी है कि डा. लोहिया के विचारों से अनुप्राणित साहित्यिक संस्थाएं बनें, जो जैसे ’पंकज-गोष्ठी’ बनी है, [पंकज-गोष्ठी 1955 में दुमका, झारखण्ड, में बनी थीं और डा. लोहिया के विचारों से यह अनुप्राणित थी या नहीं यह शोध का विषय हो सकता है। 2009 में पुन: पंकज-गोष्ठी को पुनर्जीवित करके मौजूदा स्वरूप में इसे स्थापित करने के प्रयास में लगे हुए इसके संपादक अमर नाथ झा बहुत हद तक लोहिया के विचारों से प्रभावित है.] जो पकज जी जैसे उन सब लेखकों को ढूंढे और छापें जिन्हें सिर्फ इसिलिये भूला दिया गया क्योंकि वे अपनी परंपरा और इतिहास से जुड़े थे। शब्द को ब्रह्म इसलिये कहा गया है कि वह अनश्वर होता है, इसलिये इसे नष्ट होने से बचाने का भरसक प्रयत्न किया जाना चाहिये। पंकज जी पचास के दशक के लेखक थे और इस दशक को जैसे हिन्दी साहित्य से खारिज ही कर दिया गया है। अंग्रेजी में पढ़ने और हिन्दी में उसका उलथा कर लिखने वाली साठोत्तरी पीढियों ने हिन्दी साहित्य में अपने अतीत को नकारने या अपनी कोख को लात मारने का जो पाप किया है, उसका प्रयश्चित बहुत जरूरी है। अगर इस प्रयश्चित की प्रक्रिया की शुरूआत इस पितृपक्ष से होती है तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है?



अपने वक्तव्य के अंत में पंकज जी का एक कवित्व पढ़ना चाहता हूं जो अतुकान्त कविता के फैशन के माहोल में कुछ लोगों को भले ही न रूचे, मेरा मन तो उस पर मुग्ध है। कवित्त स्वातंत्र्य के प्रात: काल की महिमा का वर्णन करता है:







जागरण प्रात यह दिव्य अवदात बंधु, प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो।

दूर हो भेद-भाव कूट-नीति, कलह-तम, द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो॥

नूतन तन, नूतन मन, नव जीवन छाने दो, ढल रही मोह-निशा, मित्र ढल जाने दो।

रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित हो, प्रभापूर्ण ज्योतिर्मय नव विहान आने दो॥

इस कवित्त को पंकज जी ही लिख सकते थे, जो स्वातंत्र्य संग्राम के सहभागी थे। जो किनारे खड़े थे वे इसका महत्व नहीं समझ पाएंगे।

शुक्रवार, ९ अक्तूबर २००९

pankaj jee



संताल परगना की साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया



नित्यानंद



संताल परगना — भारत का वह भू-भाग जिसने अपनी खनिज संपदा से देश को समृद्धि दी, जिसकी दुर्गम राजमहल की पहाड़ियों ने सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकने वालों को सुरक्षित शरणस्थली दिया, जिसने तब, जबकि भारत में अंग्रेजों का अत्याचार शुरू ही हुआ था, पहाड़ियां विद्रोह के रूप में सबसे पहले स्वाधीनता आंदोलन का शंखनाद किया, सामाजिक विषमताओं के विरूद्ध और शोषण-मुक्त समाज बनाने के लिये जहां के वीर सपूत सिद्धो-कान्हो ने भारत की प्रथम जन-क्रांति को जन्म दिया; जिसके अरण्य-प्रांतर में महादेव की वैद्यनाथ नगरी का परिपाक हुआ — वही संताल परगना सदियों से उपेक्षित रहा। पहले अविभाजित बिहार, बंगाल, बंग्लादेश और उड़ीसा, जो सूबे-बंगाल कहलाता था, की राजधानी बनने का गौरव जिस संताल परगना के राजमहल को था, उसी संताल परगना की धरती को अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल प्रांत के पदतल में पटक दिया गया। जब बिहार प्रांत बना तब भी संताल परगना की नियति जस-की-तस रही। हाल में झारखण्ड बनने के बाद भी संताल परगना की व्यथा-कथा खत्म नहीं हुई। आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परंपराएं आहत हुई, ओजमय व्यक्तित्वों की अवमानना हुई और यहां की समृद्ध साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया।



तब भी, जबकि बिहार और झारखण्ड एक हुआ करता था, अनेक समृद्ध साहित्यिक विभूतियों का आविर्भाव एकीकृत बिहार में होता रहा — परमेश, कैरव, द्विज, दिनकर, बेनीपुरी, पंकज, रेणु आदि ने प्रदेश के हिन्दी साहित्य को उच्चतम शिखर तक पहुंचाया, लेकिन यहां भी संताल परगना हत्‌भाग्य और उपेक्षित ही रहा। दिनकर, बेनीपुरी, रेणु आदि का नाम तो बृहत्तर हिन्दी-जगत में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया, लेकिन संताल परगना के साहित्याकाश के महान नक्षत्र — परमेश, कैरव, पंकज और न जाने कितने प्रतिभाशील लेखक, कवि अपने जीवन-काल में अपनी असाधारण भूमिका निभाने के बावजूद विस्मृति की तमिश्रा में ढकेल दिये गये।



