Sunday, December 21, 2025

 “खैराबेमू” : रंगकर्मी आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ का समानान्तर नाट्य-आन्दोलन

— डॉ अमर पंकज 

सारांश: आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ का जन्म 30 जून 1919 को तत्कालीन बिहार के संताल परगना जिला स्थित खैरबनी गांव में और निधन 17 सितम्बर 1977 को अपने पैतृक गांव खैरबनी में ही हुआ था। मात्र 58 वर्ष की आयु पाने वाले ‘पंकज’ जी न केवल एक लोकप्रिय शिक्षक, विलक्षण कवि, गंभीर एकांकीकार, प्रखर समालोचक, सम्मानित साहित्यकार और उद्भट विद्वान थे, बल्कि एक प्रसिद्ध रंगकर्मी भी थे। वे 1955 में स्थापित “पंकज-गोष्ठी” नामक संस्था, जो एक महान ऐतिहासिक काव्यान्दोलन था, के प्रेरक और प्रणेता के साथ-साथ 1961 में स्थापित “खैराबेमू” नामक ग्रामीण नाट्य संस्था के भी प्रेरक और संस्थापक थे। विगत दशकों में यद्यपि कि आचार्य ‘पंकज’ के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करते हुए विद्वानों और अध्येताओं द्वारा काफ़ी कुछ लिखा गया है, तथापि उनके रंगकर्मी व्यक्तित्व पर लगता है अभी तक किसी का समुचित ध्यान नहीं गया है। अतः मौजूदा आलेख आचार्य ‘पंकज’ के व्यक्तित्व के इसी पहलू को उजागर करने का एक विनम्र प्रयास है।

भूमिका: प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ ने कोई नाटक लिखा था या नहीं, इस बारे में हम निर्णायक रूप से कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि अभी तक उनका लिखा हुआ ऐसा कोई नाटक हमें नहीं मिला है, लेकिन, उनके द्वारा लिखित दो एकांकी पढ़ने का सौभाग्य मुझे अवश्य प्राप्त हुआ है। “पंकज-गोष्ठी” द्वारा 1963 में प्रकाशित पुस्तक “वातायन” जो अभी अप्राप्य है, में संकलित “साहित्यकार” एकांकी के लेखक ‘पंकज’ जी हैं। उनके द्वारा लिखित दूसरी एकांकी “चूरनवाला” है जो 1970 के दशक की रचना है। इसे ‘पंकज’ जी के प्रहसन लेखन और एकांकी लेखन का बेजोड़ नमूना माना जा सकता है। यह एकांकी अभी भी उनके द्वितीय सुपुत्र डॉ विश्वनाथ झा के पास सुरक्षित है । इन दो उपलब्ध एकांकियों के साथ “खैराबेमू” की संगति बैठाकर विचार करने से पता चलता है कि ‘पंकज’ जी “नट्यकर्म” और “रंगकर्म” से बड़ी गंभीरता से जुड़े हुए थे। अतः निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि वे अपने युग के विलक्षण कवि और साहित्यकार ही नहीं, एक विलक्षण रंगकर्मी भी थे। उनकी प्रेरणा से 1961 में खैरबनी, रानीगंज, बेलबरना-बेलाबाद, मूरचूरा (मयुरचुडा) और मसलेटी (महिसलेटी) के युवकों द्वारा “खैराबेमू” नाट्य मंच का गठन किया गया था और जो हाल-हाल तक, 1996 तक, एक जीवित और सक्रिय संस्था थी। ‘पंकज’ जी इस “खैराबेमू” नाट्य मंच के प्रेरक-संस्थापक तो थे ही, वर्षों तक इसके निर्देशक भी बने रहे थे। बाद में, 1965 के बाद, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण जब उन्होंने निर्देशक की भूमिका अपने छात्र और भतीजे, स्वर्गीय मदन मोहन झा को सौंप दी, तब भी वे नाटक की तैयारियों पर अपनी पैनी नज़र रखते थे और जब वार्षिक काली पूजा (दीपावली) के अवसर पर नाटक का मंचन किया जाता था तो दर्शकों के बीच स्वयं उपस्थित होकर नाटक देखते थे। अतः मेरा मानना है कि आचार्य प्रोफेसर ज्योतीन्द्र झा ‘पंकज’ के महनीय व्यक्तित्व के आकलन के क्रम में उनके “रंगकर्म” को समझे बग़ैर उनके समग्र साहित्यिक-सांस्कृतिक क्रियाकलापों का सम्यक, सटीक और सार्थक मूल्यांकन संभवतः नहीं किया जा सकता है। मेरा यह भी मानना है, जो अन्य विवरणों से भी सिद्ध होता है, कि आचार्य प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ का व्यक्तित्व संपूर्ण रूप से अगर “सांस्कृतिक” था तो इस “सांस्कृतिक व्यक्तित्व” की निर्मिति में उनके “रंगकर्म” की बड़ी भूमिका थी। अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ के सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यक्तित्व को समझने और व्याख्यायित करने की दिशा में आगे बढ़ने का सूत्र हमें उनके रंगकर्म के अवलोकन और सम्यक परीक्षण में ही मिल सकता है।

विषय विवेचन: जब भी भारतीय नाट्य संस्था के विकास की बात करें, हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत में रंगकर्म प्राचीनतम काल से ही महत्वपूर्ण स्थिति में रहा है। दूसरी सदी ईस्वी पूर्व के आसपास भरतमुनि रचित “नाट्यशास्त्र” सम्पूर्ण विश्व में इस विधा का प्राचीनतम और अतुलनीय ग्रंथ माना जाता है। इस महान ग्रंथ की रचना करने वाले भरतमुनि ने भारत की नाटक कला की प्राचीनतम परंपरा को न केवल संरक्षित किया बल्कि “पंचम वेद” कहकर आने वाले युगों के लिए भी इसे सुरक्षित धरातल पर स्थापित कर दिया।

विद्वानों ने भारतीय नाट्य कला के बीज ऋग्वेद के दशम मंडल के “यम-यमी” संवाद और “पुरुरवा-उर्वशी” संवाद में ढूँढे हैं। स्वयं नाट्यशास्त्र के अनुसार भरतमुनि ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय, एवं अथर्ववेद से रस ग्रहण करके इस “पंचमवेद” की रचना की है। ऐसा कहा जाता है कि भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र का प्रणयन प्राणियों के मनोविनोद के साथ सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिये भी किया है।

