आम लोगों के धैर्य की परिक्षा लेने में सभी लगे हुए से लगते हैं-- सरकार, विपक्ष, अन्य राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी, पत्रकार, ट्रेड-यूनियन के नेतागण, छात्र-संगठनों के प्रतिनिधि, और यहाँ तक कि आर. डब्ल्यू. ए. के नेतागण भी---सब के सब. ऐसा लगता है कि अंधी सुरंग में हम सब बेतहासा दौड़ते चले जा रहे हैं, बिना आगे-पीछे देखे. सिर्फ गाल बजाने वाले, आज के सन्दर्भों में, कुछ से कुछ उलजलूल विषयों पर तथाकथित आधिकारिक रूप से की-बोर्ड पर अंगुलियाँ नचाने वाले अब बहस- मुबाहिसा में उल्लेखनीय बन रहे हैं. "उष्ट्रानाम विवाहेषु, गर्धवाः गीत गायकाः , परस्परं प्रशिस्यन्ति, अहो रूपं अहो ध्वनि". इस दौर में किसने कितना जलाया खुद को संघर्षों की आग में, कितना तप किया है किसी मुद्दे पर जबान खोलने के पहले, अगर इन तथ्यों की पड़ताल करें तो यहाँ अधिकतर विद्वान् नेटवर्किंग और चापलूसी की ही उपज साबित होंगे. कभी जाति के नाम पर, तो कभी क्षेत्र के नाम पर. कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी निजी सेवा-भक्ति के नाम पर, लोग अपना-अपना जुगाड़ मात्र बैठाते आये हैं. यह भयावह स्थिति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को लीलती जा रही है. लोहिया जी द्वारा प्रयुक्त "छद्म-बुद्धिवीवी" शब्द शायद पहले कभी इतना प्रासंगिक नहीं था, जितना आज हो गया है. हर जगह छद्म ही छद्म. और इस छलिया परिवेश में रहते हुए भी कुछ न कुछ सार्थक करना होगा, बिना आलोचना-प्रत्यालोचना की विशेष परवाह किये हुए. तभी कुछ सार्थक होगा. जरूर कुछ सार्थक होगा. वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी...........
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