अन्ना हजारे और रामदेव द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए अभियान के तहत हजारों लोगों के गोलबंद होने से भारतीय बौद्धिक जगत भी एक तरह के अजाने भय का शिकार हुआ सा दिखता है. सरकार की तरफ से जिस तरह से इस मुद्दे को लेकर असमंजस और विरोधाभास से परिपूर्ण रवैया अपनाया गया, उसे तो हम समझ सकते हैं, क्योंकि कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान जनतांत्रिक आंदोलन से ’गोलबंद हुई भीड़’ की अनदेखी नहीं कर सकता है और न ही उनके लिये इस ’गोलबंद भीड़’ द्वारा उठाये गये सवालों से टकराना आसान होता है. इसी लिये भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों की तपिस ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, अनेक भ्रष्ट राजनीतिक ताकतों ने, जो हजारों-लाखों करोड़ रूपये के घोटालों के बावजूद राजनीति में अपनी महन्थी चला रहे हैं, इन आंदोलनों पर हमला शुरू कर दिया. वैसे देखा जाए तो राजनीतिक गुंडों द्वारा आंदोलनकारियों पर हमला कोई नई बात नहीं है - अजित सरकार, सफदर हाशमी, चंद्रशेखर, नियोगी, सुरेश चरण मिश्र - यह फेहरिस्त इतनी लंबी हो सकती है कि इस पर एक मुकम्मल लेख बन सकता है, जैसे बहादुर शहीद बनते रहे हैं. नयी बात यह है कि अब प्रदर्शनकारियों और सत्याग्रहियों पर रात की अंधियारी में पुलिसिया मर्दानगी दिखाई जा रही है. अन्ना के आंदोलन से भी उसी तरह से निपटने की धमकी दी जा रही है, जैसे रामदेव के आन्दोलन से निपटा गया. मुझे ’नागरिक समाज’ के घोषित सदस्यों (वैसे हम सभी नागरिक समाज के ही सदस्य हैं) की निजता की न तो अधिक जानकारी है, और न ही जानकारी रखने की जरूरत है और मेरे जैसे लोगों को यही तथ्य प्रभावित करने हेतु काफी है कि कथित नागरिक समाज ने सर्वग्रासी भ्रष्टाचार से लड़ने का अभियान छेड़ा है.
जिस दिन अन्ना ने अपना अनशन शुरू किया उसी दिन औरों की तरह मैं भी वहां पहुंचा था. वहां जे एन यू ब्रांड के लड़के-लड़कियों और अंग्रेजियत में डूबे मध्यमवर्गीय संभ्रांत औरतों-मर्दों का जमावड़ा भी था. उनकी जोशीली हरकतें ऐसी लग रही थी जो किसी पारंपरिक गांधीवादी आंदोलन में अकल्पनीय थी. मजेदार बात यह थी कि वे सभी गांधी की ही दुहाई दे रहे थे - गांधी को ही अपना आदर्श और विकल्प मान रहे थे. तो क्या यह जरूरी है कि गांधी का नाम लेने का हक उन्हें नहीं दिया जाए? अगर ओबामा गांधी का नाम लेते है तो क्या हम उनकी पोशाक को देखकर हम उन्हें खारिज कर देंगे? अगर मिस्र की भीड़ गांधीवादी तरीके को अपनाती है तो क्या हम उस भीड़ की ताकत को भी खारिज कर देंगे? फ्रांसीसी क्रांति, जिसे लोकतांत्रिक चेतना की जननी माना जाता है, क्या एक भीड़ की ताकत का ही प्रदर्शन नहीं था? वैसे अन्ना हजारे पोशाक से भी गांधीवादी ही नजर आते है, यह बात दीगर है. अन्ना हजारे तो एक सामान्य व्यक्ति हैं, फिर क्यों उनके पीछे इतनी बड़ी संख्या में तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई? क्या यह मध्यमवर्गीय रोमांटिसिज्म मात्र था? अन्ना तो अंग्रेजी बोल भी नहीं पाते हैं - एक सिपाही की तरह मन की भावनाओं को बेलाग बोल देते है, सुसंस्कृत भाषा की चासनी में लपेटे बिना.