“नाट्यशास्त्र” में रंगशाला, रंगमंच, नेपथ्य, गीत-संगीत व्यवस्था, ध्वनि-समायोजन, संवाद-अदायगी, कथानक के प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ अभिनेता-अभिनेत्री द्वारा नाटक के विभिन्न पात्रों में परकाया-प्रवेश जैसे बिंदुओं की सूक्ष्म मीमांसा की गई है। इसमें नाटक के नायक-नायिकाओं की विभिन्न श्रेणियों की न केवल चर्चा की है बल्कि प्रत्येक कोटि के नायक-नायिकाओं के लिए आवश्यक गुणों को रेखांकित भी किया गया है। इसमें नायक-नायिका के अतिरिक्त नाटक के अन्य पात्रों के लिए भी आवश्यक अर्हताओं को भी बड़ी सूक्ष्मता के साथ उन्होंने चिह्नित किया गया है। कहने का आशय है कि भारत में रंगकर्म की परंपरा अति प्राचीन काल से चली आ रही है और नाटकों का मंचन किया जाता रहा है। नाट्य कला की लोकप्रियता भारत में इतनी अधिक हो गई कि “नाटक” शब्द “काव्य” का एक पर्याय बन गया। “काव्येषु नाटकं रम्यम” जैसी उक्ति नाटक की लोकप्रियता और महत्ता को दर्शाती है।

प्राचीनतम काल से ही भारत में नाट्य कला कितनी महत्वपूर्ण स्थिति में थी कि इसका अंदाज़ा तो इस बात से ही लगाया जा सकता है कि भरतमुनि से पहले से भी नाटक-मंचन की अनेक विधियाँ प्रचलित रहीं हैं, जिनको समेटकर भरतमुनि ने अपने महान ग्रंथ “नाट्यशास्त्र” की रचना की। इस महान ग्रंथ को उन्होंने “शास्त्र” बताकर “पंचम वेद” के रूप में स्थापित किया जिसके कारण “नाट्यशास्त्र” एक पावन ग्रंथ भी बन गया।

“नाट्यशास्त्र” की शास्त्रीयता और लोकप्रियता की प्रामाणिकता इस बात से भी सिद्ध हो जाती है कि भरतमुनि के बाद के भिन्न-भिन्न विधाओं के विद्वानों और रचनाकारों को भी अपने सिद्धांतों की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए नाट्यशास्त्र के कतिपय नियमों का संदर्भ देना पड़ता था। “काव्यशास्त्र” के आचार्यों ने अपनी प्रस्थापनाओं की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए “नाट्यशास्त्र” के सिद्धान्तों का सहारा लिया। “रसवादी” आचार्य तो “नाट्यशास्त्र” से ही अपनी वैचारिक खुराक लेते से प्रतीत होते हैं। नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय में जिस “रससूत्र” का विवेचन किया गया वही साहित्य की रसवादी समीक्षा का मूल आधार माना जाता है। इस आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में “नाट्यशास्त्र” का प्रभाव कभी कम नहीं हुआ और नाट्य कला सहस्रों वर्षों से भारत की विभिन्न कलाओं को प्रभावित करती रही। अतः यह स्वाभाविक ही है कि आज भी भारत के विभिन्न नगरों में ही नहीं सुदूर ग्राम्य अंचलों में भी स्थानीय निवासियों द्वारा अपनी-अपनी शैली में नाटक का आनंद लिया जाता है। नाट्य मंचन की यह परम्परा हमारी सांस्कृतिक विरासत है और हज़ारों वर्षों से अक्षुण्ण है। मध्य काल में नाट्यकला एक ओर जहाँ उत्तर भारत में “रामलीला” और “रासलीला” जैसी शैलियों में विकसित हुई वहीं बंगाल में “जात्रा” का रूप ले बैठी। देश के अन्य भागों में भी अलग-अलग स्थानीय शैलियों का विकास हुआ। आज भी भारत के विभिन्न अंचलों में हम विभिन्न नाट्य शैलियों के प्रचलन और मंचन को देख सकते हैं। ऐसे ही नाटकों को जगदीश चन्द्र माथुर “परम्पराशील नाटक” कहते हैं, जो भारतीय रंगमंच का हिस्सा सदैव बना रहा और जिसकी जड़ें भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में सन्निहित हैं। इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ जैसे विद्वान-साहित्यकार और स्वाधीनता सेनानी, जिनकी जड़ें भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में गहराई से जमीं थीं, ने “नाट्यशास्त्र” का गंभीर अध्ययन किया हो और औपनिवेशिक कालीन जड़ता से मुक्त नवीन भारत के निर्माण के लिए “रंगकर्म” को भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन की अपनी मुहिम से जोड़ते हुए एक अति विशिष्ट हथियार के रूप में स्वीकार तथा अंगीकार किया हो।

19वीं सदी में, सामाजिक सुधार के लिए नाट्य मंचन का सहारा लिया गया । राजाराम मोहन राय जैसे समाज-सुधारकों के प्रभाव के कारण प्रायः नाटकों के मंचन द्वारा सामाजिक परिवर्तन के विषयों को ज़ोर-शोर से उठाया गया। हिन्दी पट्टी में भारतेन्दु हरिशचंद्र ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना के पुनरुत्थान के लिए नाटकों का सहारा लिया। उनका लिखा नाटक “सत्य हरिशचंद्र” का मंचन हर जगह होने लगा और उनके काल में ही बेहद लोकप्रिय हो गया। यह नाटक 20वीं में भी सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक बना रहा और सम्पूर्ण हिन्दी पट्टी में बड़े-छोटे शहरों से लेकर गाँवों तक मंचित होता रहा। 20वीं सदी की शुरुआत में राष्ट्रीयता और देशभक्ति के प्रचार-प्रचार के लिए नाट्य मंच का उपयोग किया जाने लगा। बंगाल में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने नाट्य कला के विकास में काफ़ी योगदान दिया।