पं० जनार्दन मिश्र ’परमेश’ का नाम संताल परगना की साहित्यिक परंपरा में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। परमेश अर्थात्‌ वह व्यक्तित्व जिसने साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम चलाई। ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली में रचित जिनकी सैकड़ों कविताओं ने जिन्हें अपने युग के सर्वाधिक प्रतिभाशाली और विलक्षण कवि की ख्याति दिलाई थी, वह परमेश आज उपेक्षा के कारण गुमनामी में विलीन हो चुके है।



परमेश के साहित्यिक शिष्य और अनुज-तुल्य पं० बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ का भी यही हश्र हुआ। हिन्दी जगत में कैरव जी की “साहित्य साधना” ने समीक्षा एक नयी ’पृष्ठभूमि’ तैयार की, लेकिन इसके बावजूद आज कैरव कहां है? साहित्यिक परिदृश्य में कैरव का नामलेवा कौन है?



आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’– परमेश और कैरव– दोनों के शिष्य ही नहीं योग्यतम उत्तराधिकारी भी थे। परमेश, कैरव और पंकज की बृहत्त्र्यी के जो यशस्वी तृतीय स्तंभ थे, के साथ तो और भी अधिक अन्याय हुआ। संताल परगना में साहित्य-सृजन के संस्कार को एक आंदोलन का रूप देकर नगर-नगर गांव-गांव की हर डगर पर ले जाने वाली ऐतिहासिक-साहित्यिक संस्था, पंकज-गोष्ठी के प्रेरणा-पुंज और संस्थापक सभापति पंकज जी ने इतिहास जरूर रचा, परन्तु हिन्दी जगत ने उन्हें भुलाने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लोक-स्मृति का शाश्वत अंग और जनश्रुति का नायक बन चुके पंकज की भी सुधि हिन्दी-जगत के मठाधीशों ने कभी नहीं ली। लेकिन पंकज के ही शब्दों में –







रोकने से रूक सकेंगे

क्या कभी गति-मय चरण।

कब तलक है रोक सकते

सिंधु को शत आवरण।

जो क्षितिज के छोर को है

एक पग में नाप लेता।

क्षुद्र लघु प्राचीर उसको

भला कैसे बांध सकता।

अस्तु, इतिहास रचने वाले, संताल परगना के लोक-जीवन में अमर हो जाने वाले पंकज जी के कुछ ऐसे पहलूओं को उद्‍घाटित करना इस लेख का अभीष्ट है, जिनसे हम सब प्रेरणा प्राप्त करते रहते है।



संताल परगना मुख्यालय दुमका से करीब 65 किलोमीटर पश्चिम देवघर जिलान्तर्गत सारठ प्रखंड के खैरबनी ग्राम में 30 जून 1919 को ठाकुर वसंत कुमार झा और मालिक देवी की तृतीय संतान के रूप में ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जन्म हुआ था। पंकज जी के जन्म के समय उनका ऐतिहासिक घाटवाली घराना — खैरबनी ईस्टेट विपन्न और बदहाल हो चुका था। साहुकारों के कर्ज के बोझ तले कराहते इस घाटवाली घरानें में उत्पन्न पंकज ने सिर्फ स्वयं के बल पर न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि अपने घराने को भी विपन्नता से मुक्त किया। परिवार का खोया स्वाभिमान वापस किया। लेकिन वह यहीं आकर रूकने वाले नहीं थे। उन्हें तो सम्पूर्ण जनपद को नयी पहचान देनी थी, संताल परगना को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना था। इसलिये कर्मयोगी पंकज प्रत्येक प्रकार की बाधाओं को लांघते हुए अपना काम करते चले गये। उन्होंने बंजर मिट्टी को छुआ तो लहलाते खेत उग आये, लोहे को हाथ लगाया तो सोना बन गया। लेकिन उनकी यह यात्रा नितान्त अकेली यात्रा थी। ’एकला चलो र’ के अनुगामी पंकज समाज और परिवार के सहारे के बिना ही अपने कर्म-पथ पर चल पड़ा था। इनका मूल मंत्र बना था “न दैन्यम्‌ न पलायनम्‌”।



अध्यवसायी विद्यार्थी के रूप में ये हिन्दी विद्यापीठ, देवघर पहुंचे। वहां द्विज, परमेश और कैरव जैसे आचार्य के सान्निध्य में इनमें साहित्य साधना और राष्ट्रीयता की भावना का बीजारोपण हुआ। महात्मा गांधी की ऐतिहासिक देवघर यात्रा के समय स्वयंसेवी छात्र के रूप में इन्हें गांधी जी की सेवा और सान्निध्य का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ, जिसने इनकी जीवनधारा ही बदल दी। ये आजीवन गांधी जी के मूल्यों के संवाहक बन गये। जीवन-पर्यन्त खादी धारण किया और अंतिम सांस लेने के दिवस तक “रघुपति राघव राजा राम” प्रार्थना का सुबह और सायं गायन किया। “प्रभु मेरे अवगुण चित्त ना धरो”, इनका दूसरा सर्वप्रिय भजन था जिसे ये तन्मय होकर प्रतिदिन प्रात: एवं सन्ध्‍याकाल में गाते थे। किस कदर इन्होंने गांधी के मूल मंत्र को आत्मसात कर लिया था!



