दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ चुनाव और हमारे सामाजिक सरोकार
अमरनाथ झा
असोसिएट प्रोफ़ेसर, स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
एवं
पूर्व विद्वत-परिषद् सदस्य, दिल्ली विश्वविद्यालय
आवासीय पता - SRD 15 A
Shipra-Riviera, Indirapuram, Ghaziabad
Uttar Pradesh – 201014
Ph. 9871603621
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही पूरे देश के शिक्षक आन्दोलन की नजरें दिल्ली विश्वविद्यालय की हलचलों पर टिक गयीं हैं क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय का शिक्षक आन्दोलन अरसे से पूरे देश के शिक्षक-हितों और शिक्षक-अन्दोलन का पथ-प्रदर्शक और प्रवक्ता दोनो रहा है. इस संगठन ने सिर्फ़ शिक्षक हितों के लिये ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और सामाजिक हितों के भी प्रतिष्ठार्थ कई लम्बी लड़ाईयां लड़ी है और तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों को लोकविरोधी नीतियों को लागू करने से रोकने में सफ़लता पायी है. इसलिये आज भी डूटा के रूप में विख्यात यह संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय के आम शिक्षक के निजी और पेशेवर हितों की गारंटी देने वाली एकमात्र संस्था की तरह समादृत है और इसके प्रति सभी उम्र और सभी संस्थानों के शिक्षक समर्पित दिखते हैं. परन्तु इस हालिया सच्चायी से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों से डूटा की साख में तेजी से गिरावट भी आयी है. समाज के अन्य तबके के लोग ही नही, शिक्षकों का एक बड़ा तबका भी डूटा के प्रति मोहभंग के दौर से गुजर रहा है. मोहभंग की यह स्थिति निःसंदेह समाज एवं राष्ट्र के लिये तो अशुभ संकेत हैं ही स्वयं शिक्षकों के लिये भी घातक सिद्ध हो सकती है. अतः इस पर विचार करने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है तथा डूटा को कैसे उसकी पुरानी गरिमा वापस दिलायी जा सके जहां शिक्षकों का सामाजिक सरोकार भी मुखर रूप ले सके और अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह शिक्षक पहले की तरह फ़िर से कर सके?
अगर दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों की स्टाफ़ असोशिएसन्स और स्टाफ़ कौंसिल की बैठकौं तथा डूटा की कार्यकारिणी की बैठकौं में होने वाली चर्चा और बहस पर गौर फ़र्माएं तो आपको अचम्भित होना पडेगा. यहां की बहस इतनी जानदार और रोचक होती है कि विवेच्य विषय की मीमांसा के क्रम में दुनिया भर में होने वाली घटनाओं पर मजेदार टिप्पणियां भी धड़ल्ले से चलती रहती है. निजी और पेशेवर हितों से जुड़े मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सारगर्भित और आलंकारिक संभाषण की छटा देखते ही बनती है. उच्च कोटि के इन स्तरीय बहसों में अपनी-अपनी राजनीतिक सोच के अनुरुप विरोधी विचार की धज्जियां बड़ी बेरहमी से उड़ाई जाती है. किन्तु वाबजूद इसके वक्ताओं में निजी तौर पर शायद ही कोई कड़वाहट कभी भी देखने को मिले. लम्बे समय तक अपने कॉलेज की स्टाफ़ असोशिएसन और स्टाफ़ कौंसिल के अध्यक्ष और सचिव पद को सम्भालने के कारण तथा चार वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद् का निर्वाचित सदस्य प्रतिनिधि रहने के कारण मुझे इस बात का व्यक्तिगत अनुभव है कि किस तरह अपनी बेबाक वक्तृत्त्व कला और स्पष्ट सोच के कारण तथा संबंघित सूचनाओं से लैस होने के कारण विद्वत-परिषद् और कार्यकारी-परिषद् की बैठकों में