19वीं सदी के मध्य में, 1850 के दशक से भारत में यूरोपीय नाट्य शैली से प्रभावित पारसी नाट्य मंच का तेजी से विकास हुआ। इसी की अगली कड़ी के रूप में पृथ्वी राज कपूर द्वारा मुंबई में स्थापित “पृथ्वी थियेटर” को देखा जा सकता है जिसने अंततः हिन्दी सिनेमा के विकास की रूपरेखा निर्धारित की। इसी की निरंतरता में देखने से पता चलता है कि बीसवीं सदी के मध्य से भारतीय रंगमंच का तेज़ी से विस्तार हुआ है जो आज भी अपनी सशक्त कलात्मक और वैचारिक उपस्थिति दर्ज करा रहा है। परंतु पश्चिमी मूल्यों से प्रभावित आधुनिक भारतीय नाट्य मंच का यह विकास सिर्फ़ महानगरों तक ही सीमित रहा और ग्राम्य अंचलों में हम स्थानीय शैलियों में ही नाटकों का मंचन होता हुआ देखते हैं।

स्वाधीनता-संग्राम के दौरान भी हम देश भर में लोक-कलाकारों द्वारा विभिन्न लोक-शैलियों में नाटक मंचन होता हुआ पाते हैं। हम सभी इस तथ्य से भली-भांति अवगत हैं कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों में बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा हर संभव प्रयास किया जाता था कि साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यों से राष्ट्रीयता और देशभक्ति का प्रचार-प्रसार हो। इसी क्रम में जगह-जगह नाटकों का मंचन भी किया जाता था। बड़े-बड़े लेखक, कवि, स्वाधीनता सेनानी और बुद्धिजीवी या तो स्वयं नाटक में किसी महत्वपूर्ण पात्र की भूमिका निभाते थे या नाट्य-मंचन में अन्य तरह से शामिल होते थे।उन दिनों नाटक देखना सिर्फ़ मनोरंजन का विषय नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक कर्म भी समझा जाता था। इसी संदर्भ में यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि ‘पंकज’ जी के दूसरे काव्य संकलन “उद्गार” की विस्तृत भूमिका लिखने वाले द्विवेदी युगीन महान विद्वान साहित्यकार जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ जो प्रोफेसर ‘पंकज’ के गुरु भी थे, ने बांग्ला उपन्यास “काला पहाड़” का हिन्दी में नाट्य रूपांतरण किया था जो काफ़ी लोकप्रिय हुआ था। कई बड़े शहरों में उसका मंचन हुआ था। हिन्दी के प्रख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ स्वयं इस नाटक को देखने पहुँचे थे। ‘निराला’ जी के मन में ‘परमेश’ जी के प्रति काफ़ी सम्मान के भाव थे। तो यह कैसे संभव होता कि अपने गुरु और प्रख्यात विद्वान ‘परमेश’ जी के इस नाटक से ‘पंकज’ जी प्रभावित नहीं हुए हों? बहुत संभव है कि हिन्दी विद्यापीठ की राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति के वातावरण को सघन बनाने के क्रम में ‘परमेश’ जी और अन्य प्रतापी गुरुओं के सानिध्य में ‘पंकज’ जी के मन में रंगकर्म के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ हो और वे अपने किशोर वय से ही नाटक खेलने लगे हों। इसी प्रक्रिया में एक लोकप्रिय नाट्य कलाकार के रूप में उनकी ख्याति छात्रावस्था में ही “हिन्दी विद्यापीठ” (देवघर) से आगे निकल कर आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में फैल गयी हो।

‘पंकज’ जी में अभिनय के प्रति रुझान पैदा करने में निकटवर्ती गाँव सारठ के घाटवाल ठाकुर श्यामाचरण लाल की भी एक विशेष भूमिका रही थी। अपने पैतृक गाँव खैरबनी के निकटवर्ती गाँव सारठ के घाटवाल ठाकुर श्यामाचरण लाल उनसे बहुत स्नेह करते थे और उनकी प्रतिभा को विकसित करने की दिशा में हर संभव प्रयास करते थे। ‘पंकज’ जी के पिताजी ठाकुर वसंत कुमार झा, जो स्वयं अपने ताल्लुक़ खैरबनी के घाटवाल थे, और ताल्लुक़ सारठ के घाटवाल ठाकुर श्यामाचरण लाल बहुत गहरे मित्र थे। मित्र होने के कारण वे एक दूसरे के सुख-दुख के साथी भी थे। संभवतः इसलिए दोनों घाटवाली घरानों की आर्थिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर होने के बावजूद उनकी मित्रता में कभी भी किसी प्रकार की मलिनता नहीं दिखाई दी। इसीलिए आगे चलकर 1942 की क्रन्ति के दौर में, जब ‘पंकज’ जी बागी बन गये थे और भूमिगत रहकर क्रांति की आग फैला रहे थे, अपने मित्र के इस मेधावी पुत्र को सुरक्षित रखने हेतु सारठ के घाटवाल ने बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों तक अपनी विशेष पहुँच के कारण अनेक बार स्वाधीनता सेनानी बन चुके ‘पंकज’ जी तक अंग्रेज़ी पुलिस को पहुँचने से रोका भी था। ‘पंकज’ जी के प्रति सारठ के ठाकुर साहब के अगाध स्नेह का एक कारण संभवतः ‘पंकज’ जी की नाट्य प्रतिभा भी थी। इसीलिए ज्ञात साक्ष्यों से पता चलता है कि प्रत्येक वर्ष दुर्गा पूजा (शारदीय नवरात्र का दशहरा) के समय ‘पंकज’ जी अपनी नाट्य मंडली के साथ, 1942 की क्रांति के विस्फोट के पहले तक, सारठ में नाटक का मंचन करते थे जिसको देखने के लिए घाटवाल साहब के साथ कई बार लॉटसाब(जिले के बड़े अंग्रेज़ अधिकारी) तक आते थे। लेकिन जब ‘पंकज’ जी स्वाधीनता संग्राम के एक समर्पित सिपाही के रूप में सक्रिय हो गये तब, जैसा कि उपलब्ध साक्ष्यों से ज्ञात होता है, उन्होंने सारठ के घाटवाल के समक्ष नाटक नाटक खेलना बंद कर दिया था। लेकिन बावजूद इसके हम पाते हैं कि रंगकर्मी ‘पंकज’ की रंग-चेतना ख़त्म नहीं हुई जो आगे चलकर “खैराबेमू” नामक स्थानीय नाट्य मंच के गठन के रूप में प्रस्फुटित हुई।