1942 में गांधी जी ने करो या मरो का मंत्र दिया। बस फिर क्या था? पहाड़िया विद्रोह, सन्यासी विद्रोह और संताल विद्रोह की भूमि संताल परगना में सखाराम देवोस्कर के शिष्यत्व में अरविंद घोष और वारिंद्र घोष की क्रांतिकारी विरासत तो थी ही, अमर-शहीद शशिभूषण राय, राम राज जेजवाड़े, पं० विनोदानंद झा समेत अनगिनत क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता संग्राम की मशाल थाम रखी थी। इसी विरासत को आगे बढा़ते हुए 1942 के “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन में प्रफुल्ल पटनायक समेत कई क्रांतिकारियों के साथ-साथ युवा पंकज ने भी हुंकार भरी और इनके साथ चल पड़ा देवघर शहीद आश्रम छात्रावास के इनके शिष्यों की बानरी सेना। इनका खैरबनी का पैतृक घर गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बन गया। क्रातिकारी गतिविधियों में भागीदारी के साथ-साथ इस साधनहीन साहसी ने लघुनाटकों को रचकर– उनका मंचन कराया, गीतों को लिखकर उसके सस्वर गायन से लोगों के अंदर छुपे हुए आक्रोश को अभिव्यक्ति दी और फिर क्रांति का तराना घर-घर में गूंजने लगा। सोई पड़ी अलसाई पीढ़ी में स्वाभिमान की अलख जगाई और प्रचंड उद्‍घोष किया –







मत कहो कि तुम दुर्बल हो

मत कहो कि तुम निर्बल हो

तुम में अजेय पौरूष है

तुम काल-जयी अभिमानी।

इस हुंकार में दंभ नहीं, सिर्फ आत्माभिमान भरा था, क्योंकि पौरूष की उद्दंडता भी उन्हें सह्य नहीं थी, इसिलिये तो उन्होंने साफ-साफ घोषणा की थी — –







हैं एक हाथ में सुधा-कलश

दूसरा लिये है हालाहल।

मैं समदरसी देता जग को

कर्मों का अमृत औ विषफल॥



उनके इसी पूर्णतावादी और संतुलित दर्शन ने उन्हें इतिहास का नायक बना दिया।



15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। अब देश के नव-निर्माण का सपना अपने युग के अन्य क्रांतिकारियों की तरह युवा पंकज ने भी देखा था जो इन पंक्तियों में प्रतिबिंबित हुआ है — –







जागरण-प्रात यह दिव्य अवदात बंधु,

प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो

दूर हो भेद-भाव कूट नीति-कलह-तम

द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो,

नूतन तन, नूतन मन, नव जीवन छाने दो,

ढल रही मोह-निशा मित्र, ढल जाने दो।

रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित हो

प्रभा-पूर्णज्योतिर्मय नव विहान आने दो।

परन्तु, अंग्रेजों की लंबी गुलामी के दौर में भारतीय उदात्त चरित्र के कुम्हला जाने के अवशेष शीघ्र सामाजिक चरित्र में प्रदर्शित होने लगे। जोड़-तोड़, राजनीति, सत्ता तक पहूंचने के लिये नैतिकता की तिलांजलि, चाटुकारिता और स्वाभिमान को गिरवी रखने की होड़ शुरू हो गयी। घात-प्रतिघात का दौर चल पड़ा। इन सब से इस दार्शनिक क्रांतिकारी कवि का हृदय व्यथित भी हुआ — –







बहुत है दर्द होता हृदय में साथी!

कि जब नित देखता हूं सामने –

कौड़ियों के मोल पर सम्मान बिकता है –

कौड़ियों के मोल पर इन्सान बिकता है!

किन्तु, कितनी बेखबर यह हो गयी दुनियां

कि इस पर आज भी परदा दिये जाती!

लेकिन इतनी आसानी से पंकज जी की उद्दाम आशा मुरझाने वाली नहीं थी, क्योंकि — –







छोड़ दी जिसने तरी मँझ-धार में

क्यों डरे वह तट मिले या ना मिले!

चल चुका जो विहँस कर तूफान में

क्यों डरे वह पथ मिले या ना मिले।

है कठिन पाना नहीं मंजिल, मगर

मुस्कुराते पंथ तय करना कठिन!

