डॉ. विश्वनाथ झा
उपनिदेशक - राजभाषा विभाग, बेंगलूर
अभी-अभी 30 जून गुजरा. 30 जून हूल क्रांति दिवस है. यह इतिहास का वो दिन है जब संतालपरगना के आदिवासियों ने सन 1855 में भोगनाडीह गांव में सिदो, कान्हू, चांद और भैरव - इन चार भाइयों के नेतृत्व में महाजनों, सूदखोरों और प्रकारांतर से ब्रिटिश महाप्रभुओं के विरूद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया और ब्रिटिशसत्ता को धत्ता बताते हुए पूरे के पूरे दामिन क्षेत्र में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी. शायद भारत का यह पहला स्वतंत्रता संघर्ष था.
इसी 30 जून [वर्ष 2009] को एक और घटना घटी. दुमका में सूचना भवन में कवि आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’ की 90वीं जयंती मनाई गई. 30 जून 1919 को, तब के बिहार और अब के झारखंड के संतालपरगना के सारठ थाना के खैरबनी नामक गुमनाम से गांव में इस कवि ने जन्म लिया था. जयंती में तत्कालीन संताल परगना जिले की और अब के दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज और पाकुड़ के साहित्यिक जगत की नामचीन हस्तियां जुटी थीं. इस लेख का लेखक भी संयोग से इस उत्सव में शरीक था. जयंती उत्सव बड़े शानदार ढंग से पूर्ण सफलता से साथ मनाया गया.
पूरे उत्सव के दौरान एक प्रश्न निरंतर अपनी पूरी उठान से साथ सामने आता रहा कि मृत्यु के 32 वर्षों बाद [16 सितंबर 1977 को कवि पंकज का असामयिक निधन हुआ था] जी हां 1 नहीं 2 नहीं 10 नहीं 20 नहीं पूरे 32 वर्षों के बाद कवि पंकज की स्मृति में आयोजित उनकी 90वीं जयंती में भाग लेने जिले के मूर्धन्यतम व्यक्तित्व उपस्थित हुए हों तो निश्यय ही कोई बात उस व्यक्तित्व में रही होगी. पंकज जी के प्रति जनमानस के आकर्षण की इसी पड़ताल ने लेखक को पंकज जी के उस कवि रूप तक पहुंचा दिया जो पूरी सहजता से मानवीय-जन की भावनाओं के व्यावहारिक चित्र आंक देता है. शायद यही पंकज की सबसे बड़ी सामाजिक और साहित्यक देन है कि हर कोई उनकी कविताओं से अपने आपको जुड़ा हुआ महसूस करता है. मानव मन की इन्हीं सहज भावनाओं के चित्रण के लिये उन्होंने अपने आपको किसी ’वाद’ से नहीं जुड़ने दिया. अपनी काव्य पुस्तक ’उद्गार’ के प्राक्कथन में कवि की स्वीकारोक्ति भी है - "वर्तमान युग विभिन्न मतवादों का युग बन गया है परंतु मैंने शक्ति भर इस गोरखधंधे से अपने आप को बचाने का प्रयास किया है. फिर भी अतिशय वाद प्रेमी किसी न किसी प्रकार का वाद इसमें भी ढूंढ ही ले सकते हैं". अस्तु , कवि की इस आत्मस्वीकारोक्ति और उनके काव्य के गहन अवगाहन से एक सत्य प्रकट होता है और वह सत्य है "सबार ऊपरे मानुष सत्त". कवि ने सही अर्थों में मानव जीवन जिया, जी हां, मानव जीवन जो इंसान का जीवन है, वह इंसानी जीवन, जो भगवान और शैतान के बीच का है. वह जीवन जिसने यदि ’मलयानिल’ का सुखद संस्पर्श पाया है तो जीवन के ’झांझावातों’से भी अक्सर दो-चार हुआ है. इसीलिए पंकज की स्नेहदीप और उद्गार में संकलित कविताएं [दुर्भाग्य से कवि द्वारा रचित असंख्य कविताओं में से सिर्फ कुछ कविताएं ही प्रकाशन का मुंह देख पायीं] ही उनकी स्मृतिशेष हैं. ये कविताएं उनके जीवन की अनुपम अनुभव गाथाएं ही हैं. कबीर के शब्दों में कहें तो ये - "हौं कहता आंखिन की देखी" हैं. इसे ही घनानंद ने कितनी मार्मिकता के साथ इन शब्दों में उकेरा है - "लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोही तो तेरे कवित्त बनावत". आइए कवि श्री ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’ की कविताओं में सहज मानवीय भावनाओं का रसास्वादन करें-