देवघर समेत सारठ का यह क्षेत्र “टप्पा सारठ” के रूप में 1911 के पहले तक तो बंगाल प्रान्त का ही एक अंग था। जनश्रुति के आधार पर कहें तो “सारठ” शब्द की व्युत्पत्ति “सरहद” यानी बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्र को द्योतित करने वाले इलाक़े से हुई है। तो “सारठ” नाम “सरहद” का एक परिवर्तित रूप है, जो उत्तर-मध्यकालीन बंगाल की उत्तर-पश्चिमी सीमा के दुर्गम इलाक़ों में क़ानून व्यवस्था लागू करने के लिए बंगाल की “दूसरी राजधानी” की तरह था। हाल-हाल तक सारठ की “गढ़ी” के प्राचीन अवशेष इस जनश्रुति को ऐतिहासिक संदर्भ में व्याख्यायित करने और इस क्षेत्र के इतिहास को समझने में हमारी मदद करते थे । तो “सारठ” जो उत्तर-मुगलकालीन बंगाल के नवाबों की “दूसरी राजधानी” की तरह था, बंगला-संस्कृति के प्रभाव से कैसे बच सकता था? इसीलिए सांस्कृतिक रूप से इस क्षेत्र पर बंगाली प्रभाव अभी तक क़ायम है। और जैसा कि सर्वविदित है कि बंगाली संस्कृति में नाट्य मंचन की परंपरा लम्बे समय से रही है, जिसके साक्ष्य बांग्ला साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। जैसा कि हम कह चुके हैं बंगाली संस्कृति में नाटक मंचन की परंपरा मध्यकाल से ही विद्यमान रही है, इसलिए माना जाना चाहिये कि सारठ जैसे ग्राम्य क्षेत्रों में भी नाट्य-मंचन की परंपरा बहुत पहले से, कम से कम उत्तर-मध्यकाल से अवश्य चली आ रही होगी।

तो यह स्वाभाविक ही था कि ‘पंकज’ जी का परिचय बाल्यकाल से ही नाटक मंचन से रहा हो और उनके व्यक्तित्व में रंगमंच और रंगकर्म के प्रति समर्पण के भाव सारठ के कला-प्रेमी घाटवाल साहब के प्रश्रय और प्रोत्साहन में अंकुरित हुए हों। जो भी हो, सारठ क्षेत्र के सभी रंगकर्मी इस बात को गौरव के साथ बताते रहे हैं कि आचार्य प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ उच्च कोटि के और मंजे हुए नाट्य-कलाकार एवं निर्देशक थे। अतः अभिनय के प्रति प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ की गंभीरता का सुखद परिणाम यह हुआ कि 1961 में “खैराबेमू” नवयुवक नाट्य मंच की स्थापना ‘पंकज’ जी की देखरेख में हुई जो अगले कई दशकों तक इस क्षेत्र में नाटक मंचन करती रही।

एक कुशल रंगकर्मी के लिए यह आवश्यक होता है कि वह कथानक की माँग के अनुरूप संबंधित पात्र के विभिन्न मनोभावों की अभिव्यक्ति हेतु विभिन्न भाव-भंगिमाओं के साथ-साथ संवाद अदायगी में भी दक्ष हो। तो चलिए पता करते हैं कि ‘पंकज’ जी जैसे स्वाभाविक रंगकर्मी में कहाँ तक इन गुणों का समाहार था? जब हम रंगकर्मी ‘पंकज’ से संबंधित सूचनाएँ एकत्रित करने की कोशिश करते हैं तो अस्सी पार कर चुके कुछ बुज़ुर्गों द्वारा दी गई जानकारियाँ हमारी बड़ी सहायता करतीं हैं। गोड्डा जिला स्थित प्रसिद्ध “बंदनवार” गाँव से ताल्लुक़ रखने वाले और एस पी कॉलेज दुमका में मेरे सहपाठी रह चुके शिक्षक डॉ सुदर्शन मिश्र ने बताया था कि जब उनके पिताजी, पंडित कृष्ण कांत मिश्र, अपनी किशोरावस्था में थे और बंदनवार के विद्यालय के छात्र थे तो ‘पंकज’ जी को किसी कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था। वहाँ के छात्रों से घुल-मिलकर ‘पंकज’ जी ने किशोर वय के उन बच्चों को “नवरस” को अभिव्यक्त करने वाली जिन भंगिमाओं को सिखाया था वे आज भी नहीं भूले हैं। यानी 12-13 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने और उनके साथियों ने ‘पंकज’ जी से विभिन्न मनोदशाओं और भावों की अभिव्यक्ति की जो कला सीखी थी वह आजीवन उनके साथ रही। चूँकि मिश्र जी का परिवार रामचरितमानस की चौपाइयों के अतिरिक्त अन्य भक्तिकाव्यों की उत्कृष्ट संगीतमय प्रस्तुति करने वाला बेहद सम्मानित संगीत-साधक परिवार माना जाता है, जिन्हें अपनी मंचीय सांगीतिक प्रस्तुति के लिए विभिन्न प्रकार की भाव-भंगिमाओं का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए उनके द्वारा आचार्य ‘पंकज’ की कलात्मकता को लेकर अभिव्यक्त किए गए ये विचार शोधार्थियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

ठीक इसी प्रकार ‘पंकज’ जी की वक्तृत्व कला के जो साक्ष्य हमारे सामने हैं, उनके आधार पर यह स्वीकार करना होगा कि ‘पंकज’ जी की विलक्षण प्रतिभा ने उन्हें अपने युग का बहुचर्चित और असाधारण वक्ता बनाया था। वे न सिर्फ़ अपनी कक्षाओं में सम्मोहन पैदा करने वाले शिक्षक के रूप में प्रख्यात थे, बल्कि बाहर भी जब किसी अवसर विशेष पर वे संभाषण करते थे तो उनकी वाणी की ओजस्विता और मृदुलता का संतुलन श्रोताओं के मध्य अदभुत सम्मोहन पैदा करता था। मेरे अग्रज डॉ विश्वनाथ झा जो उनके सुपुत्र होने के साथ-साथ छात्र भी रह चुके हैं, याद करते हुए कहते हैं कि “पिताजी जब संभाषण करते थे तो उनके सामने के श्रोतागण सम्मोहित हो जाते थे। जहाँ उनको बोलना होता था वहाँ के वातावरण, विषयवस्तु और श्रोता समूह की मनःस्थिति के अनुरूप उनका संभाषण होता था।उनके बोलने के आरोह-अवरोह और ध्वनि कंपन की एक विशेष शैली श्रोताओं को उनके साथ तादात्म्य की स्थिति में ला देती थी और मंच पर सिर्फ़ ‘पंकज’ जी की ही उपस्थिति की अनुभूति होती थी।”