रोंद कर चलना वरन होता सरल

कंटकों को चुमना पर है कठिन।

1954 में पंकज जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। दुमका में संताल परगना महाविद्यालय की स्थापना हुई और पंकज जी वहां के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में संस्थापक शिक्षक बने। नियुक्ति हेतु आम साक्षात्कार की प्रक्रिया से अलग हटकर पंकज जी का साक्षात्कार हुआ। यह भी एक इतिहास है। पंकज जी जैसे धुरंधर स्थापित विद्वान का साक्षात्कार नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच व्याख्यान हुआ और पंकज जी के भाषण से विमुग्ध विद्वत्‌ समुदाय के साथ-साथ आम लोगों ने पंकज जी की महाविद्यालय में नियुक्ति को सहमति दी। टेलीविजन के विभिन्न कार्यक्रमों (रियलिटि शो आदि) में आज हम कलाकारों की तरफ से आम जनता को वोट के लिये अपील करता हुआ पाते है और जनता के वोट से निर्णय होता है। लेकिन आज से 55 साल पहले भी इस तरह का सीधा प्रयोग देश के अति पिछड़े संताल परगना मुख्यालय दुमका में हुआ था और पंकज जी उसके केन्द्र-बिन्दु थे। है कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र? ऐसा लगता है कि नियति ने पंकज जी को इतिहास बनाने के लिये ही भेजा था, इसलिये उनसे संबंधित हर घटना ऐतिहासिक हो गयी है। राजधानी दिल्ली व अन्य जगहों में बैठे हुए बुद्धिजीवियों और समालोचकों को इस बात से कितना रोमांच होगा या इसे वे कितना महत्व देंगे, यह मैं नहीं जानता, लेकिन इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह दुमका के सैकड़ों प्रबुद्ध नागरिक आज भी जीवित है, जिनकी स्मृति में ये दंतकथा के अमर नायक बन चुके हैं। संताल परगना महाविद्यालय ही नहीं यह पूरा अंचल इस बात का गवाह हैं कि आजतक पुन: कोई दूसरा पंकज पैदा नहीं हुआ।



पंकज-गोष्ठी तो मानिये इस पूरे क्षेत्र के घर-घर में चर्चा का विषय थीं। आज भी 50 वर्ष की उम्र पार कर चुका कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति पंकज-गोष्ठी से संबंधित किसी न किसी प्रकार की स्मृति के साथ जीता है जो पुन: पंकज जी के अतुलनीय व्यक्तित्व का ही प्रमाण है। पंकज-गोष्ठी की स्थापना के साथ ही इस पूरे क्षेत्र में साहित्य-सर्जना के साधक मनिषियों की बाढ़ सी आ गई और कई बड़े लेखक, नाटककार तथा कवि हिन्दी साहित्य के पटल पर उभरे। “पंकज” शब्द अब “व्यक्ति-बोधक” मात्र न रहकर “संस्था-बोधक” बन गया और पंकज जी तथा पंकज-गोष्ठी एक-दूसरे में विलीन हो गये। इसका मूल्यांकन भी पंकज जी जैसे सहृदय साधक-साहित्यकार ही कर सकते है।



एक और रोमांचक घटना, जिसका चश्मदीद गवाह इस लेख का लेखक भी है, को हिन्दी जगत के सामने लाना चाहता हूं। बात 68-69 के किसी वर्ष की है– ठीक से वर्ष याद नहीं आ रहा। दुमका में कलेक्टरेट क्लब द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में रवीन्द्र साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ० हंस कुमार तिवारी मुख्य अतिथि थे। संगोष्ठी की अध्यक्षता पंकज जी कर रहे थे। कवीन्द्र रवीन्द्र से संबंधित डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को उपस्थित विद्वत्‌ समुदाय ने धैर्यपूर्वक सुना। संभाषण समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर का दौर चला। इसमें भी तिवारी जी ने प्रेमपूर्वक श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि संताल परगना बंगाल से सटा हुआ है और बंगला यहां के बड़े क्षेत्र में बोली जाती है। इसलिये बंगला साहित्य के प्रति यहां के निवासियों में अभिरूचि जन्मजात है। चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, बामा खेपा, पगला बाबा, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर तथा शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय समेत सैकड़ों महानुभावों को इस क्षेत्र के लोग उसी तरह से अपना मानते है जैसे बंगाल के लोग। यहां के महान भक्त-कवि भवप्रीतानंद ओझा की सारी रचनाएं बंगला में ही है। अत: यहां के विद्वत्‌ समुदाय ने तिवारी जी पर रवीन्द्र-साहित्य से संबंधित प्रश्नों की बौछार की थी, जिनका यथासंभव उत्तर प्रेम और आदर के साथ तिवारी जी ने दिया था। इसके बाद अध्यक्षीय भाषण शुरू हुआ, जिसमें पंकज जी ने बड़ी विनम्रता, परंतु दृढ़तापूर्वक रवीन्द्र साहित्य से धाराप्रवाह उद्धरण-दर-उद्धरण देकर अपनी सम्मोहक और ओजमयी भाषा में डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को नकारते हुए अपनी नवीन प्रस्थापना प्रस्तुत की। पंकज जी के इस सम्मोहक, परंतु गंभीर अध्ययन को प्रदर्शित करने वाले भाषण से उपस्थित विद्वत्‌ समाज तो मंत्रमुग्ध और विस्मृत था ही, स्वयं डॉ० तिवारी भी अचंभित और भावविभोर थे। पंकज जी के संभाषण की समाप्ति के बाद अभिभूत डॉ० तिवारी ने दुमका की उस संगोष्ठी में सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि रवीन्द्र-साहित्य का उस युग का सबसे गूढ़ और महान अध्येता पंकज जी ही है। इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह मेरे अतिरिक्त सैकड़ों लोग आज भी दुमका शहर में मौजूद है। ऐसे व्यक्तित्व और प्रतिभा के मालिक पंकज जी अगर दंत-कथाओं के नायक बनते चले गये तो इसमें आश्चर्य किस बात का!