प्रायः निर्वाचित सदस्यों की काट विश्वविद्यालय प्रशासन के लिये असंभव हो जाता है. निर्वाचित सदस्य वक्ता बडी सफलता से विभिन्न मुद्दों पर प्रशासन को कटघडे में खड़ा करते रहते हैं और कुलपतियों को इनका भाषण गम्भीरता से सुनना पड़ता है. अचम्भित करने वाले कुछ वक्ताओं को तो वहां मौजूद विद्वान प्रोफ़ेसर, विभागाध्यक्ष तथा प्रधानाचार्य सरे-आम दाद देते रहते हैं. एक-दो पंक्तियों में लिखकर छोटी-छोटी दाद भरी चिट मुझे अक्सर मिलती रहती थी जो वहां बैठकर कुछ-कुछ सार्थक योगदान करने का एह्सास मुझे भी कराती रहती थीं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि चतुर्दिक नैराश्य, मोहभंग और अनास्था के घटाटोप के वाबजूद दिल्ली विश्वविद्यालय में मौजूद ईमानदार और सार्थक बहस की परंपरा मेरे जैसे लोगों को आश्वस्त करती रहती थी, जिसे किशन पटनायाक से उधार लिये गये शब्दों मे कहें, कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से विश्वविद्यालय का वतावरण तेजी से नकारात्मक रूप से बदला है. भारतीय समाज में व्याप्त सभी नकारात्मक प्रवृत्तियां अब विश्वविद्यालय को भी लील रही हैं. अब ईमानदार और अर्थपूर्ण सम्भाषण सिरफ़िरों का प्रलाप समझा जा रहा है. क्षुद्र और तुच्छ निजी हित ही नवोदित नेताओं की कार्यसूची में सर्वोपरि दिखता है. अब विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि जाति और सम्प्रदाय के आधार पर शिक्षकों का ध्रुवीकरण हो रहा है. अब न तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय और न ही सामान्य शिक्षक-हित के मुद्दे विश्वविद्यालय परिसर मे चर्चा के केन्द्र में होते हैं. हाल यह है कि अब अनियमित और तदर्थ शिक्षकों के शोषण में समान रूप से सभी गुट संलिप्त हैं. अति वाम, वाम, मध्यवर्ती या दक्षिणपंथी - सभी घटक इस फ़िराक मे रहते हैं कि किस तरह से कुलपति को प्रभावित किया जाय या उन्हें दबाब मे लाया जाय ताकि आम शिक्षक हितों की बलि देकर भी अपने गुटीय या निजी हितों का संवर्धन किया जा सके. 10-15-20 वर्षों से तदर्थ शिक्षक के रूप मे शोषित और अभिशप्त, असमय ही प्रौढ़ हो चुके शिक्षकों की सुधि लेने का अवकाश किसी को नहीं है, बल्कि वे तो उनके कैडर बने रहने को ही बने हैं, मानो. यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि जब अपने कर्यकाल में मैंने तदर्थ शिक्षकों को नियमित कराने हेतु और आगे की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने हेतु बड़ी मुहिम चलायी थी तो उसे विश्वविद्यालय के किसी भी गुट का सक्रिय समर्थन तो नहीं ही मिला था बल्कि बड़े गुटों का भारी विरोध झेलना पड़ा. मेरे इस प्रस्ताव को कि नियुक्ति में गुणवत्ता और पारदर्शिता हेतु दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक चयन आयोग का गठन किया जाय और उसी के तहत यहां के विभागों और कॉलेजों मे शिक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान हो, तो भले ही कुलपति उससे सहमत थे परन्तु निर्वाचित सदस्य ही सबसे बडे विरोधी थे. क्यों? क्योंकि ऐसा होने से विभिन्न मठाधीशों की दुकानें बन्द हो जातीं. दिल्ली सरकार के छुटभैये नेताओं की भी दुकान बन्द हो जाती और यहां के आम शिक्षक सिर उठाकर चलते, नेताओं की किसी को कोई परवाह नहीं होती. अतः परिणाम वही हुआ जो होना था - यह अब किसी की भी गुट की चर्चा का विषय नही है, जबकि यही एकमात्र विकल्प बचा है, अगर हमें शिक्षा और शिक्षक की गरिमा बचाये रखनी है तो.