‘पंकज’ जी की सम्मोहक वक्तृत्व कला की चर्चा उनके शिष्य और झारखंड के चर्चित लेखक स्वर्गीय भुजेन्द्र आरत जी ने अपने संस्मरणात्मक आलेख “स्मृति के आईने में आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज” में अनेकों बार की है।

इसी प्रकार ‘पंकज’ जी के एक दूसरे शिष्य और बाद में सहकर्मी स्वर्गीय प्रोफेसर सत्यधन मिश्र के अनुसार ‘पंकज’ जी ने अपने सभी गुरुओं- पंडित जनार्दन मिश्र ‘परमेश’, पंडित बुद्धि नाथ झा ‘कैरव’, डॉ लक्ष्मी नारायण सिंह ‘सुधांशु’ और डॉ जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ की विशिष्टताओं को आत्मसात कर लिया था। सम्मोहक वक्तृत्व कला का प्रसाद उन्हें अपने गुरु जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के शिष्यत्व में हुआ था।

‘पंकज’ जी की विलक्षण संभाषण कला से संभवतः बिहार के साहित्यकारों के अभिभावक माने जाने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय भी परिचित थे। उन्होंने “हिन्दी साहित्य और बिहार” (चतुर्थ खंड) नामक अपनी पुस्तक परियोजना हेतु एकत्रित सामग्री के आधार पर लिये गये नोट्स में प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ के बारे में “1938 से हिन्दी की सेवा, शिक्षण और सम्भाषण कला में दक्ष” लिखा था। इससे यह भी ज्ञात होता है कि ‘पंकज’ जी की ख्याति एक वक्ता के रूप में तत्कालीन बिहार में दूर-दूर तक फैली हुई थी।

इन विवरणों के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रोफ़ेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ में उच्च कोटि के रंगकर्मी के सभी गुण विद्यमान थे।

‘पंकज’ जी का जन्म वर्ष -1919, भारत के राजनैतिक-सांस्कृतिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में काफ़ी महत्वपूर्ण वर्ष था। स्वाधीनता संग्राम में एक नये युग की शुरुआत इसी वर्ष जालियाँवाला के नरसंहार और गांधी जी द्वारा आहूत सत्याग्रह एवं असहयोग आन्दोलन से हो जाती है। अतः कहा जा सकता है कि जब ‘पंकज’ जी किशोर वय के थे उसी समय आस-पास के परिवेश के कारण स्वाधीनता संग्राम और गांधीवाद का रंग उनपर चढ़ने लगा जिसने उन्हें स्वाधीनता संग्राम का महत्त्वपूर्ण सिपाही बनाया और वे आजीवन गांधीवादी मूल्यों का पालन करते रहे। गांधीवादी मूल्यों की छाप उनके साहित्य और विचारों में स्पष्टत: परिलक्षित होती है। तो स्वाभाविक ही था कि गांधीवादी मूल्यों के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ नवीन भारत के निर्माण के लिए ‘पंकज’ जी ने नाटक-मंचन का आश्रय लिया जो आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का प्रबल पक्ष बन गया हो। 

उपलब्ध स्रोत-सामग्री को आधार बनाकर कहा जा सकता है कि आचार्य ‘पंकज’ की रंगकर्मी गतिविधियों में सामाजिक परिवर्तन की चेतना मुखरित हुई थी। सौभाग्य से “खैराबेमू” के संस्थापक नवयुवक-कलाकारों की पीढ़ी के कुछ वयोवृद्ध कलाकार अभी भी हमारे बीच में हैं। मैंने पिछले साल, 2024 के दिसम्बर महीने में, उनमें से कुछ प्रमुख कलाकारों से मुलाक़ात करके जब “खैराबेमू” के गठन की पृष्ठभूमि और ‘पंकज’ जी की भूमिका को समझने के क्रम में उनका साक्षात्कार लिया और कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो बेहद सुखद परिणाम मिले।

“खैराबेमू” के संस्थापक नौजवान सदस्यों में से एक मूरचूरा निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक 82 वर्षीय डॉ हरि शर्मा, जो उन दिनों सारठ मिडिल स्कूल और बामनगावां हाईस्कूल में भी नाटक में स्त्री पात्र की भूमिका निभा चुके थे, के अनुसार “मूरचूरा” को केन्द्र बनाकर ‘पंकज’ जी ने “खैराबेमू” नाट्य मंच का गठन 1961 में किया जिसका मूल उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति था। जाति आधारित अछूत प्रथा को सार्वजनिक जीवन से समाप्त करने हेतु ‘पंकज’ जी ने उस समय तक अस्पृश्य समझे जाने वाले जाति समूह से भी योग्य कलाकारों की पहचान की और निरक्षर मोहली-मुसहर समुदाय से शनिचर मांझी को नाट्य मंडली में शामिल ही नहीं किया बल्कि हनुमान का रोल भी दिया था। ध्यातव्य है कि धर्मप्राण ग्राम्य जीवन में रामभक्त हनुमान का विशेष स्थान है। मंच पर हनुमान वेशधारी शनिचर मांझी के आते ही लोग तालियाँ बजाने लगते थे और यह भूल जाते थे कि वह जाति से मुसहर है। स्वाधीनता-संग्राम की उपज आचार्य पंकज यही तो चाहते थे ! समाज सुधार के एक विशिष्ट औज़ार के रूप में “खैराबेमू” की उपादेयता सिद्ध हो रही थी।

‘पंकज’ जी के छात्र रह चुके सेवानिवृत्त शिक्षक 80 वर्षीय श्री जगन्नाथ झा, जो लंबे समय तक मुख्य कलाकार (नायक) की भूमिका निभाते रहे, के अनुसार “खैराबेमू” के गठन के पूर्व वर्षों से मूरचूरा में कालीपूजा के अवसर पर दो दिन के मेले में चल रहे “लौंडा नाच” की अश्लील प्रथा को समाप्त करने हेतु नवयुवकों को प्रेरित किया और उनकी सकारात्मकता उर्जा को एक सार्थक दिशा प्रदान करने के लिए ‘पंकज’ जी ने वहाँ नाटक-मंचन की शुरुआत की और दोनों दिन नाटक मंचन होने लगा। 