ये दो प्रकरण पंकज जी की प्रकांड विद्वत्ता और असाधाराण ज्ञान की झलक प्रस्तुत करने के दो छोटे-छोटे प्रसंग मात्र है। लेकिन अगर पंकज जी मात्र विद्वान ही होते तो शायद महान नहीं होते। वे तो गांधी के स़च्चे शिष्य के रूप में ’श्रम’ की गरिमा को सर्वाधिक महत्व देने वाले सच्चे कर्म-योगी थे। शारिरिक श्रम का अद्‌भुत उदाहरण भी उन्होंने अपने कर्म-शंकुल जीवन में पेश किया है। इस क्षेत्र के लोग आमतौर पर पंकज जी के जीवन के उस दौर की कहानी से परिचित तो है ही जब उन्होंने आजीविका हेतु अपनी किशोरावस्था में अखबार बांटने वाले हॉकर का भी काम किया था। बल्कि एक बार तो “चार आने” की पगार हेतु वे म्युनिसिपैलिटी में झाड़ू लगाने की नौकरी के लिये भी अभ्यर्थी बने थे, यह बात अलग है कि जन्मना ब्राह्मण होने के चलते उन्हें यह नौकरी नहीं मिली थी। जरा दिमाग पर जोर डालिये। 1930 के दशक की यह बात है। बैद्यनाथधाम देवघर, कर्मकांडी ब्राह्मणों और पंडों का गढ़। वहां कुलीन मैथिल ब्राह्मण, ऐतिहासिक घाटवाल घराने का बालक अगर ऐसा क्रांतिकारी व्यक्तित्व का विकास कर रहा हो तो निश्चय ही यह असाधाराण बात थी। संभवत: गांधी के साहचर्य और सेवा ने उन्हें अंदर से एकदम बदल दिया होगा, तभी तो तत्कालीन कट्टरपंथी सामाजिक दौर में भी उन्होंने ऐसा आत्मबल दिखाया था, जिसमें शारिरिक श्रम की गरिमा की प्रतिष्ठापना की सुगंध थी।



शारिरिक श्रम की गरिमा को उच्च धरातल पर स्थापित करने का एक अन्य सुन्दर उदाहारण पंकज जी ने पेश किया है। 1968 में उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) हो गया। उन दिनों मधुमेह बहुत बड़ी बीमारी थी। गिने-चुने लोग ही इस बीमारी से लड़कर जीवन-रक्षा करने में सफल हो पाते थे। चिकित्सक ने पंकज जी को एक रामवाण दिया — अधिक से अधिक पसीना बहाओ। फिर क्या था! पंकज जी ने वह कर दिखाया, जिसका दूसरा उदाहरण साहित्यकारों की पूरी विरादरी में शायद अन्यत्र है ही नहीं। संताल परगना की सख्त, पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन। पंकज जी ने कुदाल उठाई और इस पथरीली जमीन को खोदना शुरु कर दिया। छ: महीने तक पत्थरों को तोड़ते रहें, बंजर मिट्टी काटते रहे और देखते ही देखते पथरीली ऊबड़-खाबड़ परती बंजर जमीन पर दो बीघे का खेत बना डाला। हां, पंकज जी ने– अकेले पंकज जी ने कुदाल-फावड़े को अपने हाथों से चलाकर, पत्थर काटकर दो बीघे का खेत बना डाला। खैरबनी गांव में उनके द्वारा बनाया गया यह खेत आज भी पंकज जी की अदम्य जीजीविषा और अतुलनीय पराक्रम की गाथा सुना रहा है। क्या किसी और साहित्यकार या विद्वान ने इस तरह के पराक्रम का परिचय दिया है?



पिछले दिनों अदम्य पराक्रम का अद्‍भुत उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी ने तब रखा जब उन्होंने अकेले पहाड़ काटकर राजमार्ग बना दिया। आदिवासी दशरथ मांझी तक पंकज जी की कहानी पहुंची थी या नहीं हमें यह नहीं मालूम, परन्तु हम इतना जरूर जानते है कि पंकज जी या दशरथ मांझी जैसे महावीरों ने ही मानव जाति को सतत प्रगति-पथ पर अग्रसर किया है। युगों-युगों तक ऐसे महामानव हम सब की प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे। क्या उनकी इन पंक्तियों में भी इसी पराक्रम का संकेत नहीं मिलता है :–