जब सहज मानवीयता की बात की जा रही है तो इसका अर्थ कवि की भावनाओं की सहजता और उसकी अकृत्रिम अभिव्यक्ति से है. एक आम आदमी की तरह ही कवि ने जीवन के ’अमृत’और ’गरल’दोनों का पान किया है. वस्तुत: उन्हें जीवन ने गरल पान का अवसर ही अधिक दिया किंतु गरल की पीड़ा को विषपायी शंकर की तरह अपने में समेट कर नीलकंठ कैसे बना जा सकता है, कवि ने यह दुनिया को दिखा दिया है. यद्यपि इन दोनों संकलनों में संग्रहित कविताओं में सृजन की तिथि नहीं दी गई है; जिसके कारण कवि की भावनाओं और विचारों के विकास को ऐतिहासिक क्रम में समझ पाने का अवकाश नहीं मिल पाता है किंतु यदि भावनाओं ओ आधार मानकर, रूमानियत और परिवक्वता को आधार मानकर, कविताओं का अध्ययन किया जाए तो यह साफ पता चलता है कि उनकी कविताओं में मिले-जुले स्वर हैं. जीवन के कैशौर्य काल की रूमानियत रह-रहकर कविताओं में अपना सिर उठाती है, किसी अजाने अचिह्ने की ओर रह रहकर इंगित करती है -
कौन स्वप्न के चंद्रलोक से छाया बन उतरी भू पर
सुभग कल्पना की प्रतिमा सी नवल इन्द्र धनु की सुंदर
नयनों में मादक पराग ले इंगित में ले सृष्टि अमर
अधरों में अनुराग उषा ले स्निग्ध चांदनी स्मित में भर
कौन कौन यह विश्व मोहिनी माया वन की तितली कौन
भ्रू विलास के संकेतों में जो लुभा रही सबको मौन
-कौन
रहस्य की यह कुहेलिका जब धीरे-धीरे स्पष्टप्रकाश की ओर आगे बढ़कर, भोर के उजाले में बदलती है तो कवि कली से आह्वान करता है
वामा ढली रजनी चली, खिल जा अरी बन की कली
ऊषा अरूण का राग ले नव किसलयों का साज ले
है धिरकती सत्वर बढ़ा पग नाचती बन बावली
खिल जा अरी बन की कली
-कली से
[पाठक कृप्या इस अन्तरे की तुलना जयशंकर प्रसाद की कविता बिती विभावरी जाग री से करें]
रूमानियत का दौर खत्म होते ही कवि को जीवन की कटु सच्चाइयों का पता चलता है तो कवि का मूड भी बदल जाता है. पूरी संजीदगी से जीवन के ’कालकूट’ का पान करने को वह पूरे दम खम से आगे बढ़ता है. उसे अपने पर, अपनी क्षमता पर पूर्ण विश्वास है. कवि का यह विश्वास मानव की अटूट - अदम्य आत्मिक शक्ति पर विश्वास भी है. जरा इन पंक्तियों पर गौर कीजिए, कितनी उत्साहवर्धक हैं ये पंक्तियां -
मत कहो कि तुम दुर्बल हो
मत कहो कि तुम निर्बल हो
तुम में अजेय पौरूष है
तुम काल-जयी अभिमानी।
या फिर
तुम शास्वतस्त्रोत अक्षय हो
तुम अप्रमेय तुम चिन्मय
विज्ञान-ज्ञान की निधि तुम
तुम हो असीम तुम भास्वर।
दो फेंक आवरण वह जो तुमको है लघु बतलाता
द्विविधा का जाल बिछाकर है बीच डगर भरमाता
कवि की ये उत्साहपूर्ण उक्तियां उकठे काठ में भी प्राण फूंक पाने में सक्षम हैं. ये पंक्तियां निश्चय ही मानव मन की निराशा को दूर भगाकर उसमें सहज ही नई चेतना जगा पाने में सक्षम हैं.