तदर्थ शिक्षकों का मुद्दा जब मैंने पूरी ताकत से उठाया तो विश्वविद्यालय को मजबूर होना पड़ा और कई लोगों को नियमित कराया जाना संभव हुआ. तदर्थ नियुक्ति प्रक्रिया को भी विभागीय सामन्तशाही से मुक्त करने हेतु मैंने प्रोफ़ेसर एस. के. टंडन समिति के सदस्य की हैसियत से न्यूनतम पारदर्शिता को लागू करवाया. फिर भी गुटीय घेरे के दबाब के कारण उसमें भी कुछ छिद्र छोड ही दिया. लेकिन तमाम कमियों के वाबजूद अब तदर्थ नियुक्ति मे पारदर्शिता तो दिखती ही है.
पिछले 2 वर्षों से सेमेस्टर प्रणाली को लेकर जिस तरह से विश्वविद्यालय का महौल बिगाड़ा गया और सभी छोटे-बड़े गुटों के नेताओं की भेड़चाल भरी बचकानी हरकतों ने जिस तरह से शिक्षक समुदाय की किरकिरी करायी उससे समस्त शिक्षक समाज शर्मसार हुआ है. समाज में तो हमें नीची निगाह से देखा ही गया, न्यायपालिका द्वारा इसे उचित, वैध और उपयुक्त मानकर लागू किये जाने के बाद हमारा कद बेहद छोटा दिख रहा है. कौन है इसका जिम्मेदार? क्या इस स्थिति से बचा नहीं जा सकता था? मेरे कार्यकाल मे ही यह सवाल दो बार विद्वत-परिषद् के एजेंडे पर लाया गया था परन्तु डूटा के डिक्टेट के तहत निर्वाचित प्रतिनिधियों ने उसपर चर्चा नहीं होने दी. आज मुझे भी निजी तौर पर इस बात की टीस है कि अगर भीष्म की तरह मेने भी डूटा से बंघकर ही काम करने का स्वघोषित व्रत न लिया होता और इस मुद्दे पर चर्चा होने दी होती तो कम से कम यह मौजूदा स्वरूप मे न आता और इसके नकारात्मक पहलुओं को रोका जा सकता था. कभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करने वाली और संघर्ष करने वाली डूटा कितनी कमजोर हो गयी है कि किसी विषय पर बहस करने से भी भागने लगी है अब, यह प्रसंग इसका जीता-जागता उदाहरण है. आज सेमेस्टर प्रणाली को जबरिया लागू किये जाने को लेकर आम शिक्षकों मे जो वितृष्णा का भाव है उसके लिये सिर्फ़ विश्ववियालय प्रशासन ही जिम्मेदार नही है, यहां का बदतर होता जा रहा माहौल भी उसके लिये समान रूप से जिम्मेदार है, विशेषकर शिक्षक नेताओं की अदूरदर्शिता.
चमचागिरी का आलम यह है कि अति उत्साही कुछ शिक्षक अपनी कक्षाओं मे पढ़ाने की बजाए विभागों के अध्यक्षों की दरबारी को अपनी शान और उपलब्धि समझते हैं. भला हो भी क्यों नहीं? 2-3-4 बरस पहले नियुक्त हुए, और कुछ मामलों मे तो तदर्थ रूप से कार्यरत, शिक्षक हेड-एक्ज़ामिनर तक बन रहे हैं, ऑनर्स की उत्तर-पुस्तिकाओं के परिक्षक बन रहे हैं और 25-30 सालों के शिक्षण अनुभव की वरीयता वाले शिक्षक दरकिनार किये जा रहे हैं. कम से कम इतिहास विभाग का तो यही तुगलकी फ़रमान वर्षों से विश्वविद्यालय मे चल रहा है. अब आप खुद ही समझ लें कि कितनी पवित्रता बची रह गयी है हमारी परीक्षा-प्रणाली की. हमारा शिक्षक संघ और उसका कोई भी घटक इसे कभी मुद्दा नहीं बनाता है. प्रोफ़ेसर नीरा चंडोक कमीटी या एकाउंटिबीलिटी कमीटी के सदस्य की हैसियत से मैंने कमीटी आफ कोर्सेस, जो इन विसंगतियों को दूर करने हेतु उत्तरदायी समिति होती है, के गठन की प्रक्रिया को धारदार बनाने हेतु कई सुझाव दिलवाये हैं परन्तु क्या हस्र हुआ नीरा चंडोक कमीटी का और किस अवस्था मे है वह, इसकी सुधि लेने की न तो फ़ुर्सत और न ही जज्बा है हमारे नेताओं में. शायद अनिर्णय की यह स्थिति उनके हितों की साधना में सहायक हो रही हो. विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों मे अरसे से चल रही सामंतशाही विभिन्न गुटों की प्राणघारा आज भी बनी हुई है इसे कौन नहीं जानता? लोहिया जी ने शायद ऐसे ही लोगों के लिये छद्म बुद्घिजीवी शब्द का प्रयोग किया होगा.
