Tuesday, March 6, 2018

'निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी समाय'-- प्रिय और अभिन्न मित्र डॉ विक्रम सिंह तथा खुद के रिश्तों पर यह उक्ति एकदम सटीक बैठ रही है, इस संशोधन के साथ कि डॉ विक्रम सिंह मेरे निंदक तो हरगिज नहीं हैं, बल्कि मेरे व्यक्तित्व के कई पहलुओं के घनघोर समर्थक और सहयोगी हैं। यह तो हम सब जानते ही हैं कि डॉ विक्रम सिंह जी एक सुप्रतिष्ठित कथाकार के साथ ही ख्यातिलब्ध विद्वान समीक्षक और समालोचक भी हैं। वे मेरे भी कविताओं और ग़ज़लों के पाठक (अभी किसी गोष्ठी में उन्हें सुनाने का अवसर नहीं मिला इसलिए श्रोता नहीं कह सकता) हैं। परंतु निजी मित्र होने के वावजूद वे मेरी ग़ज़लों के कुछ प्रमुख कटु आलोचकों में से एक हैं। इस कारण वे मेरे लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
हाल-हाल की मेरी एक ग़ज़ल पर उनके द्वारा व्यक्त की गई तीखी प्रतिक्रिया ने मुझे उस ग़ज़ल में कुछ संशोधन करने को विवश / प्रेरित किया। पता नहीं बदले हुए रूप में अब वह ग़ज़ल उन्हें या अन्य आलोचकों को पसंद आती है या नहीं, परंतु कुछ संसोधनों के साथ वही ग़ज़ल फिर पोस्ट कर रहा हूँ। आप सभी दोस्तों से गुजारिश है कि कृपया तव्वजो फरमाएँ:
(बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 )
फूल ही फूल हैं कब खिले
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
फूल ही फूल हैं कब खिले
दिल लुटे प्यार में जब मिले।
पूछ लूँ वक्त से जों रुके
वक़्त से ही हमें हैं गिले।
अश्क जो बह रहे रात भर
भोर तक वे कुमुद बन खिले।
रूठकर वह गया, प्यार था
और सब बेफ़िकर ही मिले।
शुक्र है कुछ हवा तो चली
सूखती शाख से मन मिले।
आज तुम मत रहो चुप "अमर"
हिल रहे होठ थे जो सिले।

2 comments:

  1. Hello, I enjoy reading through your post. I wanted to write a little comment to support you.

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  2. It doesn't matter whether the comment comes in the form of support or criticism. Commenting upon on any write up in itself is a big support. So you and for that matter all are welcome to write comments dear. Must comment but with your name and identity please. Thanks.

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