बंधु लौह वह बन जा जिससे

भिड़कर चट्टानें भी टूटें

मरु में भी जीवन-मय निर्झर

तेरे चरण--चिन्ह से फूटें

कर्तव्य-परायणता और पंकज जी एक दूसरे के पर्याय थे। इसकी भी एक झलक प्रस्तुत करना चाहता हूं। बात उन दिनों की है जब पंकज जी बामनगामा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक थे। अपने गांव से ही आना जाना करते थे। दोनों गांवों के बीच अजय नदी है। उन दिनों अजय नदी पर पुल नहीं था। परिणामत: बरसात के मौसम में नदी के दोनों किनारे के गांव एकदम अलग-अलग हो जाते थे। सम्पर्क से पूरी तरह कट जाते थे। पहाड़ी नदियों की बाढ़ की भयावहता तो सर्वविदित ही है। उसमें भी अजय नदी के बाढ़ की विकरालता तो गांव के गांव उजाड़ देती थी। जान-माल की कौन कहें, सैकड़ों मवेशी तक बह जाते थे। लेकिन वाह री पंकज जी की कर्तव्यनिष्ठा — बारिश के महिने में विनाशलीला का पर्याय बन चुकी अजय नदी को तैरकर अध्यापन हेतु पंकज जी स्कूल आते-जाते थे। एक बर्ष ऐसी भयंकर बाढ़ आयी कि मवेशी तक बहने लगे। जिस बाढ़ ने भैस जैसी मवेशी को बहा लिया उस बाढ़ को पंकज जी ने हरा दिया। स्कूल से लौटते वक्त उन्होंने उफनती नदी में छलांग लगाई और तैरते हुए वे भैस तक पहुंच गये। भैस की पुंछ पकड़ी और अपने साथ भैस को भी बाढ़ से बाहर निकाल दिया। भैस लेकर घर चले आये। इस अद्‌भुत प्रसंग का सहभागी बनने और उस भैस को देखने हेतु आस-पास के कई गांवों के सैकड़ों लोग पंकज जी के घर पहुंच गये। उनकी बहादुरी और जानवरों के प्रति करुणा की कहानी को सुनकर सबों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। लेकिन पंकज जी के लिये तो यह रोजमर्रा का काम था। वे नदी के किनारे पहुंचकर एक लंगोट धारण किये हुए, बाकि सभी कपड़ों को एक हाथ में उठाकर, पानी से बचाते हुए, दूसरे हाथ से तैरकर नदी को पार करते थे। कुचालें मारती हुई अजय नदी की बाढ़ एक हाथ से तैरकर पार करने वाला यह अद्‍भुत व्यक्ति अध्यापन हेतु बिला-नागा स्कूल पहुंचता था। क्या कहेंगे इसे आप! शिष्यों के प्रति जिम्मेदारी, कर्तव्य परायणता या जीवन मूल्यों की ईमानदारी। “गोविन्द के पहले गुरु” की वन्दना करने की संस्कृति अगर हमारे देश में थी तो निश्चय ही पंकज जी जैसे गुरुओं के कारण ही। ऐसी बेमिसाल कर्तव्यपरायणता, साहस और खतरों से खेलने वाले व्यक्तित्व ने ही पंकज जी को महान बनाया था, जिनकी गाथाओं के स्मरण मात्र से रोमांच होने लगता है, तन-बदन में सिहरन की झुरझुरी दौड़ने लगती है।



पंकज जी एक तरफ तो खुली किताब थे, शिशु की तरह निर्मल उनका हृदय था, जिसे कोई भी पढ़, देख और महसूस कर सकता था। दूसरी तरफ उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था और उनका कर्म-शंकुल जीवन इतना परिघटनापूर्ण था कि वे अनबूझ पहेली और रहस्य भी थे। निरंतर आपदाओं को चुनौती देकर संघर्षरत रहनेवाले पंकज जी के जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं जिसे आज का तर्किक मन स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन उनसे भी पंकज जी के अनूठे व्यक्तित्व की झलक मिलती है। 1946-47 की घटना है, पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ समेत कई विद्यालयों में पढा़ते हुए 1945 में मैट्रिक पास करते है। तदुपरांत इंटरमीडिएट की पढा़ई के लिये टी० एन० जे० कॉलेज, भागलपुर में दाखिला लेते है। रहने की समस्या आती है। छात्रावास का खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने शिक्षक ’परमेश’ की पंक्तियों से प्रेरणा मिलती है — –