यहीं यह भी कहना जरूरी है कि रामदेव ने क्या किया और क्या पाया - यह सबके सामने है. अगर रामदेव चालाकी न करते तो संभवत: वे इस लड़ाई को बहूत दूर तक ले जा सकते थे. अगर उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान के हाथों खेलने की नादानी न की होती तो शायद आंदोलन अब तक बड़ा रूप ले चुका होता. दरअसल रामदेव की दुविधा एक ’राज्यवादी’ की दुविधा ही थी क्योंकि कौन नहीं जानता कि रामदेव अपने योग को भुनाने के लिए कभी उन्हीं भ्रष्ट नेताओं का सहारा लेते हुए उन्हें आशिर्वाद देने उनकें दरबार में हाजिरी लगाते थे जो आज उन्हें ’पेट फुलाने वाला बाबा’ और ’कुदनी बाबा’ कहकर अपमानित कर रहे हैं. लेकिन क्या यह ’महाज्ञान’ सिर्फ मुझे ही है या वे लोग भी इसे भलीभांति जानते हैं जो उनके योग के दिवाने हैं? इसका सीधा-सादा उत्तर है कि रामदेव भले ही डिसक्रेडिट हो गये हों लेकिन योग अभी भी अपनी क्रेडिबिलिटि बनाये हुए है. रामदेव ने दूसरी भूल यह की कि योग चिकित्सा के लाभुकों को अपनी राजनीति का भी अनुगामी मान लिया. योग-शिविरों में अपने प्रवचनों में ’बहुराष्ट्रीय कंपनी बनाम स्वदेशी’ तथा काले धन की वापसी के मुद्दे को जिस धारदार तरीके से वे उठा रहे थे, उसके प्रति उनके योग-शिविर के अंदर बैठे और दूर टीवी पर सुनने वाले बहुत से प्रसंशक रामदेव को एक आंदोलनकारी भी समझने लगे थे - तभी रामदेव का गुब्बारा फट गया. रामदेव की नेतृत्व क्षमता की कमी एक्सपोज हो गयी और वे एक भीरू की तरह रात के अंधेरे में सलवार-कुर्ता पहन कर भाग निकले. वे कहते हैं कि पुलिस उन्हें मारना चाहती थी- तो क्यों उन्होंने सच्चे आंदोलनकारी की तरह अपने अनुयायियों को बचाने के लिए गोली खाने की हिम्मत नहीं दिखाई? वास्तव में राज्य इस ’राज्यवादी’ रामदेव की नेतृत्व क्षमता की सीमाओं का आकलन पहले ही कर चुका था, इसलिये उनके विरोधाभाषों को सार्वजनिक करके बड़ी चतुराई से पहले तो उन्हें डिस्क्रेडिट किया, बाद में उनके आंदोलन पर बर्बर हमला बोला. परंतु इस बर्बर हमले का नतीजा क्या रहा? समाज के सभी तबके ने इसे लोकतंत्र पर बर्बर कुठाराघात करार दिया. इससे यह भी साबित हो गया कि तमाम विश्वसनीयता के संकट के बावजूद रामदेव का आंदोलन लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत ही कर रहा था, फिर अन्ना हजारे ने तो रामदेव की गलतियों से भी सबक जरूर ली होगी और अपने आंदोलन के लिये जरूरी होमवर्क भी किया होगा.
दरअसल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मौजूदा दौर की समझ को लेकर बुद्धिजीवियों में दिख रहा संकट उनकी ’राज्य-व्यवस्था’ की समझ से उपजा हुआ संकट है. सभी लोग इस बात पर तो एकमत हैं कि व्यवस्था में कहीं न कहीं गड़बड़ जरूर है - पर कहां है और इसे कैसे ठीक किया जाए इसको लेकर सब अपनी ढपली अपना राग बजा रहे हैं. ’मेरा कुर्ता तुम्हारे कुर्ते से ज्यादा साफ’ की होड़ भी इसी की उपज है. लेकिन यह होड़ अब गला-काटू विरोध तक पहूंच चुका है और मसीजीवी अब एक-दूसरे के खून के प्यासे से दिखते हैं. जी हां, खून बहाने वाली विचारधारा का हिमायती भी खून का प्यासा ही कहा जाएगा. इधर आमलोग भूल-भुलैया में है कि किसे असली समझे? हरा, नीला, लाल, सफेद, गेरूआ- सब तो बस रंग ही है, अपने रंग की सीमाओं में कैद. वादों के गोरख-धंधेबाज दिखते है सब. गांधी, लोहिया, जय प्रकाश, अंबेडकर, मार्क्स, नेहरू, दीनदयाल उपाध्याय तथा माओ का मंत्र जपेंगे ये - ऐसा ही ये करते आए हैं अब तक, पर समस्या सुरसा के मुँह की तरह बढती ही जा रही है. तो क्या ’हनुमान’ का रूपक उत्तर बनकर आ सकता है जो ’सुरसा’ की तरह ही अपना आकार-प्रकार बढ़ाता है और मौका मिलते ही ’लघु’ रूप धारण कर अपने उद्देश्य प्राप्ति की दिशा में बढ़ जाता है. क्या अन्ना के आंदोलन में शामिल लोगों में ऐसे लोग भी नहीं थे जो रोजमर्रा के जीवन में छोटे-मोटे भ्रष्टाचार का साथ देते हैं, परंतु मौका मिलते ही उनसे भिड़ने वालों के साथ हो लेते हैं? ऐसा इसलिये है क्यों कि भ्रष्टाचार की चक्की में सभी पिस रहे होते है.