“खैराबेमू” के गठन की घोषणा करने के बाद आचार्य पंकज ने सबसे पहले बेलाबाद के अपने बाल् सखा स्वर्गीय नारायण राय और उनके अनुज स्वर्गीय सागर राय को नाटक मंचन हेतु विभिन्न सामग्रियों के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी दी। स्मरण रहे कि स्वर्गीय नारायण राय निरक्षर थे, लेकिन आजीवन वे अपने बाल् सखा और उस युग के उद्भट विद्वान आचार्य पंकज के साथ हर समय खड़े रहे। आचार्य पंकज के वे सबसे भरोसेमंद मित्र थे । सच है मित्रता कहाँ किसी भेद को देखती है। तो अपने परम मित्र द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी वे कैसे नहीं निभाते? अस्तु, अपने अनुज सागर राय के साथ वे “खैराबेमू” के जन्म काल से ही महत्वपूर्ण अंग बन गए। बाद की पीढ़ी में बेलाबाद से स्वर्गीय मदन राय नाट्य कलाकार के रूप में खैराबेमू से जुड़े रहे। 

इसी तरह ‘पंकज’ जी की प्रेरणा से बेलबरना के हरिपद पंडित, किष्ट पंडित, महिसलिटी के गेंदा कापड़ी, शिवशरण कापड़ी और अन्य उत्साही युवक भी खैराबेमू से जुड़ गये।रानीगंज के स्वर्गीय जगदीश राय, स्वर्गीय हरे राम राय, स्वर्गीय अर्जुन राय, खैरबनी से स्वर्गीय मदन मोहन झा, स्वर्गीय शनिचर मांझी, श्री जगन्नाथ झा, श्री अर्जुन झा, श्री नारायण झा, मूरचूरा के डॉ हरि शर्मा, श्री बलराम शर्मा और अन्य नवयुवकों की बैठक ‘पंकज’ जी के पैतृक आवास में उनके ही सभापतित्व में संपन्न वर्ष 1961 की दुर्गापूजा के ठीक बाद, विजयादशमी के दूसरे ही दिन संपन्न हुई और “खैराबेमू” के गठन की घोषणा कर दी गई। आचार्य पंकज ने स्वयं निर्देशन का ज़िम्मा लिया और लगातार तीन-चार वर्षों तक वे निर्देशक की भूमिका में रहे। ‘पंकज’ जी के बाद स्वर्गीय मदन मोहन झा ने “खोराबेमू” के निर्देशक का भार सँभाला और अगले दो दशकों तक वे निर्देशक की भूमिका निभाते रहे।

स्वर्गीय मदन मोहन झा जो हाईस्कूल के शिक्षक थे और आसपास के बड़े क्षेत्र के सम्मानित गणित और भौतिक विज्ञान के विद्वान शिक्षक थे, के निर्देशन में “खैराबेमू” नाट्य मंच से जुड़कर बड़ी संख्या में नौजवानों ने अपनी कलात्मक प्रतिभा को एक विशेष पहचान दी। उनके निर्देशन में काम करने वाले नाटक कलाकारों में स्वर्गीय हरे राम राय, स्वर्गीय डॉ नन्दकिशोर झा, स्वर्गीय रघुनन्दन झा, स्वर्गीय अर्जुन राय, स्वर्गीय मदन राय, श्री जय प्रकाश झा, डॉ विश्वनाथ झा, श्री पूर्णधर शर्मा आदि प्रमुख थे। पूर्णधर शर्मा एक मँजे हुए हास्य कलाकार थे और संभवतः खैराबेमू की आख़िरी पीढ़ी के कलाकार थे। उन्होंने नाट्य मंचन में अपनी दीक्षा का श्रेय स्वर्गीय मदन झा को दिया।

श्री जगन्नाथ झा जब हाईस्कूल के शिक्षक बनकर जमशेदपुर चले गये तो मुख्य अभिनेता या नायक का रोल निभाने की ज़िम्मेदारी स्वर्गीय डॉ नन्द किशोर झा निभाने लगे। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जबतक उनकी नियुक्ति संताल परगना महाविद्यालय, दुमका में न हो गई। अपनी नौकरी और अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के क्रम में जब वे दुमका में ही रहने लगे तो नायक की भूमिका की ज़िम्मेदारी स्वर्गीय अर्जुन राय निभाने लगे। लगभग उसी समय से नाटक के निर्देशक की भूमिका डॉ विश्वनाथ झा का पदार्पण हुआ और वे निर्देशक के साथ-साथ किसी महत्वपूर्ण पात्र की भूमिका निभाने लगे।

मूरचूरा के 78 वर्षीय श्री बलराम शर्मा जो लगातार तीन दशकों तक हास्य कलाकार विदूषक (हास्य कलाकार) की भूमिका निभाते रहे, कहते हैं कि माननीय ‘पंकज’ जी आजीवन प्रतिवर्ष काली पूजा के अवसर पर होने वाले नाटक के पहले दिन सबसे पहले मंच पर आकर अपना आशीर्वचन देते हुए उपस्थित नाट्य प्रेमी श्रोता समूह और कलाकारों को संबोधित करते थे और “खैराबेमू” के गठन के उद्देश्य पर चर्चा करते हुए सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति हेतु सबका आह्वान करते थे। जनसमूह को दिये गये ‘पंकज’ जी के संदेश से कलाकारों में एक अलग तरह के उत्साह और जोश का संचार होता था। श्रद्धावनत भाव से श्री शर्मा कहते हैं कि सामान्य परिवेश में पल-बढ़ रहे नवयुवकों को ‘पंकज’ जी की दूरदर्शिता ने न सिर्फ़ कलाकार बनाया बल्कि उन्नकी उर्जा को सकारात्मक दिशा भी दी। इसीलिए ‘पंकज’ जी के संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनशैली में सकारात्मक मूल्यों को अपनाकर आगे बढ़ता चला गया। आचार्य पंकज को उन्होंने उस पारस के समान बताया जिनके संसर्ग मात्र से न जाने कितने नवयुवक लोहा से सोना बन गए।