गुलगुले पर्यंक पर हम लेट क्या सुख पाएंगे

भूमि पर कुश की चटाई को बिछा सो जाएंगे।

एक छोटी सी दियरी से जब रोशनी का काम हो

क्या करेंगे लैम्प ले जब एक ही परिणाम हो।

पंकज जी उहापोह की स्थिति से उबरते हुए विश्वविद्यालय के पीछे टी एन बी कालेज और परवत्ती के बीच स्थित पुराने ईसाई कब्रिस्तान की एक झोपड़ी में पहुंचते है। वहां एक बूढ़ा चौकीदार मिलता है। उस वीराने में अकेला मनुष्य। चारों ओर कब्र ही कब्र। भांति-भांति के कब्र। मिट्टी के कब्र, सीमेंट के कब्र, पत्थर के कब्र और संगमरमर के कब्र, बड़ी कब्र और छोटी कब्र भी। कब्रों के नीचे दफन लाश। वहां अकेला चौकीदार। पंकज जी और चौकीदार में बातें होती है और पंकज जी को उस कब्रिस्तान में आश्रय मिल जाता है…. दिन भर की जद्दोजहद के बाद रात गुजाराने का आश्रय। पहली रात है — अंदर से मन में भय का कंपन्न होता है, लेकिन चौकीदार की उपस्थिति से मन आश्वस्त होता है और मुर्दों के बीच पंकज जी की रात गुजर जाती है। सुबह की लाली रात की भयावहता को परे ढकेल देती है। फिर दिनभर की भागदौड़ और रात्रि विश्राम हेतु बूढ़े चौकीदार की वही झोपड़ी। लेकिन यह क्या आज चौकीदार नहीं दिख रहा। शायद कहीं गया होगा, सोचकर पंकज जी सो जाते है। रातभर गहरी नींद में रहते है, दिन भर फिर अपनी दैनिकी में व्यस्त। रात फिर उसी झोपड़ी में कटती है, लेकिन चौकीदार कहीं नहीं है। कहां गया वह चौकीदार? क्या वह सचमुच चौकीदार था या कोई भूत जिसने पंकज जी को उस परदेश में आश्रय दिया था? लोगों का मानना है कि वह भूत था ; सच चाहे कुछ भी हो लेकिन कब्रिस्तान में अकेले रहकर पढाई करने का कोई उदाहरण और भी है क्या?



1954 में पंकज जी दुमका आ जाते है। उनके चाहने वाले उन्हें अपने साथ रखते है, लेकिन पंकज जी किसी के घर अधिक दिनों तक रहना नहीं चाहते। अकेले उस छोटे से शहर में मकान ढूंढने लगते है। उस समय का दुमका आज का दुमका नहीं है। गांधी मैदान, बगल में लगने वाली साप्ताहिक हाट और जिला परिषद कार्यालय से टीनबाजार तक जाती हुई कोलतार की पतली सड़क। सड़क के इर्द-गिर्द चाय पान और रोजमर्रा के काम की दो-चार दुकाने। बीच में दुमका बस-स्टैंड — बस यहीं था दुमका। अंग्रेजों ने शहर से दूर रहने के लिये कुछ कोठियां बनवाई थी, जो खाली पड़ी हुई थी। कोठियों के आस-पास बस ड्राईवर और मजदूरों ने अड्डा जमा रखा था। खूंटा बांध के पीछे की एक कोठी पंकज जी को पसंद आ गई। लोगों का मानना था कि वहां भूत रहते थे। कहा तो यहां तक जाता था कि भूतों के डर से अंग्रेजी फौज भी वहां से भागकर चली गयी थी। लेकिन धुन के धनी पंकज जी को भला भूतों से क्या डर था। पहले भी तो वे भूतों के साथ भागलपुर में रह ही चुके थे। अत: पंकज जी ने उस भुताहा कोठी को ही अपना आवास बना लिया। लोगों का कहना हैं कि भूत ने पंकज जी को परेशान करना शुरू कर दिया। पवित्र चरित्र और वजनदार आसन के कारण भूत ने इन्हें कभी प्रत्यक्ष दर्शन तो नहीं दिया, परन्तु कभी खुन, तो कभी हड्डियों को बिखेरकर इनकों डराने की कोशिश की। भूतों के इस उत्पात को पंकज जी ने चुनौती के रूप में लिया और आंगन में खड़े अनार का पेड़, जिसपर भूत का बसेरा माना जाता था को कटवाने का निश्चय कर लिया। मजदूरों को पेड़ काटने का आदेश दिया, परंतु किसी मजदूर ने हिम्मत नहीं दिखाई। अंत में खुद ही पेड़ काटने का निश्चय करके पंकज जी ने टीनबाजार से एक कुल्हाड़ी खरीदी। भूत परेशान हो गया और रात में कातर होकर पंकज जी के सामने गिड़गिड़ाने लगा कि मेरा बसेरा मत उजाड़ो। पंकज जी ने भी कहा कि मुझे तंग करना छोड़ दो। दोनों में समझौता हुआ कि जबतक अन्यत्र कोई अच्छी जगह नहीं मिल जाती, पंकज जी वहीं रहेंगे। जगह मिलते ही कोठी छोड़ देंगे। तबतक उन्हें तंग नहीं किया जाएगा। बदले में पंकज जी को भी अनार का पेड़ नहीं काटने का आश्वासन देना पड़ा। और इस तरह पंकज जी और भूत मित्र हो गये, एक-दूसरे के सहवासी हो गये। पंकज जी ने भूत के कार्यों में खलल नहीं डाली और भूत ने पंकज जी को अनजानी जगह में एक बार फिर पांव पसारने में मदद की। पंकज जी की भूत के साथ मित्रता की ये दो कहानियां भी जमाने के लिये उदाहरण बन गयी। लोगों ने पढा-सुना था कि लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास को भूत ने सफलता दिलाई थी, यहां भी लोगों ने जाना सुना कि पंकज जी दूसरे लोकनायक थे, जिनकी बहुविध सफलता में भूतों की भी थोड़ी भूमिका थी।