मेरे कॉलेज के एक मित्र ने बड़ा मासूम सा सवाल किया था कि क्या हम सब कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देते हैं? क्या हममें से कोई सौ-फीसदी ईमानदार है? उनकी बात को यों ही सनकी दिमाग की उपज कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है. परंतु इससे यह कतई साबित नहीं होता है कि वे भ्रष्टाचारियों की पाँत में खड़ा होना चाहते हैं. दरअसल यह उनकी मानसिक पीड़ा है जो पेशेवर रूप में बेहद ईमानदार होते हुए भी रोजमर्रा की जिन्दगी में उन्हें भ्रष्टाचार से समझौता करने को बाध्य करती है. यही आम लोगों की भी पीड़ा है. इसीलिये अन्ना आम लोगों के बीच भ्रष्टाचार विरोध के प्रतीक बन गये और हम सभी अन्ना के सहयात्री बनते चले गये, उनसे मिलकर या मिले बगैर ही.
हमारे लेखक मित्रों ने एक बुनियादी सवाल खड़ा करना चाहा है कि कौन सा खतरा वास्तविक है - भ्रष्टाचार का खतरा या सांप्रदायिकता का खतरा? क्या यह सवाल ठीक वैसा ही नहीं है जैसा कि यह कहना कि कौन ज्यादा खतरनाक है - नागनाथ या सांपनाथ? मुझे लगता है कि यह सवाल उस साम्यवादी मोहग्रस्त बौद्धिकता की उपज है, जिससे देश पिछले साठ-सत्तर सालों से घिरा हुआ है. क्या साम्यवादी चश्में से देखकर ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है? क्या सांप्रदायिकता भी एक तरह का भ्रष्टाचार नहीं है? क्या भ्रष्टाचारियों का भी नया ’राजनीतिक-नौकरशाह-ठेकेदार’ का नया मजबूत सम्प्रदाय नहीं बनता जा रहा है जिसका मंत्र लूट-खसोट और हथियार हत्या और दमन है? सत्ता के लिये भोली-भाली जनता को सांप्रदायिक खानों में बांटकर उनका दोहन करना और सत्ता के लिये ही भ्रष्टाचार को राजनीति का अनिवार्य सत्य बना देना- क्य ये दोनों मौजूदा बुनियादी सवाल नहीं हैं जिसपर हम सब को मिलकर सोचना चाहिये?
यह सच है कि राजनीति करने वाले तमाम लोग भ्रष्ट नहीं हैं तथा भ्रष्टाचार विरोध की राजनीति करने वाले लोग थोड़े ही सही, लेकिन आज भी हैं. परंतु राजनीति का दूसरा सच यह भी है कि ऐसे शुद्धतावादी ’राजनीतिक भ्रष्टाचार’ के विरोध में अभी तक कोई बड़ा आंदोलन, देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने में सक्षम नहीं हुए हैं. इसके विपरित तमाम राजनीतिक दलों में, कुछ अपवादों को छोड़कर, ऊपर से नीचे तक सभी कोई आकंठ भ्रष्टाचार की दलदल में धंसे हुए हैं और राजनीति करने की इच्छा रखने वाले उत्साही ईमानदार कर्यकर्ता को भी इस दलदल में घसीट लेते हैं. अत: भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मौजूदा दौर को एक सुअवसर समझकर शुद्धतावादी राजनीति के तमाम लोगों को भ्रष्टाचार के विरोध में कूद जाना चाहिये. मैं सभी दोस्तों से निवेदन करना चाहूंगा कि संघर्ष चाहे ’मां-मानुष-माटी’ के नाम पर हो या ’जल-जंगल-जमीन’ के नाम पर हो; सामाजिक न्याय के नाम पर हो या वर्ग-संघर्ष के नाम पर हो; या फिर भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर ही क्यों न हो, सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के लिये चल रहे किसी भी आंदोलन का हमें भागीदार बनना चाहिये. भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे इस मजबूत आंदोलन के सहभागी बनकर हम सभी इसमें धीरे-धीरे उन तमाम सवालों को जोड़कर इसका फलक बहुआयामी बना सकते हैं और इसे दूसरा स्वाधीनता आंदोलन भी बना सकते हैं. लेकिन इसकी एक ही शर्त है कि हमें अपने-अपने वादों के गोरखधंधे से बाहर निकलना होगा, अन्यथा जिस तरह वादों के गोरखधंधों ने हिन्दी साहित्य के पटल पर कालिख पोत दी है, भारत के इतिहास की एकांगी व्याख्या को ही वैज्ञानिक इतिहास लेखन बना दिया है, ठीक उसी तरह सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन को भी यह वादों के गोरख धंधों की जागीर बना देगा- इसमें कोई संदेह नहीं.
अमरनाथ झा
एसोसिएट प्रोफेसर
स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
फोन - +919871603621
ब्लॉग - http://www.amarpankajjha.blogspot.com
sir bahut hi santulit aur gyanwardhak lekh hai.bhrastachar aaj is desh ki sabse bada mudhha hai.ise mitane ke liye hame wado aur partibandi ke dayre se upar uthakar sochna hoga tabhi kuch ho payega.
ReplyDeleteBahut-Bahut Shukriya. Abhee bahut adhik atmaalochan kee jaroorat hai hamlogon ko. Uttar adhunikataa ke is daur me kayee puaane sidhhanton po vishleshit karane kee bahut adhik aavashyakataa hai.
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