भारत सरकार के सेवानिवृत उच्च अधिकारी और आचार्य पंकज के सुपुत्र 65 वर्षीय डॉ विश्वनाथ झा कहते हैं ‘पंकज’ जी जब “खैराबेमू” द्वारा मंचित नाटकों का निर्देशन करते थे, उस समय वे बहुत छोटे थे। अतः अपनी स्मृति पर ज़ोर डालने के बावजूद ‘पंकज’ जी द्वारा निभाई गई निर्देशक की भूमिका उनको याद नहीं आती है। उन्होंने जब से होश सँभाला था, स्वर्गीय श्री मदन मोहन झा को ही निर्देशक के रूप में देखा था। उन्हीं के निर्देशन में उन्होंने बाल कलाकार के रूप में मंचित नाटकों में हिस्सा लेना शुरू किया था और बाद में महत्वपूर्ण पात्रों का पार्ट निभाते हुए निर्देशक बने। यह सिलसिला 1987 तक चला। उन दिनों को याद करते हुए डॉ विश्वनाथ झा बताते हैं कि स्वर्गीय मदन मोहन झा उन्हें निर्देशन की बारीकियों से परिचित कराते थे और यह बताना नहीं भूलते थे कि निर्देशक के रूप में उनकी समस्त जानकारी के स्रोत आचार्य पंकज ही थे। यानी आचार्य पंकज द्वारा स्थिर किये गये “खैराबेमू” के तत्वावधान में मंचित नाटकों के सभी नियम कम से कम डॉ विश्वनाथ झा के काल तक निरंतरता में चलते रहे। संभवतः आने वाले एक दशक तक, जब तक “खैराबेमू” संस्था जीवित रही, पंकज जी द्वारा विकसित मंचन शैली ही चलती रही। रंगकर्मी के रूप में प्रोफेसर ‘पंकज’ के व्यक्तित्व की यह बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है क्योंकि उनकी मृत्यु के दो दशक बाद तक, उनकी तीसरी पीढ़ी के कलाकार भी, तमाम तकनीकी विकास और आधुनिकता के दबाव के बावजूद उनकी शैली का ही अनुकरण करते हुए उनके पदचिह्नों का अनुसरण रहे थे। 

डॉ विश्वनाथ झा याद करते हुए बताते हैं कि दो दिनों तक नाटक का मंचन किया जाता था, जिसमें एक दिन निश्चित रूप से पौराणिक विषयों पर आधारित नाटक का मंचन होता था। इसी क्रम में वर्षों तक “सत्य हरिशचंद्र” नाटक का मंचन वर्षों तक होता रहा। दूसरे दिन राष्ट्रीय चेतना, देशभक्ति की भावना और समाज-सुधार से संबंधित विषयों और पात्रों को लेकर नाटक खेला जाता था। सत्य हरिशचंद्र, महाराणा प्रताप, कुँवर प्रताप, वीर कुँवर सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, अपना देश, रास्ता बदलो, जैसे महत्वपूर्ण नाटकों का “खैराबेमू” नाट्य मंच द्वारा बार-बार मंचन होता रहा।

खैरबनी निवासी 75 वर्षीय श्री चन्द्र कांत झा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि यद्यपि कि वे कलाकारों की टीम का हिस्सा नहीं थे, लेकिन नाटक मंचन की पृष्ठभूमि में व्यवस्था संबंधी अन्य अनेक कार्य करने वाली टीम भी बनाई गई थी और वे उस टीम के सक्रिय सदस्य थे। उन दिनों गाँव में बिजली नहीं पहुँची थी और प्रकाश व्यवस्था का एकमात्र साधन पैट्रोमैक्स होता था। कम से कम तीन पैट्रोमैक्स की ज़रूरत पड़ती थी। एक पैंट्रोमैक्स तो अपने घर से ‘पंकज’ जी देते थे और एक पैट्रोमैक्स सारठ से लाया जाता था। तीसरा पैट्रोमैक्स गोपीबांध से लाया जाता था। एक बार भयंकर अँधेरी रात में उन्होंने तीन-चार किलोमीटर अकेले चलकर गोपीबांध गांव से पैट्रोमैक्स लाया था, जिसे याद करके वे रोमांचित हो गए। वे कहते हैं कि यह ‘पंकज’ जी के प्रति निष्ठा और समर्पण का ही परिणाम था। पंकज जी के बिना कुछ कहे भी हमलोगों खुद से आगे बढ़कर सारे काम निपटाते थे। पंकज जी मंच से विशेष कार्य संपादन के लिए जब कभी हममें से किसी युवक का नाम ले लेते थे और माला पहना देते थे तो हम उसे अपना बहुत बड़ा पारितोषिक मानते थे। पंकज जी की प्रशंसा हमारे लिए संजीवनी का काम करती थी।

‘पंकज’ जी के भतीजे और झारखंड सरकार से सेवानिवृत्त कर्मचारी 65 वर्षीय श्री प्रदीप कुमार झा बताते हैं कि उनकी भागीदारी कलाकार के रूप में तो नहीं रही लेकिन दर्शकों की भीड़ को नियंत्रित करने की ज़िम्मेदारी वे निभाते थे। वे आश्चर्य के साथ याद करते हैं कि 1990 के दशक में, जब पंकज जी हमारे बीच नहीं थे, बल्कि डेढ़-दो दशक पहले ही काल कवलित हो चुके थे, दर्शकों को पंकज जी का नाम लेकर ही शांत रखा जाता था। “खैराबेमू” के गठन की पृष्ठभूमि और ‘पंकज’ जी के उद्देश्य की जब बात बताई जाती थी तो उपस्थित जन समूह अपार उत्साह और धैर्य के साथ उनकी बातों को सुनता था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किस हद तक ‘पंकज’ इस क्षेत्र के लोगों के मानसिक पटल पर अपने देह त्याग के दशकों बाद भी जी छाये हुए थे। 

एतदर्थ, कहा जा सकता है कि आचार्य पंकज ने अपने युग में साहित्य, कला एवं संस्कृति के सभी पहलुओं को मौलिक रूप से प्रभावित करते हुए उनके संरक्षण में अपना अमूल्य योगदान दिया था। इसके साथ-साथ उन्होंने देशभक्ति और सामाजिक सरोकारों जैसे, महिला उत्पीड़न, अस्पृश्यता की भयावहता, स्त्रियों की दयनीय स्थिति आदि को दर्शाते हुए लोगों की संवेदना को झकझोरने का काम किया था। सामाजिक परिवर्तन की अपनी मुहिम के रूप “खैराबेमू” नाट्य मंच से “पौराणिक” और “सामाजिक” नाटकों के मंचन की जो विशिष्ट परंपरा उन्होंने शुरू की थी वह न केवल उनके जीवनकाल तक बल्कि उनकी मृत्यु के दो दशक बाद तक यथावत चलता रहा। इस तरह से देखने पर हमें ज्ञात होता है कि ‘पंकज’ जी के रंगकर्म का एजेंडा लगभग चार दशक तक चलता रहा, जो स्वाधीनता संग्राम के सिपाही गांधीवादी मूल्यों के अनुयायी समाज-सुधारक आचार्य पंकज के व्यक्तित्व का सहज हिस्सा था।