पंकज जी के व्यक्तित्व के साथ इतनी परिघटनाएं गुम्फित है कि पंकज जी का व्यक्तित्व रहस्यमय लगने लगता है। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के हर पहलू में चमत्कार ही चमत्कार बसा हुआ है। इन्हीं कथानकों ने पंकज जी की अक्षय कीर्ति को “ज्यों-ज्यों बूढ़े स्याम-रंग” की तर्ज पर अधिकाधिक ’उज्वल’ बना दिया है। इसलिये पंकज जी को कवि, एकांकीकार, समीक्षक, नाटककार, रंगकर्मी, संगठनकर्ता, स्वाधीनता सेनानी जैसे अलग-अलग खांचों में डालकर– उनका सम्यक्‌ मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं। इसीलिये तो 30 जून 2009 में दुमका में सम्पन्न “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज 90वीं जयन्ती समारोह” में जहां डॉ० प्रमोदिनी हांसदा उन्हें वीर सिद्दो-कान्हों की परंपरा में संताल परगना का महान सपूत घोषित करती हैं, वहीं प्रो० सत्यधन मिश्र जैसे वयोवृद्ध शिक्षाविद्‌ पंकज जी को महामानव मान लेते है। एक ओर जहां आर. के. नीरद जैसे साहित्यकार-पत्रकार पंकज जी को “स्वयं में संस्थागत स्वरूप थे पंकज” कहकर विश्लेषित करते है, वहीं दूसरी ओर राजकुमार हिम्मतसिंहका जैसे विचारक-लेखक पंकज जी को महान संत-साहित्यकार की उपाधि से विभूषित करते है, लेकिन फिर भी पंकज जी का वर्णन पूरा नहीं हो पाता। ऐसा क्यों है? वास्तव में पंकज जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अलौकिक चमत्कार का सम्मोहन था, मानो पंकज जी वशीकरण के सिद्ध पुरूष हो। जिन्होंने भी उन्हें देखा, पंकज जी उनकी आंखों में सदा-सर्वदा के लिये बस गये। जिन्होंने भी उन्हें सुना, वे आजीवन पंकज जी के मुरीद बन गये। लंबा और डील-डौल युक्त कद-काठी, तना हुआ सीना, अधगंजे सिर के नीचे दमकता हुआ ललाट…फ़िर घने भ्रूरेखों से आच्छादित करूणामय नेह-पूरित सरस नेत्र-द्वय… नासिका के ठीक नीचे चिरहासमय अधरोष्ठ… दैदीप्यमान मुखमंडल… रेखाओं से भरा ग्रीवाक्षेत्र और फिर खादी का स्वेत धोती-कुर्ता का परिधान… पांव में बाटा की चप्पल और इन सबके पीछे छिपा कठोर साधना, दृढ़ सिद्धांत, सुस्पष्ट जीवन-दर्शन तथा अतुलनीय चरित्र के स्वामी पंकज जी का प्रखर व्यक्तित्व।परन्तु, वास्तव में महामानव दिखने वाले पंकज जी भी हाड़-मांस के पुतले में ही थे।



इस लेख में पंकज जी के जीवन से सम्बन्धित सच्ची घटनाओं के आधार पर ही उनका रेखा-चित्र खींचने का प्रयास किया गया है। इसमें कुछ ऐसे प्रसंग भी है, विशेष कर भूतों से इनकी मित्रता के प्रसंग, जिन्हें 21वीं सदी का तार्किक मन सहज ही स्वीकार नहीं कर सकता है। लेकिन लोग इन विवरणों के आधार पर चाहे जो भी निष्कर्ष निकाले, मेरे जैसे लोगों के लिये तो यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि इस बात की पड़ताल हो कि पंकज जी का व्यक्तित्व आखिर क्या था? क्या था समाज को पंकज जी का योगदान? क्या है उनका इतिहास में स्थान? क्यों उनके आस-पास इतनी कहानियां गढ़ी गयी है? आखिर उनके चमत्कार का रहस्य दिनों-दिन क्यों गहराते जा रहा है और वे अनुश्रुति तथा दंतकथाओं में समाते जा रहे है? क्या उपेक्षा के पत्थर तले दबाए गये संताल परगना की विभूतियों का वृतांत्त सिर्फ कथानकों और जनश्रुतियों में ही उलझा रहेगा या इतिहास और साहित्य के विद्यार्थी की शोधपूर्ण दृष्टि इन महानुभावों पर भी पड़ेगी और रहस्य के आवरण से बाहर निकालकर इनका सम्यक्‌ मूल्यांकन होगा? महेश नारायण से लेकर पंकज जी तक की तीन पीढ़ियों के महान रचनाकारों की आत्मा आज भी ऐसे शोधार्थी और समीक्षक की प्रतिक्षा कर रही है जो इनके योगदानों को रहस्य के आवरण से मुक्त करके बृहत्तर हिन्दी जगत में इनका समुचित स्थान निरूपित कर सकें।



 

No comments:

Post a Comment