कवि को अपने पौरूष पर प्रगाढ़ विश्वास है. उसे पता है कि यह पौरूष केवल उसमें नहीं, प्रकृति के जाए हर उस इंसान में है जो हाड़ मांस से बना है. किंतु केवल हाड़ मांस का पुतला होने के कारण ही वह कतई कमजोर, असहाय या निर्बल नहीं है. देखें कवि को मानवीय क्षमता पर विश्वास कितना बढ़-चढ़कर है
मुझमें है भीषण ज्वाल भरा मैं महासिंधु का गर्जन हूं ।
हिल उठे धारा डोले अंबर वह प्रलयंकारी आवर्तन हूं ॥
मैं हिमगिरि का उन्नत मस्तक जो झुकता नहीं कभी पलभर
अभिमान चूर्ण कर त्रिदेशों का जो छू सकता उंचा अंबर
कवि को यह पता है कि जीवन की यह डगर आसान नहीं. इसमें पग-पग पर कांटे बिछे हैं, किंतु कांटों की परवाह करने वाला भी कभी क्या जीवन में कुछ पा सका है. मंजिल उसे ही मिलती है जो इन शूलों को फूलों में बदल पाने की क्षमता रखता हो,
फूलों पर पग धरने में क्या वह तो अतिशय सुकर सरल
शूलों पर चलना दुष्कर है व्रती अचंचल वहां सफल
- उद्गार
स्वाभाविक ही है कि शूल भरे रास्तों पर चलने वाला थकेगा. उन थके हारे मुसाफिरों के लिए कितनी उत्साहवर्धन करने वाली हैं कवि पंकज की ये पंक्तियां -
मंजिल झांक रही वह देखो हारे चरणों को बढ़ने दो
लक्ष्य आद्रि के तुंग श्रृंग पर विजयकेतु बनकर चढने दो
रुको न क्षण भर राही डर है, शायद कहीं लौट तुम आओ
मोह खींच ले दुर्बल पग को विरत साधना से हो जाओ
संघर्ष, संघर्ष और संघर्ष, कवि पंकज की असाधारण जिजीविषा ही है जो इस संघर्ष चेतना को ’अयं निज: परो वेति’ से ऊपर उठाते हुए ’वसुधैव कुटुंबकम्’ की और ले जाती है. उसे अपने चारो ओर दीन-हीन, दबे-कुचले और वंचित जन समूह का परावार दिखाई पड़ता है. तब गांधीवादी आदर्शों से ओत-प्रोत कवि का मन सहज ही पुकार उठता है
दलित मनुजता को अपनाओ - बंधु आज यह युग पुकार हो
रहे न कोई आज उपेक्षित, रहे न कोई आज बुभुक्षित
नहीं तिरस्कृत लांछित कोई, आज प्रगति का मुक्त द्वार हो
कवि जैसे-जैसे जीवन और दर्शन में आगे बढ़ता जाता है, समाज की तल्ख सच्चाइयों से भी उसका वास्ता पड़ता जाता है. उसे सामने ही दीख पड़ता है चोट खाया हुआ इंसान, उसे सुनाई पड़ती है घायल मानवता की कराह. किंतु कवि को अफसोस इस बात का है कि दुनिया इससे क्यों नहीं पिघलती. इतनी संगदिल क्यों हो गई है दुनिया, क्यों वह ऐसा व्यवहार कर रही है मानो कुछ हुआ ही न हो -
बहुत है दर्द होता हृदय में साथी
कि जब नित देखता हूं सामने
कौड़ियों के मोल पर सम्मान बिकता है
कौड़ियों के मोल इंसान बिकता है
किंतु कितनी बेखबर हो गई दुनियां
कि इस पर आज भी परदा किए जाती।
कवि को जब यह पहेली समझ में नहीं आती तो बरबस ही कह उठता है:-
यह नहीं समझा था कि जग में फूल भी क्यों शूल बनता ?