जब हम “खैराबेमू” नवयुवक नाट्य मंच की तुलना समकालीन अन्य ग्रामीण एवं लोक-रंगमंचीय प्रयोगों से करते हैं तो इसकी विशिष्टता और स्पष्ट हो जाती है। हबीब तनवीर का “नाचा”, उत्पल दत्त का ग्रामीण थिएटर तथा बी.वी. कारंत के लोक-रंगमंच प्रयास निश्चय ही उल्लेखनीय हैं, किन्तु “खैराबेमू” इन सबसे चार गुनी अवधि (लगभग 40 वर्ष) तक अक्षुण्ण रहा, पूर्णतः स्वायत्त था, बाहरी अनुदान या शहरी निर्देशक पर निर्भर नहीं था, और सबसे महत्त्वपूर्ण – यह नाट्यशास्त्र के सिद्धान्तों को गांधीवादी सामाजिक सुधार से जोड़ने वाला एकमात्र दीर्घजीवी प्रयोग था। जहाँ अधिकांश प्रयोग किसी न किसी रूप में शहरी बौद्धिक वर्ग की संरचना थे, वहीं “खैराबेमू” पूर्णतः स्थानीय ग्रामीण नवयुवकों की ऊर्जा और आचार्य पंकज के गांधीवादी-राष्ट्रीय दृष्टिकोण का स्वतःस्फूर्त संयोजन था।

निष्कर्ष: उपरोक्त अध्ययन के प्रकाश में हम कह सकते हैं कि आचार्य प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ द्वारा लिखित अनेकों एकांकियों में से अभी भी उपलब्ध दो एकांकियों, “साहित्यकार” एवं “चूरनवाला” तथा उनके द्वारा स्थापित नाट्य मंच “खैराबेमू” (1961-1996) से जुड़े हुए कुछ बुजुर्गों और विशिष्ट कलाकारों द्वारा प्रदान की गयी टेस्टीमॉनी को आधार बनाकर हम उनके महान रंगकर्मी व्यक्तित्व से भी परिचित होते हैं। इतना ही नहीं, हम यह भी बेहिचक कह सकते हैं कि प्रोफेसर ‘पंकज’ जी ने भारतीय नाट्य कला और रंगकर्म की उस धारा को, जिसकी जड़ें भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में गहरी थीं, अपने लेखन और रंगकर्म से समृद्ध तो किया ही था, बल्कि सुदूर ग्राम्य अंचलों में लोकप्रिय बनाने में महती भूमिका निभाई थी।

1962 में प्रकाशित “उद्गार” नामक उनके काव्य संग्रह में एक छोटी परंतु बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है – “राष्ट्र निर्माण”। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:


आओ जन जन दे तन मन धन

राष्ट्रभवन निर्माण करें हम।

यह प्रताप की पुण्य भूमि है

शिवा कुँवर की जन्म भूमि है

रानी लक्ष्मी बाई की स्मृति लेकर

जन-जन का आह्वान करें हम।


“खैराबेमू” द्वारा मंचित नाटकों की सूची – सत्य हरिश्चन्द्र, महाराणा प्रताप, कुँवर प्रताप, वीर कुँवर सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, अपना देश, रास्ता बदलो – क्या मेरी इस प्रस्थापना को मज़बूती प्रदान नहीं करती कि स्वाधीनता सेनानी और समाज सेवी आचार्य ‘पंकज’ अपने छात्रों और शिक्षित मध्यवर्गीय एक औसत भारतीय के लिए अपने साहित्य में “राष्ट्र निर्माण” के जिस महान लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे थे, उसी के प्रति सीधी सादी ग्रामीण जनता को जागरूक करने के लिए नाटक मंचन का सहारा ले रहे थे। अर्थात् नव स्वाधीन राष्ट्र का पुनर्निर्माण या नवनिर्माण ही उनका सबसे बड़ा एजेंडा था।

अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि आज से 106 वर्ष पहले जन्म लेने वाले और 48 वर्ष पहले देह त्याग करने वाले महत्वपूर्ण स्वाधीनता-सेनानी, बड़े समाज-सुधारक, अपने युग के प्रतिनिधि कवि और काव्यान्दोलन के प्रणेता, असाधारण शिक्षक, उद्भट विद्वान आचार्य प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’, न सिर्फ़ एक उच्च स्तरीय एकांकीकार और विशिष्ट रंगकर्मी थे बल्कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के महान संरक्षक भी थे। संभवतः इसीलिए “खैराबेमू नाट्य मंच” महज़ एक नाट्य मंच ही नहीं बल्कि अपने क्षेत्र का सशक्त नाट्य-आन्दोलन भी बनकर उभरा था जो अनवरत चार दशकों तक राष्ट्रीय चेतना के विकास और सामाजिक सुधार कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में लगा रहा और जिसका व्यापक एवं सकारात्मक प्रभाव समस्त सारठ-क्षेत्र पर पड़ा। ऐसा लगता है कि आचार्य पंकज सद्यः स्वाधीन भारत के नवनिर्माण हेतु साहित्य सर्जन समेत अपने सम्पूर्ण क्रियाकलापों में जिन सांस्कृतिक मूल्यों का अतुलनीय संवाहक बनकर आगे बढ़ रहे थे उन्हीं मूल्यों को उन्होंने अपने रंगकर्म में भी स्थापित किया था। उन्होंने मात्र सोलह वर्षों में एक ऐसा नाट्य मंच खड़ा किया जो ढाई दशक बाद तक उनके विचारों को जीवित रख सका। इस तरह कहा जा सकता है कि “खैराबेमू” नाट्यशास्त्र का ग्रामीण-भारत में सबसे सफल पुनराविष्कार था जिसका पूरा श्रेय रंगकर्मी ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ को जाता है।

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