प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा की मृत्य भारतीय इतिहास लेखन की ही नहीं बल्कि प्रगतिशील चिन्तन की अपूरणीय क्षति है. लगातार कई पीढ़ियों को इतिहास की उस अवधारण से, जो भारत में डी.डी.कोशाम्बी और इंगलैंड में ए.एल .बाशम विकसित कर रहे थे, के मूल तत्वों से बनी थी वे पिछले आधे दशक से भी ज्यादा समय से परिचित करा रहे थे. आज ४-४ पीढ़ियों के लोग उनके विद्यार्थी बनाने का गौरव हासिल कर चुके है और उनकी अगाध विद्वता से सनी हुई अद्भुत शिक्षण शैली से से इतिहास की समझ बनाने में सफल हुए हैं.१९८४-१९८६ में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास , प्राचीन इतिहास में एम. ए. करने के दौर में मुझे भी उनका छात्र बनाने का गौरव मिला था. हालाँकि वे सेवा निवृत हो चुके थे परन्तु प्रोफ़ेसर डी.एन. झा के निवेदन पर तथा हमलोगों के अनुनय -विनय पर उन्होंने अपने आवास पर ही एक पेपर हमें पढाया था. हमारा बैच उनसे पढ़ने वाले विद्यार्थियों का आख़िरी बैच था. सचमुच हमने उनके जैसे महान विद्वान और उत्कृष्ट शिक्षक के विद्यार्थी के रूप में जीवन की अमूल्य निधि हासिल की है.
प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा के सच्चे शिष्य के रूप में प्रोफ़ेसर डी.एन.झा ने बिलकुल वही मेनारिज्म और पढ़ने का अंदाज़ पाया है जिनसे उनके छात्र उनमे प्रोफ़ेसर शर्मा का विस्तार देखते हैं.
एक और बात. मेरे कॉलेज, एस. पी. कॉलेज, दुमका के दिवंगत गुरुदेव, प्रोफ़ेसर देवेन्द्र कुवर, जो पटना विश्वविद्यालय में गुरुदेव प्रोफ़ेसर डी.एन.झा के सहपाठी और गुरुदेव प्रोफ़ेसर आर.एस.शर्मा के शिष्य थे भी हमें इनके बारे में बहुत बाते बताया करते थे. मेरे स्वर्गीय पूज्य पिताजी पंकज जी जो अपने समय में उस क्षेत्र के हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ और उद्भट विद्वान समझे जाते थे, ने अपनी औपचारिक अंगरेजी शिक्षा पद्धति देर से शुरू की थी. जब आर.एस.शर्मा टी.एन. बी. कॉलेज में शिक्षक थे तब मेरे पिताजी हिन्दी के सुविख्यात विद्वान् और हमउम्र होने के वावजूद शर्मा जी के आई.ए. के छात्र थे. दुर्भाग्य से मेरे पिताजी १९७७ में ही ५८ वर्ष की अल्पायु में ही दिवंगत हो गए. परन्तु यह बात संयोग नहीं है की मुझे विज्ञानं पी पढ़ाई से हटाकर इतिहास की पढ़ाई करने को विवश करते हुए पिताजी ने जो सोचा था उसी के तहत आज मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ. क्या शर्मा जी जैसे मित्र और शिक्षक से प्रभावित होकर उन्होंने ऐसा किया था? जो भी हो परन्तु यह तो सुखद संयोग और अभिमान की बात है की शर्मा जी मेरे दिवंगत पिताजी और मेरे --दोनों के शिक्षक थे.
इस सुविख्यात इतिहासकार, मौलिक चिन्तक, उद्भट विद्वान् और अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.
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