अभी कॉलेजों में प्रोफ़ेसर पद पर शिक्षकों की प्रोन्नति जैसा गम्भीर मामला सिर्फ़ चुनावी घोषणापत्रों की शोभा बढ़ाने के लिये लिखी जाती है. कोई गुट इसके लिये गम्भीर नहीं दिखता है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था के पूर्व निदेशक प्रोफ़ेसर टंडन की अध्यक्षता वाली उस समिति, जिसका कार्य मेडिकल कॉलेज के शिक्षकों की अर्हता का निर्धारण करना था, के सदस्य के रूप में मैंने देखा था कि मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्था बिना किसी विशेष अड़चन के शिक्षकों को प्रोफ़ेसर के पद पर प्रोन्नति पाने का अवसर प्रदान करती है और कई जगहों पर दिल्ली विश्वविद्यालय में असोशिएट प्रोफ़ेसर के बराबर की योग्यता के व्यक्त्ति प्रोफ़ेसर बनने का गौरव प्राप्त करते हैं तो दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज शिक्षकों को यह मौका क्यों नहीं मिल सकता है? इस बेहद गम्भीर मुद्दे को सुलझाने की बजाय इस बात पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है कि मौजूदा कुलपति को किस प्रकार से प्रभावित किया जाय - मिन्नत करके या दबाब डालकर और अपना-अपना उल्लू सीधा किया जाय. मौजूदा चुनावी दंगल भी इसी बात की गवाही दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं.
यह भी देखना दिल्चस्प होगा कि क्या कोई गुट हाल ही मे उजागर परंतु अरसे से नमांकन में हो रहे विभिन्न तरह के भ्रष्टाचार को तवज्जो देता है और कितना तवज्जो देता है? पिछले कुछ महीनों से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जिस तरह से पूरे देश मे एक आन्दोलन का वातावरण बन रहा है कोई गुट उसे भी अपना चुनावी एजेंडा बनाता है कि नहीं, यह भी इस चुनाव में दिख जायेगा. एक सशक्त लोकपाल और काले घन के मुद्दे को अगर कोई गुट हथियाता भी है तो उसके तेवर से पता चल जायेगा कि कितनी गंभीरता है इसके प्रति उनमें. क्या अण्णा हजारे और रामदेव भी इस चुनाव पर नजरें गड़ाए होंगे यह तो मैं नहीं जानता परन्तु इतना जरूर कह सकता हूं कि पूरा देश दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रबुद्ध शिक्षकों से इतना तो उम्मीद कर ही सकता है कि इस ऐतिहासिक घड़ी में इन्हें अपनी उज्जवल परम्परा के अनुरूप देश और समाज को दिशा देने हेतु आगे आना चाहिये क्योंकि तमाम विसंगतियों के वाबजूद अभी इस विश्वविद्यालय का आम शिक्षक बेहद मिहनती, सिद्धांतवादी, कर्मठ, प्रगतिशील और आदर्शवादी है. क्या मौजूदा चुनाव आज की चुनौतिपूर्ण घड़ी में एक नये युग का आगाज करने की कोई झलक दे सकेगा?
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