कुसुम का कोमल हृदय क्यों झुलस कर है धूल बनता ?
अमृत के वर विटप तल क्यों जहर का है कीट पलता ?
पूर्णिमा के चांद से भी तीव्र हालाहल निकलता ?
यह कसक, यह हूक जब सीमा से आगे बढ जाती है तब कवि को यह भी लगने लगता है कि शायद ’पागल’ ही दुनिया में सबसे निश्चिंत है
जगत की चिंता से निर्मुक्त सतत तुम स्वीय भाव में लीन
धरा अंबर के गुप्त रहस्य खोलने में बस ममता हीन
खोजते क्या क्षण-क्षण पल-पल, अमर फल को तुम हे पागल।
किंतु कवि जल्द ही इस श्मशानी वैराग्य से ऊपर उठकर जयघोष करता है:
भले प्रतारित हूं मैं जग से मन न पराजित होने दूंगा
भले उपेक्षित हूं जन-जन से मन न उपेक्षित होने दूंगा
क्योंकि,
मैं झंझा में पलने वाला हूं, मेरा तो इतिहास अजब है
कवि को यह मालूम है कि
शिशिर की आह में जो जल नहीं सकता, भला मधुमास क्या जाने ।
अमां की राह में जो बल नहीं सकता किरण का हास क्या जाने
अंतत: कवि स्थित-प्रज्ञता की भाव भूमि पर पहुंचकर निर्विकार रूप में घोषित करता है
मैं समदरशी देता जग को
कर्मों का अमृत औ विष-फल
जीवन के प्रति निरंतर संघर्ष के बीच-बीच में रेगिस्तान के बीच मरूद्यान की शीतलता की तरह ही बीच-बीच में पंकज की कविताओं में प्रकृति के बड़े अनुपम चित्र भी मिलते हैं
एक बार इठलाती रात ने चाँद से पूछा-
गोरे मुखमंडल पर काला सा छाया है ?
बोला चाँद हंसकर । सच ही नहीं जानती हो क्या ?
तुम्हारे ही अंजन का दाग मन भाया है ।
कवि पंकज अपने आस-पास की घटनाओं से भी अछूते नहीं हैं. जिन कुछ महापुरूषों ने कवि को गहरे तक प्रभावित किया है उनके प्रति भी कवि ने अपने उद्गार प्रकट किए हैं. इन महान विभूतियों से संबंधित कविताओं में ’तुलसी सा कवि,’ ’बापू,’ ’रवींद्र के प्रति’ ’शहीदों के प्रति’ आदि दर्शनीय है.
कवि कभी छात्रों से संबोधित होता है तो कभी कवि से भी मुखतिब होता है. व्यक्तिगत जीवन की त्रासदी भी कवि की रचनाओं में सहज ही झलक उठी है. युवावस्था में प्रथम पत्नी के देहांत की पीर को न संभाल पाने पर ’मानसी के प्रति’ ’मित्र की याद’ और ’बेबसी’ जैसी कविताएं मिलती हैं तो पुर्नविवाह के बाद जीवन को नए सिरे से जीते हुए और नए जीवन से सामंजस्य बिठाते हुए ’ग्रामीणा’जैसी कविताएं मिलती हैं.
सचमुच में कवि पंकज के अपने व्यक्तिगत जीवन के उद्गार ही उनकी कविताओं में हर जगह प्रकट हुए हैं. तभी तो कवि के गुरू, स्वनामधन्य महापंडित आचार्य जनार्दन मिश्र ’परमेश’ ने उद्गार संग्रह की भूमिका में आर्शीवचन के रूप में कवि पंकज के काव्य की सराहना "कवै: चित्तोद्गार: कव्यम्" के रूप में की है.
30 जून की इस पावन तिथि पर हमें संताल परगना के इस महामना कवि को याद करते हुए सच में गौरव का अनुभव हो रहा है. क्या आपको भी नहीं हो रहा ?
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